2 सोलह सोमवार व्रत की कथाएं | Solah Somwar Vrat Katha

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सोलह सोमवार व्रत की पहली कथा (Solah Somwar Vrat Katha)

एक नगर में एक बहुत धनवान साहूकार रहा करता था, जिसके घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी । परन्तु उसको एक बहुत बड़ा दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं है । वह इसी चिन्ता में दिन-रात लगा रहता था । वह पुत्र पाने की कामना के लिये प्रत्येक सोमवार को शिव जी का व्रत और पूजन किया करता था तथा शाम के समय शिव जी के मन्दिर में जाकर के शिव जी के सामने दीपक जलाया करता था ।

उसके उस भक्तिभाव को देखकर श्री पार्वती जी ने शिव जी से कहा कि महाराज, यह साहुकार आप का बहोत बड़ा भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा के साथ करता है । इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए ।

शिवजी ने कहा- हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है । जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है । उसी तरह इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।” पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- महाराज! जब यह आपका इतना बड़ा भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को हमेशा दूर करते हैं ।

यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यो करेंगे? पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिव जी कहने लगे- “हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अतियंत दुःखी रहता है । इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर दे सकता हूँ । परन्तु वह पुत्र केवल 12 वर्ष तक जीवित रहेगा । इसके पश्‍चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा । इससे अधिक तो मैं भी कुछ और इसके लिए नही कर सकता ।”

यह बातें साहूकार सुन रहा था । इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख ही हुआ । वह पहले की तरह ही शिव जी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा । कुछ समय व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवे महीने में उसके अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई । साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नही की और न ही किसी को यह भेद बताया ।

जब वह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए आग्रह किया तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करा सकता । अपने पुत्र को काशी पढ़ने के लिए भेजूंगा । फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला कर उसको बहुत सा धन दिया और कहा तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ तथा ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराते जाना।

फिर वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते हुए काशी जी की तरफ जा रहे थे । रास्ते में उनको एक शहर पड़ा । उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दुसरे राजा का लड़का जो विवाह करने के लिये बारात लेकर आया था वह एक ऑंख से काना था ।

उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता हो रही थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें । इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार बनाया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये । ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और उसके मामा से बात की तो वे राजी हो गये फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना कर तथा घोड़ी पर चढा कर दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया ।

फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के के द्वारा करा लिया जाय तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर उसने लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत सारा धन दूंगा तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया ।

परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक ऑंख से काना है और मैं काशी जी में पढ़ने जा रहा हूँ । लड़के के जाने के पश्‍चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ देखा तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है । मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है । वह तो काशी जी पढ्ने गया है । राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी ।

उधर सेठ का लड़का और मामा काशी जी पहुंच गए थे। वहॉं जाकर लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया । जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा- “मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं लग है”। मामा ने कहा- “अन्दर जाकर सो जाओ और आराम करो।” लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर के बाद में उसके प्राण निकल गए ।

जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा हुआ है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना- पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा जो की सही नहीं होगा । अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त किया और ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे ।

जब उन्होने जोर- जोर से रोने की आवाज सुनाई दी तो पार्वती जी शिव जी से कहने लगी- “महाराज! कोई दुखिया रो रहा है कृप्या कर इसके कष्ट को दूर कीजिए । जब शिव- पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा हुआ था ।

पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से पैदा हुआ था । पार्वती कहने लगे- “हे प्रभु! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प- तड़प कर मर जायेंगे।” पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दे दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का फिर से जीवित हो गया । शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत की ओर चले गये ।

उसके बाद वह लड़का और उसका मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर वापस चल पड़े । रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह संपन्न हुआ था । वहां पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर दारी की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा भी किया ।

जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि पहले मैं तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूँ । जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे हुए थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण त्याग देंगे ।

इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र वापस आ गया है तो उनको विश्‍वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथ पुर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता से साथ रहने लगे । इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।


सोलह सोमवार व्रत की दूसरी कथा (Solah Somwar Vrat Katha)

एक बार भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती जी क‍ि इच्‍छा मृत्‍यु लोक में घूमनें कि हुई, और वो दोना मृतयु लोक में आ गये। माता पार्वती व भगवान शंकर जी मृत्‍यु लोक में घूमते-घूमते विदर्भ देशातंर्गत अमरावती नामक नगरी जो कि बहुत ही सुन्‍दर थी, वहॉं पहुँच गये। उन्‍होने देखा कि अमरावती नगरी अमरपुरी के द्श्‍य सभी प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। उस न‍गरी में राजा द्वारा बनवाया हुआ बहुत सुन्‍दर भगवान भोलेनाथ जी का मंदिर था। उस मंदिर में भगवान भोलेनाथ जी और माता पार्वती निवास करने लगे।

एक दिन माता पार्वती जी ने भगवान से क‍हा हे प्राणपति आज तो हम और तुम दोनों चौसर पासा खेले। शंकर जी ने माता पार्वती जी की बात मान ली और चौसर खेलने लगे। उसी समय मंदिर का पुजारी ब्राह्मण मंदरि में पूजा करने के लिए आया हुआ था। माता ने ब्रह्मण को देखकर एक प्रश्‍न किया कि पुजारी जी बताओ, कि इस बाजी में दोनों में से किसकी जीत होगी, और किसकी हार होगी। ब्राह्मण ने बिना सोचे-समझे कहा कि भगवान भोलेनाथ जी जीतेगे। कुछ समय बाद बाजी समाप्‍त हुई और माता पार्वती जी कि विजय हो गयी।  

माता पार्वती को ब्राह्मण के झूठ बोलने पर क्रोध आया और कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। भगवान शंकरजी के बहुत समझाने के बाद भी माता नही मानी। और वो दोनाे वहॉं से चले गये। कुछ समय बाद उस ब्राह्मण पुजारी को कोढ़ होने लगे और धीरे-धीरे उसके सारे शरीर में कोढ़ हो गये।  वह बहुत ही परेशान व दुखी रहने लगा।  इस तरह काफि दिन बीत गये, और एक दिन देवलोक कि अप्‍सरायें शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में आयी। अप्‍सराओं ने उस पुजारी के कष्‍ट को देखकर बड़े दयाभाव से उसके रोगी होने का कारण पूछा।

तब पुजारी जी ने आप बीती निसंकोच होकर सभी बाते उन अप्‍साराओ से कह दि।  यह सुनकर वो अप्‍सराये बोले हे ब्राह्मण तुम दुखी मत होओ, भगवान भोलेनाथ जी आपके सभी कष्‍टों को दूर कर देगे। परन्‍तु तुम्‍हे सभी बातो में श्रेष्‍ठ षोडश सोमवार का व्रत पूरे विधि-विधान और भक्तिभाव से पूरे सोलह व्रत करने होगे। और सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूँ के आटे की बाटी बनावें, उसके बाद घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनाकर भगवान भोलेनाथ जी को प्रसाद चढ़ाना। और बाकि के प्रसाद को मंदिर में उपस्थित भक्‍तों को बाटें। ऐसे करने से आपकी सभी मनोकामनाए पूरी होगी।

ऐसा कहकर अप्‍सराये तो देवलोक चली गयी। ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत करने लगा ऐसे में धीरे-धीरे ब्राह्मण पुजारी कोढ़ से मुक्‍त होने लगा भगवान भोलेनाथ कि कृपा से। कुछ समय बाद भगवान शंकरजी और माता पार्वती जी फिर से उसी मंदिर में पधारे। तब माता ने उस ब्राह्मण को रोग मुक्‍त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण नें माता को सोलह सोमवार के व्रत के बारें में विस्‍तार से बताया। ब्राह्मण की बात सुनकर माता पार्वती जी बहुत प्रसन्‍न हुयी और पुजारी से सोलह सोमवार के व्रत कि विधि पूछीं।

उसी दिन से माता पार्वती जी भी षोडश सोमवार व्रत करने लगी और लगातार सोलह व्रत किया। ऐसे में उनकी मनोकामनाए पूरी हुयी। उन‍के रूठे पुत्र स्‍वामी कार्ति‍केय जी स्‍वंम ही माता के आज्ञाकारी हो गये। फिर एक दिन कार्तिकेय को अपना विचार परिवर्तन होने का रहस्‍य जानने कि इच्‍छा हुयी और वह अपनी माता के पास आया, और बोला कि आपने ऐसा क्‍या उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हो गया।  

तब माता पार्वती जी ने उसे षोड़श सोमवार कथा सुनाई। तब कार्तिकेय ने अपनी माता से कहा इस व्रत को मैं भी करूगा। क्‍योंकि मेरा प्रिय मित्र ब्राह्मण दुखी दिल से परदेश गया है। हमें उस से मिलने कि बहुत इच्‍छा होती है। फिर कार्तिकेय जी ने भी सोलह सोमवार के व्रत पूरे विधि-विधान से करे। और उनकी इच्‍छा पूर्ण हो गयी। उसे अपना प्रिया मित्र मिल गया। तब उसके मित्र ने इस आ‍कस्मिक मिलन हा भेद कार्तिकेय जी से पूछा। तो वे बोला – “हे मित्र! हमने तुम्‍हारे मिलने की इच्‍छा करके सोलह सोमवार के व्रत किये थे।

अब तो उस ब्राह्मण मित्र हो अपने विवाह कि बड़ी इच्‍छा हुयी और वह भी सोलह सोमवार व्रत पूरे विधि-विधान से करने लगा। एक दिन वह किसी काम से विदेश गया, और वहॉं के राजा ने अपनी पुत्री का स्‍वयंवर रखा था। उस राजा ने राजकुमारी के विवाह के लिय यह शर्त रखी थी। कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रेड़गारित हथिनी माला डालेगी, मैं उसी के साथ अपनी बेटी का विवाह करूगा।

भगवान शिवजी क‍ि कृपा से ब्राह्मण भी उस स्‍वयंवर को देखने के लिए एक ओर बैठा हुआ था। उसी समया हाथिनी वहा पर आयी और उस ब्राह्मण के गले में जयमाला डाल दी। इस तरह राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम के साथ अपनी पुत्री का विवाह उस ब्राह्मण के साथ पूरे विधि-विधान से कर दिया। और उसे बहुत सारा धन देकर सम्‍मान पूर्वक संतुष्‍ट किया। और वाे दोना सुखी पूर्वक रहने लगे।

एक दिन उस राजकुमारी ने अपने पति से पूछा कि हे प्राणनाथ आपने ऐसा कोनसा पुण्‍य किया है जो हाथिनी ने सभी राजकुमारो को छोड़कर आपके गले में जयमाला डाली। तब ब्राह्मण बोला हे प्राणप्रिय! मैने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था। जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी रूपवान पत्‍नी मिली है। इस व्रत कि महिमा सुनकर राजकन्‍या को बड़ा आर्श्‍चय हुआ। और वह भी पुत्र कामना के लिए सोलह सोमवार व्रत करने लगी। और भगवान भोलनाथ से पुत्र कामना कि प्राप्‍ति करने लगी। शिवजी क‍ि कृपा से कुछ समय बाद उसके गर्भ से एक अति सुन्‍दर सुशील धर्मात्‍मा और विद्वान पुत्र हुआ।  

वह ब्राह्मण और उसकी पत्‍नी दोनो उस पुत्र को पाकर बहुत ही प्रसन्‍न हुऐ, और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे। जब वह लड़का बड़ा हुआ और समझदार हुआ। तो एक दिन अपनी माता से प्रश्‍न किया कि माता आपने ऐसा कोनसा पुण्‍य किया जो मेरे जैसा पुत्र आपके गर्भ से अत्‍पन्‍न हुआ है। पुत्र कि बात सुनकर उस राजकुमारी ने अपने द्वारा किये गये सोलह सोमवार व्रत कि कथा के बारें में पूरे नियमो अनुसार बताया। उस लड़के ने इस व्रत को सब तरह से मनोरथ पूर्ण करने बाला सुनकर, उसके मन में राज्‍याधिकार कि पाने कि इच्‍छा करी।  

उस लड़के ने उसी दिन भगवान शिवजी को प्रसन्‍न करने के लिए सोलह सोमवार के व्रत पूरे नियमो से करने लगा।  एक दिन दूसरे देश के राजा के दूत आकर उसको उनकी राजकुमारी के लिए चूना। और उसे अपने साथ ले आये और राजा ने अपनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया। धीरे-धीरे राजा वृद्ध हो गया और उस से राजकाज सभांलना मुशकिल हो गया। उसने अपने दामाद का राज्‍यातिलक कर‍ दिया और वहा का राजा घोषित कर दिया। ब्रह्मण पुत्र राजा बनकर भी करता रहा।  

जब सत्रहवां सोमवार का व्रत आया तो उसने अपनी रानी से सभी सामग्रीयो सहित भगवान भोलनाथ जी के मंदिर आने को कहा। किन्‍तु रानी मंदिर नही गयी और उसने अपने दास-दासियों को पूजा की सामग्री लेकर मंदिर भेज दिया। राजा ने पूरे विधि-विधान से भगवान शिवजी कि पूजा करी। जब वह वहा से जाने लगा तो उसने सुना कि आकाशवाणी से एक आवाज आई, और उसने कहा हे राजा अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे। नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी।  इस वाणी को सुनकर राजा आश्‍चर्य में पड़ गया और उसने तुरंत मंत्रियों कि बैठक बुलाई। और आपबीती सुनाई।

मंत्री आदि सभी बड़े विस्‍मय और दुख में डूब गये। क्‍योंकि जिस कन्‍या के साथ राज्‍य मिला है, राजा उसी को राज्‍य से निकालने का जाल रच रहा है।  यह कैसे हो सकेगा ? अतं में राजा ने अपनी रानी काे राजमहलो से निकाल दिया। रानी दुखी हदय से अपने भाग्‍य को कोसती हुयी, अपने राज्‍य से बाहर चली गयी। बिना चप्‍पलों के और फटे वस्‍त्र पहने, भूखी-प्‍यासी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में जा पहुँची।  उस नगर में एक बुढि़या रोज सूत कातकर बेचने जाती थी।

रानी की करूण दशा देख बुढि़या बोली तू मेरे साथ चल मेरे सूत बिकवा दे।  मैं वृद्व हूँ भाव नहीं जानती हूँ। यह सुनकर रानी बुढि़या के सिर से सूत की गठरी उतारकर अपने सिर पर रख ली। अचानक से आंधी आई और बुढि़या के सभी सूत हवा में उड़ गये, बेचारी बुढि़या बहुत पछतायी और रानी से कहा कि दूर रहना मेरे से। अब रानी एक तेली के घर गयी और काम मागंने के लिय कहा, कि अचानक से उस तेली के सभी मटके शिवजी के प्रकोप से चटक गये। ऐसा दशा देखकर उस तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया।  

इस प्रकार रानी अत्‍यंत दुख पती हुयी एक नदी के तट पर गयी तो देखा कि‍ नदी अचानक सूख गयी।  उसके बाद रानी एक वन में गई, वहा जाकर उसने एक सरोवर देखा और वह पानी पीने के लिऐ सरोवर कि सीढ़ी उतरी। और पानी पीने के लिए जैसे अपने हाथो को आगे बडाया तो देखा कि सरोवर का पानी नीलकमल के सदृयस जल असंख्‍य कीड़ोमय गंदा हो गया।  रानी ने अपने भाग्‍य का दोषारोपण करते हुये उस सरोवर का जल पीकर अपनी प्‍यास बुजाई, आराम करने के लिए एक पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करने के लिए लेटी तो देखा कि उस पेड़ कि सभी पत्तिया जड़ गयी।  

ऐसे में रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उसी पेड़ कि पत्तिया अपने आप झड़ जाती। वन, सरोवर और पेड़ो की ऐसी दशा देखकर गाय चराते हुये ग्‍वालों ने अपने गुसाई ( स्‍वामी ) जी से सभी बाते बता दी।  गुसाईं जी के आदेशानुसार ग्‍वालो ने रानी को पकड़कर गुसाईं जी के पास ले आये। रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देखकर गुसाई जी जान गये कि यह कोई विधि की गती की मारी कुलीन अबला है। ऐसा सोचकर गुसाई जी ने रानी से कहा कि हे पुत्री मैं तुमको पुत्री समान रखूगा। तुम मेरे आश्रम में ही रहो, और मैं तुम्‍हे किसी प्रकार का कष्‍ट नहीं होने दूगा।  

गुसाईं जी ऐसे वचन सुनकर रानी को थोड़ी धीरज मिली और वह आश्रम में ही निवास करने लगी। आश्रम में रानी खाना बनती तो उसके खाने में कीड़ पड़ जाते और जब वह पानी भरके लाती तो उसमें भी कीड़े ही कीड़े हो जाते। अब तो गुसाईं जी बहुत दुखी हो गये और रानी से बोला कि बेटी तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिस से तेरी ऐसी दशा है।  गुसाई जी कि बात सुनकर रानी ने कहा कि अपने पति के साथ भगवान शिवजी की पूजा करने नहीं जाने की पूरी कथा सुनाई।  

रानी की बात सुनकर गुसाईं जी ने उसे इस कोप से मुक्‍त होने के लिए सोलह सोमवार व्रत की कथा पूरे विधि-विधान से करने को कहा। गुसाईं जी कि‍ बात सुनकर वह प्रत्‍येक सोमवार का व्रत पूरे नियमों से करने लगी। जब रानी के पूरे सोलह व्रत हो गये और जब उसने सत्रहवें सोमवार का व्रत किया और रोज कि तरह भगवान भोलेनाथ जी कि पूजा कर रहीं थी। तो भगवान शिवजी के प्रभाव से राजा के मन में अपनी रानी का विचार उत्‍पन्‍न हुआ। और सोचा कि मेरी रानी को गये हुये बहुत समय बीत गया, न जाने कहा-कहा भटकती होगी। मुझे उसे ढूंढना चाहिऐ।  

राजा ने यह सोचकर अपनी रानी कि तलाश में चारो दिशाओ में अपने सैनिको को भेजा। सैनिक अपनी रानी को ढूढंते हूये गुसाई जी के आश्रम में आ पहुचे। सैनिक अपनी रानी को वहा पाकर पुजारी जी से अपनी रानी को साथ भेजने के लिऐ कहा। किन्‍तु गुसाईं जी ने मना कर दिया, और सैनिक चुपचाप लौट गये। राजा को सभी बाते बतायी,  तब राजा स्‍वयं रानी को लेने गुसाईं जी के आश्रम आये। और पुजारी से प्रार्थना करने लगे और का महाराज !  जो देवी आपके आश्रम में रहती है। वो मेरी पत्‍नी है, शिवजी के कोप से मैनें इसका त्‍याग कर दिया था।  

अब इस पर से भगवान शिवजी का काेप शांत हो गया है। इसलिए मैं इसे लेने के लिए आया हॅूं आपकी आज्ञा हो तो मैं इसे ले जा सकता हॅूं। गुसाईं जी ने राजा के वचनो को सत्‍य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। गुसाई जी कि आज्ञा पाकर रानी अपने पति के साथ अपने राज्‍य के लिए चल दी।  रानी के आने कि खबर पाकर राज्‍य के निवासी अनेक प्रकार के बाजे-बजाने लगे, नगर के दरवाजे पर तोरण बन्‍दनवारों से विविध-विधि से नगर को सजाया।  नगर में घर-घर में मंगल गान होने लगे, पंडितों ने विविध वेद मंत्रो का उच्‍चारण करके अपनी रानी का स्‍वागत किया।  इस प्रकार रानी ने अपनी राजधानी में पुन: प्रवेश किया।

राजा ने अपनी रानी के आने कि खुशी में ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दानादि देकर संतुष्‍ट किया।  याचकों को धन-धान्‍य दिया, और पूरी नगरी में जगह-जगह सदाव्रत खुलवाये। जहॉं भूखो और गरीबो को खाने को मिलता है।  इस प्रकार राजा रानी भगवान भोलनाथजी की कृपा से सभी प्राकर के सुख भागते हुऐ और सोलह सोमवार व्रत की कथा  करते रहे। अंत समय में अनेक प्रकार के सुख भोगते हुये शिवपुरी को पधारे।

ऐसे में जो कोई मनुष्‍य भगवान भोलेनाथ जी कि भक्ति मनसा, वाचा, कर्मणा द्वारा सोलह सोमवार के व्रत पूरे विधि-विधान से करेगा।  वह इस मृत्‍यु लोक से समस्‍त सुख को भोगकर अन्‍त में भगवान के चरणों में शिवपुरी को प्राप्‍त होगा। और इस व्रत के करने से सब के मनोरथ पूर्ण होते है।

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