पांच दशा माता की कहानियां | dasha mata ki katha

3.5/5 - (4 votes)

dasha mata ki katha, dasha mata katha, dasha mata vrat katha, दशा माता व्रत कथा, दशा माता, dasha mata, dasha mata ki katha, दशा माता की कथा, दशा माता की कहानी

एक झलक में दशा माता

दशा माता कोई और नहीं बल्कि मां पार्वती का ही स्वरूप है। ऐसी मान्यता है कि जो महिलाएं ये व्रत करती हैं उनकी परेशानियां दूर हो जाती हैं और परिवार में सुख-समृद्धि, शांति, सौभाग्य और धन संपत्ति बनी रहती है। महिलाएं इस दिन दशा माता और पीपल की पूजा कर सौभाग्य, ऐश्वर्य, सुख-शांति और अच्छी सेहत की कामना करती हैं।

दशा माता की कहानी 1

दशामाता व्रत की प्रामाणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में राजा नल और दमयंती रानी सुखपूर्वक राज्य करते थे। उनके दो पत्र थे। उनके राज्य में प्रजा सखी और संपन्न थी। एक दिन की बात है कि उस दिन होली दसा थी। एक ब्राहमणी राजमहल में आई और रानी से कहा- दशा का डोरा ले लो। बीच में दासी बोली- हां रानी साहिबा, आज के दिन सभी सुहागिन महिलाएं दशा माता की पूजन और व्रत करती हैं तथा इस डोरे की पूजा करके गले में बांधती हैं जिससे अपने घर में सुख-समृद्धि आती है। अत: रानी ने ब्राह्मणी से डोरा ले लिया और विधि अनुसार पूजन करके गले में बांध दिया।

कुछ दिनों के बाद राजा नल ने दमयंती के गले में डोरा बंधा हआ देखा। राजा ने पूछा- इतने सोने के गहने पहनने के बाद भी आपने यह डोरा क्यों पहना? रानी कुछ कहती, इसके पहले ही राजा ने डोरे को तोड़कर जमीन पर फेंक दिया। रानी ने उस डोरे को जमीन से उठा लिया और राजा से कहा- यह तो दशामाता का डोरा था, आपने उनका अपमान करके अच्छा नहीं किया।

जब रात्रि में राजा सो रहे थे, तब दशामाता स्वप्न में बुढ़िया के रूप में आई और राजा से कहा- हे राजा, तेरी अच्छी दशा जा रही है और बुरी दशा आ रही है। तूने मेरा अपमान करने अचछा नहीं किया। ऐसा कहकर बुढ़िया (दशा माता) अंतर्ध्यान हो गई।

अब जैसे-तैसे दिन बीतते गए, वैसे-वैसे कुछ ही दिनों में राजा के ठाठ-बाट, हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर, धनधान्य, सुख-शांति सब कुछ नष्ट होने लगे। अब तो भूखे मरने का समय तक आ गया। एक दिन राजा ने दमयंती से कहा- तुम अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाओ। रानी ने कहा- मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। जिस प्रकार आप रहेंगे, उसी प्रकार मैं भी आपके साथ रहंगी। तब राजा ने कहा- अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में चलें। वहां जो भी काम मिल जाएगा, वही काम कर लेंगे। इस प्रकार नल-दमयंती अपने देश को छोड़कर चल दिए।

चलते-चलते रास्ते में भील राजा का महल दिखाई दिया। वहां राजा ने अपने दोनों बच्चों को अमानत के तौर पर छोड़ दिया। आगे चले तो रास्ते में राजा के मित्र का गांव आया। राजा ने रानी से कहा- चलो, हमारे मित्र के घर चलें। मित्र के घर पहुंचने पर उनका खूब आदर-सत्कार हुआ और पकवान बनाकर भोजन कराया। मित्र ने अपने शयन कक्ष में सुलाया। उसी कमरे में मोर की आकृति की खूटी पर मित्र की पत्नी का हीरों जड़ा कीमती हार टंगा था। मध्यरात्रि में रानी की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि वह बेजान खूटी हार को निगल रही है। यह देखकर रानी ने तुरंत राजा को जगाकर दिखाया और दोनों ने विचार किया कि सुबह होने पर मित्र के पूछने पर क्या जवाब देंगे? अत: यहां से इसी समय चले जाना चाहिए। राजा-रानी दोनों रात्रि को ही वहां से चल दिए।

सुबह होने पर मित्र की पत्नी ने खूटी पर अपना हार देखा। हार वहां नहीं था। तब उसने अपने पति से कहातुम्हारे मित्र कैसे हैं, जो मेरा हार चुराकर रात्रि में ही भाग गए हैं। मित्र ने अपनी पत्नी को समझाया कि मेरा मित्र कदापि ऐसा नहीं कर सकता, धीरज रखो, कृपया उसे चोर मत कहो।

आगे चलने पर राजा नल की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के घर खबर पहंचाई कि तुम्हारे भाई-भौजाई आए हुए हैं। खबर देने वाले से बहन ने पूछा- उनके हाल-चाल कैसे हैं? वह बोला-दोनों अकेले हैं, पैदल ही आए हैं तथा वे दुखी हाल में हैं। इतनी बात सुनकर बहन थाली में कांदा-रोटी रखकर भैया-भाभी से मिलने आई। राजा ने तो अपने हिस्से का खा लिया, परंतु रानी ने जमीन में गाड़ दिया।

चलते-चलते एक नदी मिली। राजा ने नदी में से मछलियां निकालकर रानी से कहा- तुम इन मछलियों को भंजो, मैं गांव में से परोसा लेकर आता है। गांव का नगर सेठ सभी लोगों को भोजन करा रहा था। राजा गांव में

गया और परोसा लेकर वहां से चला तो रास्ते में चील ने झपट्टा मारा तो सारा भोजन नीचे गिर गया। राजा ने सोचा कि रानी विचार करेगी कि राजा तो भोजन करके आ गया और मेरे लिए कुछ भी नहीं लाया। उधर रानी मछलियां भंजने लगी तो दुर्भाग्य से सभी मछलियां जीवित होकर नदी में चली गईं। रानी उदास होकर सोचने लगी कि राजा पड़ेंगे और सोचेंगे कि सारी मछलियां खुद खा गईं। जब राजा आए तो मन ही मन समझ गए और वहां से आगे चल दिए।

चलते-चलते रानी के मायके का गांव आया। राजा ने कहा- तुम अपने मायके चली जाओ, वहां दासी का कोई भी काम कर लेना। मैं इसी गांव में कहीं नौकर हो जाऊंगा। इस प्रकार रानी महल में दासी का काम करने लगी और राजा तेली के घाने पर काम करने लगा। दोनों को काम करते बहुत दिन हो गए। जब होली दसा का दिन आया, तब सभी रानियों ने सिर धोकर स्नान किया। दासी ने भी स्नान किया। दासी ने रानियों का सिर गूंथा तो राजमाता ने कहा- मैं भी तेरा सिर गूंथ दूं। ऐसा कहकर राजमाता जब दासी का सिर गूंथ ही रही थी, तब उन्होंने दासी के सिर में पद्म देखा। यह देखकर राजमाता की आंखें भर आईं और उनकी आंखों से आंसू की बूंदें गिरी। आंसू जब दासी की पीठ पर गिरे तो दासी ने पूछा- आप क्यों रो रही हैं? राजमाता ने कहा- तेरे जैसी मेरी भी बेटी है जिसके सिर में भी पदम था, तेरे सिर में भी पदम है। यह देखकर मुझे उसकी याद आ गई। तब दासी ने कहा- मैं ही आपकी बेटी हूं। दशा माता के कोप से मेरे बरे दिन चल रहे है इसलिए यहां चली आई। माता ने कहा- बेटी, तूने यह बात हमसे क्यों छिपाई? दासी ने कहा- मां, मैं सब कुछ बता देती तो मेरे बुरे दिन नहीं कटते। आज मैं दशा माता का व्रत करूंगी तथा उनसे गलती की क्षमा-याचना करूंगी।

अब तो राजमाता ने बेटी से पूछा- हमारे जमाई राजा कहां हैं? बेटी बोली- वे इसी गांव में किसी तेली के घर काम कर रहे हैं। अब गांव में उनकी खोज कराई गई और उन्हें महल में लेकर आए। जमाई राजा को स्नान कराया, नए वस्त्र पहनाए और पकवान बनवाकर उन्हें भोजन कराया गया।

अब दशामाता के आशीर्वाद से राजा नल और दमयंती के अच्छे दिन लौट आए। कुछ दिन वहीं बिताने के बाद अपने राज्य जाने को कहा। दमयंती के पिता ने खूब सारा धन, लाव-लश्कर, हाथी-घोड़े आदि देकर बेटी-जमाई को बिदा किया।

रास्ते में वही जगह आई, जहां रानी में मछलियों को भूना था और राजा के हाथ से चील के झपट्टा मारने से भोजन जमीन पर आ गिरा था। तब राजा ने कहा- तुमने सोचा होगा कि मैंने अकेले भोजन कर लिया होगा, परंतु चील ने झपट्टा मारकर गिरा दिया था। अब रानी ने कहा-आपने सोचा होगा कि मैंने मछलियां भूनकर अकेले खा ली होंगी, परंतु वे तो जीवित होकर नदी में चली गई थीं।

चलते-चलते अब राजा की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के यहां खबर भेजी। खबर देने वाले से पछा कि उनके हालचाल कैसे हैं? उसने बताया कि वे बहुत अच्छी दशा में हैं। उनके साथ हाथी-घोड़े लाव-लश्कर हैं। यह सुनकर राजा की बहन मोतियों की थाल सजाकर लाई। तभी दमयंती ने धरती माता से प्रार्थना की और कहामां आज मेरी अमानत मुझे वापस दे दो। यह कहकर उस जगह को खोदा, जहां कांदा-रोटी गाड़ दिया था। खोदने पर रोटी तो सोने की और कांदा चांदी का हो गया। ये दोनों चीजें बहन की थाली में डाल दी और आगे चलने की तैयारी करने लगे।

वहां से चलकर राजा अपने मित्र के घर पहंचे। मित्र ने उनका पहले के समान ही खुब आदर-सत्कार और सम्मान किया। रात्रि विश्राम के लिए उन्हें उसी शयन कक्ष में सुलाया। मोरनी वाली खूटी के हार निगल जाने वाली बात से नींद नहीं आई। आधी रात के समय वही मोरनी वाली खूटी हार उगलने लगी तो राजा ने अपने मित्र को जगाया तथा रानी ने मित्र की पत्नी को जगाकर दिखाया। आपका हार तोइसने निगल लिया था। आपने सोचा होगा कि हार हमने चुराया है।

दूसरे दिन प्रात:काल नित्य कर्म से निपटकर वहां से वे चल दिए। वे भील राजा के यहां पहुंचे और अपने पुत्रों को मांगा तो भील राजा ने देने से मना कर दिया। गांव के लोगों ने उन बच्चों को वापस दिलाया। नल-दमयंती अपने बच्चों को लेकर अपनी राजधानी के निकट पहुंचे, तो नगरवासियों ने लाव-लश्कर के साथ उन्हें आते हए देखा। सभी ने बहत प्रसन्न होकर उनका स्वागत किया तथा गाजे-बाजे के साथ उन्हें महल पहंचाया। राजा का पहले जैसा ठाठ-बाट हो गया। राजा नल-दमयंती पर दशा माता ने पहले कोप किया, ऐसी किसी पर मत करना और बाद में जैसी कृपा करी, वैसी सब पर करना



 

दशा माता की कहानी 2

एक घर में सास-बहु रहती थी । बहु का पति परदेश में गया था । एक दिन सास ने बहु से गांव में से आग ला कर भोजन पकाने को कहा । बहु गांव में आग लाने गयी पर किसी ने भी उसे आग नहीं दी और सभी ने  कहा की -‘ जब तक दशामाता की पूजा नहीं हो जाती तब तक आग नहीं मिलेगी । ‘ बेचारी बहु खाली हाथ घर लोट आई । उसने सास को बताया की – ‘ गांव भर में आज दशामाता की पूजा है इसलिए कोई आग नहीं दे रहा है । ’

शाम हो जाने पर सास आग लेने गांव में गयी तो स्त्रियो ने उसे आराम से बैठाया और कहा की -‘ सुबह तुम्हारी बहु आग लेने आई थी । परंतु हमारे यहा पूजा नहीं हुई थी इसलिए आग नही दे सकी । ’ सास आग लेकर अपने घर पहुची ही थी की एक आदमी बछड़ा लिए आया और उसके पीछे एक गाय थी । स्त्री ने उससे पूछा की – ‘ यह गाय का पहला बच्चा है क्या ?’ आदमी ने उत्तर दिया -‘ हां । ’ उसने फिर पूछा की -‘ बछड़ा है या बछिया ?’ उसने जवाब दिया की-‘बछड़ा है । ’

सास ने घर जाकर बहु से कहा -‘ आओ ! हम दोनों भी दशामाता का डोरा ले और व्रत करे । ’ दोनों सास-बहु ने डोरा लिया । सवेरे से व्रत आरम्भ किया । नो व्रत पुरे हो जाने पर दसवे दिन डोरे की पूजा की । सास बहु दोनों ने मिलकर गोल-गोल दस-दस अर्थात कुल बिस फेरे बनाए । इक्कीसवाँ  बड़ा फेरा गाय को दिया । पूजन समाप्त होने पर सास- बहु दोनों पारण करने बैठी ।

उसी समय बुढ़िया के बेटे ने परदेस से लौटकर दरवाजे पर आवाज लगाई ।

आवाज सुनकर माँ ने मन में सोचा की- ‘ क्या हुआ थोड़ी देर बीटा दरवाजे पर ही खड़ा रह जायगा । में पारण करने के बाद दरवाजा खोलूंगी । ’ इधर बहु ने आवाज सुनी तो उसे रुकने का साहस नहीं हुआ । अपनी थाली का अन्न इधर-उधर करके झट से पानी पीकर उठ खड़ी हुई । उसने जाकर दरवाजा खोला । पति ने उससे पूछा की-‘अम्मा कहा हे ?’ बहु ने उत्तर दिया की -‘वह तो अभी पारण कर रही है । ’ तब पति बोला -‘में तुम्हारे हाथ का जल भी नहीं पिऊंगा क्योंकि में बारह बरस से घर आया हु । इतने दिनों न जाने तुम किस प्रकार रही होगी ” अम्मा आएंगी , वह जल लाएंगी , तब ही जल  पिऊंगा । ’ यह सुनकर स्त्री चुपचाप बेथ गयी ।

इतने में उसकी अम्मा पारण कर अपनी थाली धोकर पि चुकी । तब वह लड़के के पास गयी । लड़के ने माँ के पैर छुवे । अम्मा उसे आशिर्वाद देकर बेटे को घर में ले आई । माता ने थाली परोस कर रखी । बेटा भोजन करने लगा । उसने हाथ में पहला ग्रास ही लिया था की फेरो के वे टुकड़े जो बहु ने अपनी थाली में फेक दिए थे ,अपने आप बेटे के सामने आने लगे । बेटे ने माँ से पूछा -‘ यह सब क्या हो रहा है ?’ माँ बोली -‘ में क्या जानू बेटा ? बहु जाने । ’

यह सुनकर बेटा आग बबूला होकर बोला -‘ ऐसी बहु मेरे किस काम की ? ‘ जिसके चरित्र की तुम साक्षी नहीं हो । उसको में घर में नहीं रख सकता इसे अभी घर से निकालो यदि ये घर में रहेगी ,तो  में घर में नहीं रहूँगा । ’

माँ ने बेटे को व्रत के पारण का सब हाल बताकर हर तरह से समझाया परन्तु वह मानने को तैयार नहीं हुआ । वह यही कहता रहा की इसे घर से बहार करो तो में रह सकता हु । माँ ने सोचा बहु को थोड़ी देर के लिए बाहर कर देती हु । जब लड़के का गुस्सा उत्तर जायेगा तब बहु को बुला लुंगी । बुढ़िया ने बहु से कहा -‘ देहरी के बाहर जाकर पेड़ के निचे थोड़ी देर के लिए खड़ी हो जा । ’

जब बहु पेड़ के निचे खड़ी हुई तो पेड़ बोला -‘ मुझ से हटकर खड़ी हो । मै दशामाता के विरोधी को छाया नहीं दे सकता । ’ इस पर वह वहा से चलकर घड़ौची के पास गयी घड़ौची बोली -‘ मुझसे हटकर खड़ी हो । मुझ पर इतना भार घडो का नहीं है जितना तेरा हे । ‘ वह यह से हटकर घूरे के ढेर पर खड़ी हो गयी । घूरे का ढेर बोला -‘मुझ पर इतना भार कूड़े का नहीं है जितना तेरा हे । चल यहा से हटकर कही और खड़ी हो जा । ’

इस प्रकार उसे कही भी खड़ा नहीं होने दिया गया । वह अपने मन में बहुत दुखी हुई । वह जंगल मै चली गयी । जंगल में भूखी-प्यासी घूमती फिरती एक सूखे कुवे में गिर पड़ी । वह उसमे गिरी परंतु उसे चोट नहीं आई । वह निचे बैठ गयी ।

अचानक राजा नल वहा शिकार खेलते-खेलते वहा पहुच गए । उनके साथी बिछुड़ गए थे । वह प्यास के कारण उसी कुवे पर आये जिसमे वह स्त्री बैठी थी । राजा नल के भाई ने कुवे में पानी के लिए लोटा डाला तो उस स्त्री ने लोटे को पकड़ लिया । भाई ने नल से कहा की -‘ इस कुवे में किसी ने लोटा पकड़ लिया हे। ‘

तब राजा नल ने कुवे पर आकर कहा की -‘तुम यदि पुरुष हो तो मेरे धर्म के भाई हो और यदि स्त्री हो तो मेरी धर्म की बहन हो तुम जो भी हो बोलो । में तुम्हे बाहर निकाल लूंगा । ’ स्त्री ने आवाज दी । राजा ने उसे बाहर निकाल लिया तथा हाथी पर बैठा कर राजधानी ले आया ।

महाराज को शिकार से लौटकर महलो की और आते देखकर सवको ने महारानी को महाराजा के आने की सुचना दी । सेवको ने एक स्त्री को हाथी पर बैठा देखकर रानी को बताया की -‘ महाराजा एक नई रानी भी साथ ला रहे हे । ’ यह जानकर रानी बड़ी दुखी हुई । इतने में महाराज भी वहा आ पहुचे । रानी ने हाथ जोड़कर विनती की -‘महाराज । मुझसे ऐसे क्या गलती हो गयी जो मेरे रहते आप ने दूसरा विवाह कर लिया ?’

राजा नल ने हस कर उत्तर दिया -‘ वह तुम्हारी सोत नहीं ननद है । मेरी धर्म की बहन है । तुम्हे उसके साथ अपनी सगी ननद की तरह बर्ताव करना चाहिए । ’ यह सुनते ही महारानी का मुख प्रसन्नता से कमल की भाती खिल उठा । वह बोली -‘ अब तक में ननद का सुख नहीं जानती थी । अच्छा हुआ जो मुझे भाग्य से ननद भी मिल गयी । ’ राजा ने उसका नाम मुह बोली बहिन रखा और उसके लिए अलग महल बनवाया । उसके दिन अब सुखपूर्वक बीतने लगे ।

एक दिन राजा की घोड़ी का बच्चा हुआ तो राजमहल की स्त्रियां बधाई गीत गाने लगी । मुह बोली बहन ने अपने दासियो से कहा -‘ बाहर जाकर पता करो की किस बात बधाई गयी जा रही है ?’ दासियो ने बताया -‘ महाराजा की घोड़ी ने अच्छी घडी में एक उत्तम बछड़े को जन्म दिया हे । उसकी बधाई गायी जा रही । ’ मुह बोली बहिन ने पूछा -‘ क्या घोड़ी ने पहली बार जन्म दिया हे ?’ दासियो ने उत्तर दिया -‘ हां। ’

तब मुह बोली बहिन ने महारानी के पास जाकर कहा -‘ आओ भाभी रानी ! हम तुम दोनों दशामाता का डोरा ले । ’ रानी ने पूछा -‘ डोरा क्या चीज हे ? मुझे समझाओ । ’ वह बोली -‘ दशामाता के व्रत का यह नियम है  की पहले-पहल जब गाय या घोड़ी या स्त्री के प्रसव की खबर सुने तब डोरा लेकर व्रत आरम्भ करते हे । नो व्रत करने के बाद दसवे दिन डोरे का पूजन करके विसर्जित करते हे । ’ इसी के साथ उसने पारण का नियम भी बताया । तब महारानी बोली -‘ तुम्हारा व्रत तुमको फले । मै पूड़ी और दूध की खीर खाने वाली रानी -महारानी भला बनफ़रा , गोले की पपड़ी खाकर कैसे रह सकती हु ? ऐसा कहना खाये मेरा दुश्मन। ‘

वह बोली -‘ भाभी ! मुझे जो चाहे कह लो । परंतु व्रत के संबंद में कुछ मत कहो । में इसी व्रत के उलघन के कारण मारी-मारी फिरती आपके देश में आ गयी हु । ’ महारानी ने उदासीनता के साथ कहा -‘ मुझे क्या पड़ी हे ? तुम्हे जो अच्छा लगे वह करो । में मना तो नहीं कर रही हु । ’

मुह बोली बहिन ने श्रद्धा पूर्वक डोरा लिया । नो दिन तक व्रत किये । दसवे दिन विधिवत पूजन किया । गोला ,फरा बनाए और संध्या को पारण करने बैठी । उसी समय उसके पति को अचानक कुछ प्रेरणा -सी हुई और वह अपनी माता से आज्ञा लेकर अपनी पत्नी को ढूंढने चल दिया ।

घूमता फिरता वह राजा नल की राजधानी ने पहुच गया और अपनी अपनी पत्नी का पता लगाने लगा ।

उसने एक कुवे पर कुछ ओरतो को बातें करते देखा । एक कह रही थी -‘राजा की मुह बोली बहिन बहुत ही सुन्दर ही स्त्री हे । आजकल उसी का किया हुआ सबकुछ होता हे । ’ दूसरी स्त्री बोली -‘वह सुन्दर होने के साथ साथ धर्मात्मा भी हे  जब से आई हे तभी से उसने सदावर्त खोल रखा हे । उसके दरवाजे से कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता। ’

तीसरी स्त्री बोली -‘वह जैसी धर्मात्मा हे , वैसी सदाचारणी भी हे । ’ चौथी स्त्री बोली -‘ वह सदाचारणी और सर्वप्रिय भी हे । सारी प्रजा उससे खुश हे । ’ पाचवी स्त्री बोली-‘ यह सब तो सही हे परन्तु अब तक यह पता नहीं चला की वह कोन हे और कहा की रहने वाली हे ?’

उन ओरतो की बात सुनकर वह साधु के वेश में राजा नल की मुह बोली बहिन के महल के द्वार पर जा पंहुचा । वहा उसने भिक्षा के लिए आवाज लगाई तो द्वारपाल उसे भिक्षा देने लगा । उसने द्वारपाल के हाथो से भिक्षा लेने से मना कर दिया और बोला -‘ भिक्षा देने वाली स्वामिनीं के हाथ से ही भिक्षा ग्रहण करूँगा नहीं तो अपने रास्ते चला । ‘

तब द्वारपाल ने उससे कहा – ‘इस समय वह दशामाता का व्रत करके पारण कर रही हे । पारण समाप्त होने के बाद ही वह तुमको भिक्षा दे सकती है । तब तक तुम इंतजार करो । ’

वह चुपचाप बैठ कर इंतजार करने लगा । पारण कर लेने के बाद वह मुठी भर मोती लेकर आई । परन्तु सामने अपने पति को पल्ला फैलाये देखकर वह मुस्कराती हुई लोट गयी । दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया था ।

महारानी ने मुह बोली ननद को मुस्कराते देखकर कहा -‘ जब से तुम आई हो आज तक मैंने मुस्कराते नहीं देखा । आज इस साधु को देखकर हँसने का क्या कारण हे ?’

मुह बोली बहिन ने उत्तर दिया की -‘ वह साधु हमारे घर का है । ’ रानी ने पूछा -‘तब वह ऐसे क्यों आया हे ?’ उसने कहा -‘ वह अभी मेरा पता लगाने आया है । ’ महारानी ने राजा नल से कहा -‘ तुम्हारी मुह बोली बहिन के घर के लोग आये हे । ’ राजा ने कहा -‘ उनसे कह दो की अभी यहा से घर जाकर वहा से हमारी हैसियत से आये । तब में बहिन की विदाई करूँगा । ’

राजा नल की मुह बोली बहिन का पति घर जाकर अपनी माँ से बोला -‘ तुम्हारी बहु राजा नल के यहा उसकी बहिन बनकर रह रही हे । वह रोज सदाव्रत करती है  और नियम धर्म से दिन बिताती हे । ’ तब उसकी माता ने उसे आज्ञा दी की -‘बहु को ले आओ। ‘ वह डोली ,पीनस ,बाजे-गाजे ,कहार आदि के साथ यथाचित सज-धज कर राजा नल की राजधानी को चल दिया ।

राजा ने उसका यथोचित आदर सत्कार किया और कुछ दिन मेहमानी में रखकर विधिपूर्वक बहिन की विदाई की । जब वह महल के बाहर निकल चलने लगी तो महल भी उसके पीछे -‘पीछे चलने । तब महारानी बोली -‘ ननद जी !’ तुम चली और मेरा महल भी ले चली । जरा पीछे मुड़कर तो देखती जाओ । ’ ज्यो ही उसने मुड़कर पीछे की और देखा तो राजा का सम्पूर्ण राजसी वैभव अचानक लुप्त हो गया ।

राजा की मुह बोली बहिन तो अपने पति के साथ आनंद से रहने लगी परन्तु राजा नल व रानी का यह हाल हो गया की वे दोनों कमरी-कथरी ओढ़े फिरने लगे । उनके भोजनालय में पते खड़-खड़ाने लगे । राजा नल ने रानी से कहा -‘अब हमे यहा से कही दूसरी जगह चले जाना चाहिए । ’ रानी पतिव्रता स्त्री थी । उसने राजा की आज्ञा मान ली ।

चलते-चलते वे एक गांव के पास पहुचे । वहा पर बेरी के पेड़ पर बेर लगे हुए थे । राजा-रानी दोनों भूखे थे । उन्होंने बेरो को उठाया तो बेर लोहे के हो गए । इस प्रकार राजा-रानी जिस वस्तु को भी हाथ लगाते वह कंकड़ -पत्थर में बदल जाती थी । इतने पर भी राजा-रानी आगे बढ़ते गए । रास्ते में उन्हें एक व्यापारी मिला । व्यापारी ने राजा-रानी को पहचान लिया । उसने राजा-रानी के भोजन के लिए सेर भर आटा दिया । वे आटा लेकर नदी के किनारे गए । वहा रानी भोजन बनाने लगी और राजा नल स्नान करने चले गए । उस नदी में मछवारे मछलिया पकड़ रहे थे । मछेरों ने राजा को चार मछलिया दी । रानी ने मछलिया भूनकर रोटियां बना ली । राजा नल भोजन करने बैठे तो रोटियां ईठ में परिवर्तित हो गई और मछलिया उछलकर नदी में चली गई ।

वहा से चल कर राजा-रानी अपनी मुह बोली बहिन के यह गए । बहिन को जब पता चला की भाई भाभी आये हे तो उसने सेवको से पूछा -‘ कैसे आये हे ?’ सेवको ने कहा की -‘भिखारियों के हाल में आये है ‘। यह सुनकर उसे बड़ी लज्जा आई । उसने राजा-रानी को एक कुम्हार के यह ठहरा दिया  । शाम को थाल सजाकर बहिन स्वयं भाभी से मिलने कुम्हार के घर गयी । उसने भाभी के सामने थाल रखा तो भाभी ने कहा की -‘इस थाल में जो कुछ भी हे उसे कुम्हार के चक्के के निचे रख दो और चली जाओ । ’

ननद थाल का समान चक्के के निचे रखकर चली गयी । थोड़ी देर में राजा ने आकर रानी से पूछा -‘ कहो बहिन आई थी ? क्या लाई थी ?’ रानी ने कहा -‘ आई तो थी पर जो कुछ लायी थी मैंने इस चक्के के निचे रखवा दिया है । ’ राजा ने वहा देखा तो वहा कंकड़ -पत्थरो के सिवा कुछ भी नहीं था । राजा को समझते देर न लगी की यह सब बुरी दशा के कारण है । भला वह मेरे लिए कंकड़-पत्थर क्यों लायेगी?

अब राजा रानी वहा से चलकर अपने मित्र के घर गए । मित्र को लोगो से पता चला तो उसने उनसे पूछा -‘कैसे आना हुआ ?। ’ उन्होंने उत्तर दिया -‘भिखारियों के हाल में आए है । ’

मित्र ने दुखी होकर कहा-‘ कोई बात नहीं । जैसे आये वैसे अच्छे आये , आखिर मित्र हे । उन्हें महलो में ले आओ । ‘ मित्र ने उन दोनों का स्वागत किया । स्वादिष्ट भोजन कराया । एक कमरे में उनके लिए पलंग बिछवा दिए । उस कमरे में एक खुटी पर नोलखा हार टंगा था । आधी रात के समय राजा तो सो गए परंतु रानी जाग रही थी । रानी ने देखा की हार वाली खुटी के पास दिवार में एक मोर का चित्र बना हुआ हे । मोर धीरे-धीरे हार को निगल रहा हे । रानी ने राजा को जगाकर वह द्रश्य दिखाया ।

राजा ने सोचा यहा से चुपचाप भाग चलना चाहिए नहीं तो सवेरे चोरी का कलंक लगेगा । तब मित्र को क्या मुख दिखाएंगे ? बचारे राजा और रानी में ही उठकर जंगल की तरफ चले गए ।

दोनों चलते चलते एक दूसरे राजा की राजधानी में पहुच गए । वहा अतिथि और भिख्सुओ को सदावर्त दिया जाता था । वे दोनों भी सदावर्त लेने गए । परंतु उस समय सदावर्त बंद हो चूका था । वहा के अधिकारियो ने कहा -‘ यह लोग न जाने कहा के अभागे आये हे की इन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं बचा फिर भी इन्हें एक एक मुठी चने दे दो । ‘ उन्होंने इस प्रकार से अनादर और कड़वी बातो सहित दान लेना अस्वीकार कर दिया । वे दानाध्यक्ष की निंदा करते हुए बोले की -‘ ऐसी कंजूसी है तो सदावर्त देने का नाम ही क्यों करता हे ?’

 

दानाध्यक्ष बोला -‘ यह तो बड़ा घमंडी भिक्षुक लगता है । भीख भी मांगता है और गाली भी देता है । इनको हवालात मैं डाल दो । ’ इस प्रकार दोनों को एक कोठरी में बंद कर दिया गया । एक -एक मुठी चने दोनों को खाने के लिए मिलने लगे।

जिस कोठरी में राजा-रानी बंद किया गया था उसी के पास आम रास्ता था । एक जमादारनी राजा की घुड़साल साफ कर उसी रास्ते से निकला करती थी । एक दिन वह बहुत देर से निकली । रानी उससे पूछने लगी की -‘ आज तुम्हे इतनी देर कैसे हो गयी ?’ वह बोली की -‘ आज राजा की घोड़ी के बछड़ा हुआ था । उसकी टहल में देर हो गयी ‘ रानी ने पूछा की -‘ घोड़ी का पहला प्रसव है क्या ?’ जमादारनी ने बताया -‘पहली बार । ’ रानी ने फिर पूछा -“बछेड़ा हुआ है या बछेड़ी ?” जमादारनी ने बताया की -‘ बहुत अच्छा बछेड़ा हुआ है । ’

यह सुनकर रानी ने राजा से कहा -‘ एक बार मैंने तुम्हारी मुह बोली बहिन के डोरे का अनादर किया था । उसी दिन से हमारी दशा बदल गई । में आज दशामाता का डोरा लेना चाहती हु । ’ राजा ने कहा -‘परन्तु यह पूजा की सामग्री कहा से आयगी ? उसके नियम धर्म का पालन कैसे होगा ?’ रानी ने उत्तर दिया -‘ दशामाता ही सब कुछ करेगी । में तो उन्ही का नाम लेकर डोरा लेती हु । फिर जो होगा देखा जायेगा । ’

रानी ने नो तार राजा की पगड़ी से और एक तार अपने आँचल का लेकर अपना डोरा तैयार किया और उसे समय से व्रत करने लगी । थोड़ी देर में ही वहा का राजा अपनी घोड़ी को देखने के लिए उसी रास्ते से निकला । राजा ने नल दम्पति को देखा कोठरी में बंद देखकर पूछा की-‘वे लोग कोन है और इनका क्या अपराध हे ?’ पहरेदारो ने कहा -‘ ये लोग भिक्षा लेने आये थे । ये आपको आशिर्वाद देने के बदले गालिया देते थे । इसी कारण दानाध्यक्ष ने इन लोगो को कैद मैं डाल दिया है । ’

राजा ने कहा-‘ यह तो इनका कोई अपराध नहीं है। इनको मनवांछित भिक्षा नहीं मिली होगी इसलिए ये गालिया देने लेंगे होंगे । इनको संतुष्ट करना चाहिए था ना की कैद में डाल देना चाहिए । इनको अभी रिहा करो । ’ राजा की आज्ञा से उसी समय दोनों को कोठरी से बाहर निकाला गया । राजा उनके पांव में पदम् और माथे पर चंद्रमा देखकर पहचान गया की यह तो राजा नल और रानी दमयंती है । इस पर उसने दोनों हाथो से हाथ जोड़कर शमा मांगी और हाथी पर बैठा कर अपने महल में ले गया ।

कुछ दिन तक राजा के यहाँ रहकर उन दोनों ने पुरे राजसी ठाट के साथ अपनी राजधानी की और प्रस्थान किया । रास्ते में वे पहले अपने मित्र के यहाँ गए । मित्र ने राजा नल की आने की खबर सुनकर लोगो से पूछा -‘ मित्र आये तो कैसे आये ?’ लोगो ने कहा -‘ अब की बार तो राजसी ठाट -बाट के साथ हाथी , घोड़े ,डंका,निसान,पालकी ,पीनस  एव फ़ौज को साथ लेकर आये हे । ’

मित्र ने कहा -‘ अच्छी बात हे , आने दो । मेरे लिए तो जैसे तब थे वैसे ही अब भी है। आखिर है तो मित्र ही । ‘ राजा-रानी मित्र के महल में गए । मित्र ने उनको आदर सत्कार के साथ उसी स्थान पर ठहराया । जिस स्थान पर पहले ठहराया था । आधी रात के समय जब राजा सो रहे थे  और रानी पैर दबा रही थी तब रानी ने देखा की मोर का चित्र जो पहले हार को निगल गया था ,उसे उगल रहा है । रानी ने राजा को जगाकर यह दर्शय दिखाया । राजा नल ने अपने मित्र को बुलाकर यह दिखाया ।

मित्र बोला की -‘ मैंने तब भी तुमको चोर नहीं समझा था और न अब समझता हु । यह दर्शय तुम्हारी बुरी दशा का फल है । आप निश्चित रहिये , मेरे मन में कोई मेल नहीं हे । ’ मित्र के यहाँ से चलकर राजा-रानी अपनी मुह बोली बहिन के यहाँ गए । उसने सुना राजा भईया आ रहे है तो उसने लोगो से पूछा -‘ कैसे आ रहे है ?’ लोगो ने कहा -‘ जिस प्रकार राजा का आना चाहिए , उसी प्रकार से आ रहे है । ’

उसने कहा -‘ उनको मेरे महल ले आओ । ’ जब राजा नल का हाथी बहिन के महल की और बड़ा तब रानी ने कहा -‘ आप अपनी बहिन के घर जाइये । में तो उसी कुम्हार के घर रहूंगी जिसके पहले ठहरी थी । ’ राजा ने कहा -‘ जिस कारण इतने दुःख उठाये , तुम फिर उससे झगड़ा मोल लेना चाहती हो । यह तुम अच्छा नहीं कर रही हो । ’  परन्तु रानी नहीं मानी ।

वह कुम्हार के घर ही ठहरी । राजा बहिन के घर चले गए । शाम को राजा की बहिन भाभी के लिए थाल सजाकर कुम्हार के यहाँ आई । उसने भाभी के सामने थाल रख दिया । भाभी सोने-चांदी के गहने उतार-उतार कर रखने लगी और कहने लगी -‘ खाओ रे । मेरे सोने-चांदी के गहनों खाओ । हम भूखे नंगे क्या खाएंगे । ’ यह उलाहना सुन ननद बोली -‘ यह उलाहना किसे देती हो ?मुझ से उस समय जो हो कुछ हो सका वो उस समय लायी थी , वही अब भी लायी हु । विश्वास न हो तो चक्के के निचे अब भी देख लो । ‘ सचमुच चक्के के निचे देखा तो वहा पर माणिक-मोतियों का ढेर लगा था । रानी यह सब देखकर सन्न रह गयी । वह बोली -‘ ननद जी ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है । यह तो हमारी बुरी दशा का परिणाम था । ’ रानी ने ननद का लाया सब सामान तथा उनमे अपनी तरफ से कुछ और जवाहरात मिलाकर ननद को वापस कर दिया , परंतु ननद को पूजा का न्योता देना भूल गयी ।

वहा से चलकर राजा सूरा गाय के पास आये । गाय ने सेना सहित राजा को भर पेट दूध पिलाया । वहा से आगे चलकर वे नदी के तट पर पहुचे तो वहा पड़ाव डाला । भोजन बनवाया गया । जब राजा भोजन करने बैठे तो उसी समय नदी में उछल कर गिरी हुई भुनी भुनाई मछलिया अपने-आप थाली में गिर पड़ी । व् रोटियां जो ईट बन गयी थी फिर से रोटियां बन गयी ।

राजा ने कहा -‘ यह सब क्या हो रहा है ? कुछ समझ में नहीं आता । ’ रानी ने बताया की -‘ ये रोटियां और मछलिया वे ही है जो उस दिन हमे नसीब नहीं हुई थी । मैं यदि आप से उस समय कहती की तली हुई मछलिया जल मैं उछल गयी और रोटियां ईट बन गयी तो आप कदापि भी इसे सच नहीं मानते । इसी कारण मुझे बहाना बनाना पड़ा था । ’ अब राजा-रानी अपने राजधानी की और आगे बढे ।

जब राजा की फ़ौज अपनी राजधानी के समीप पहुची तो वहा के लोगो ने समझा की दूसरे राजा ने राजधानी पर आक्रमण कर दिया है । वे घबरा गए । वहा के लोग नजराना लेकर राजा से मिलने गांव के बाहर आये परंतु यह क्या ? यह तो अपने राजा है । लोगो का प्रसन्ता का ठिकाना न रहा । वे श्रद्धा -भक्ति के साथ महाराज के आगे चल कर उन्हें उनके महल में ले गए ।

राजा-रानी ने महल में प्रवेश किया । रानी ने तुरंत दशामाता की पूजा का प्रबंध किया । उसने उस पूजा में नगर की सब सौभाग्यवती स्त्रियों को बुलाया । भगवती के भोग के लिए सब प्रकार के पकवान बनाये गए । आटे की दस बतिया ,दस शकर की गुंजिया और दस-दस अठवाइया सुहागिनों के आँचल मैं डाली । सुहागिनों का शंगार करके दशामाता की पूजा आरम्भ हुई । कलश स्थापित करके दीपक को जलाया गया , परन्तु उसकी बती जली नहीं । इस पर पंडितो ने कहा की -‘ कोई न्योता पाने वाला न्योतने को तो नहीं रह गया है ? स्मरण  किया जाये । उसके आने पर दीपक जल जायेगा । ’ रानी ने सोच-विचार कर बताया की -‘ ननद न्योतने से रह गई है । ’ पंडितो ने कहा की -‘ उसे फ़ौरन बुलाया जाये । ’

राजा ने अपना दुरतगामी रथ भेजकर अपने मुह बोली बहिन को बुलवाया । उसके आतें ही कलश का माणिक दीपक प्रज्वलित हो गया । बड़ी धूमधाम से पूजा की गई । अंत मैं सुहागिनों को भोजन कराकर  विदा किया गया । उसी समय राजा ने राज्य मैं आज्ञा जारी की -‘ मेरी प्रजा के लोग दशामाता का व्रत किया करे । ’

भगवती माता ने जिस प्रकार राजा नल के दिन फेरे ,उसी प्रकार सब के दिन फेरे ।

मिलता जुलता: चौथ व्रत में ये कहानी जरूर पढ़ें


दशा माता की कहानी 3

एक सास बहु थी । एक दिन सुबह-सुबह सास ने बहु से कहा की -‘ जाओ आग लाकर भोजन बनाओ । बड़ी भूख लगी है ।’ बहु हाथ में कंडी लेकर आग लेने गांव मैं गई । उस दिन गांव भर मैं दशामाता की पूजा थी । इसलिए किसी के यहाँ से भी उसे आग नहीं मिली । वह खाली हाथ लौटकर आयी ।

सायं होने पर वह पड़ोसन के पास जाकर बोली की -‘ मेरी सास तो दशामाता का डोरा नहीं लेती । परन्तु अब की बार मैं डोरा लेना चाहती हु । मुझे पूजन की विधि भी बता देना ।’ दोबारा जब डोरा लेने का समय आया तो बहु ने सास को बिना बताये दशामाता का डोरा ले लिया । नो दिन वह किसी न किसी बहाने पड़ोसन के घर जाकर कथा सुनते रही । दसवे दिन उसे चिंता सताने लगी की अब मैं पूजा कैसे करुँगी । वह मन ही मन दशामाता का ध्यान धरकर सोचने लगी की आज सास कहि बाहर चली जाये तो मैं शांति पूर्वक पूजा कर लू ।

दशामाता की कृपा से सास बहु से बोली -‘ मैं आज खेतो मैं जा रही हु । यदि मुझे आने मैं देर हो जाये तो तुम मेरे लिए खेत पर खाना ले आना ।’ बहु के मन की मुराद पूरी हो गयी । वह तो यही चाहती ही थी । उसने सास से कहा की -‘ आप निश्चिन्त होकर जाइये । घर का सारा काम मैं निपटा लुंगी ।’

सास के जाते ही बहु ने स्नान कर दशामाता की पूजा की । इसके बाद वह पूजा की सामग्री मिटटी के गोले मैं रखकर उसे सिलाने के लिए ले जाने लगी थी की उसकी सास खेतो से वापस आ गयी । सास को देखकर बहु ने जल्दी से उस गोले को मटकी मैं छिप्पा दिया । उसने सोचा की उचित समय पर गोले को दही से निकाल कर विसर्जित कर आउंगी ।

सास ने आतें ही बहु से कहा -‘ तुम मुझे खाना देने क्यों नहीं आयी ? अब तक क्या कर रही थी ? ‘ बहु ने कहा की – ‘ आज मैंने सर के बाल धोये थे । उनके सूखने मैं देर लग गयी । इस कारण भोजन बनाने मैं देर हो गयी । मैं थाली लगाती हु आप घुस त्याग कर भोजन कीजिये ।’

सास का गुस्सा कुछ ठंडा हुआ । वह पैर धोकर चौके पर मैं बैठी ही थी की उसका बेटा भी आ गया ।वह भी माता के साथ भोजन करने बैठ गया । सास भोजन करके उठना ही चाहती थी की उसका बेटा बोला -‘ मुझे तो दही चाहिए ।’ सास ने बहु से दही देने के लिए कहा । बहु बोली -‘ मैं तो रसोई मैं हु । आप ही इन्हें दही दे दे ।’

सास हाथ धोकर दही लेने गयी । परन्तु जैसे ही उसने छाछ की मटकी उठाई तो उसमे कुछ खड़खड़ाने की आवाज आई । उसने हाथ डाल कर देखा तो उसे एक बड़ा सोने का गोल मिला । सास ने आश्चर्य से बहु से पूछा -‘इस छाछ की मटकी मैं यह सोने का गोल कहा से आया ?’ इसे तुम कहा से चुरा कर लायी हो ? यहाँ क्यों छिपाकर रखा है ? मैं समझ गयी की इसी वजह से तुम छाछ देने नहीं उठी । इसका भेद बताओ ।’

बहु बोली -‘मुझे कुछ नहीं पता । मेरी दशामाता जाने । मैंने आपको बताये बिना दशामाता का डोरा लिया था  और उनकी पूजा की थी । आप के आ जाने के कारण मैं डोरे को विसर्जित करने नहीं जा सकी । आपके डर से मैंने इसे छाछ की मटकी मैं छिप्पा दिया था । दशामाता ने इसे सोने का बना दिया । मैं इसमें क्या कर सकती हु ? ‘

सास ने बहु को गले लगा लिया और कहा -‘ अब मैं भी तुम्हारे साथ डोरा लुंगी और विधिवत व्रत और पूजा किया करूँगी ।’

है दशामाता ! जैसे तुमने इनको दिया , वैसे ही सब भक्तो पर कृपा करना ।


दशा माता की कहानी 4

एक साहूकार था । उसके परिवार में पांच पुत्र , उनकी बहुए तथा एक पुत्री थी । पुत्री का विवाह हो चूका था । परन्तु उसका गोना नहीं हुआ था । इस कारण वह भी अपने माता-पिता के घर मैं रह रही थी ।

एक दिन साहूकार की पत्नी दशामाता का डोरा ले रही थी । उसकी बहुओ ने भी डोरे लिए । बहुओ ने अपने सास से पूछा की -‘ क्या ननद के लिए भी डोरा लेना है ?।’ सास ने कहा -‘हा ‘। इस पर बहुओ ने कहा की -‘ उनकी तो विदाई होने वाली है । यदि व्रत से पहले ही विदा हो गयी तब क्या होगा ?।’ सास ने उतर दिया -‘मैं व्रत का सारा सामान साथ मैं रख दूंगी । वह अपने ससुराल मैं पूजा कर लेगी ।’

ऐसा ही हुआ उसके ससुराल से लेने उसका पति आ गया । माँ ने बेटी को विधिपूर्वक विदा किया और उसकी  पालकी मैं पूजा का सब सामान रखवा दिया । लड़की जब अपने ससुराल पहुची तो उसे घर के आँगन मैं गलीचा बिछाकर बैठाया गया । आस-पड़ोस की महिलाये नई बहु को देखने आने लगी । सब उसकी सुंदरता  और गहने कपड़ो की तारीफ करने लगे । किसी की निगाह उसके गले मैं बंधे डोरे पर पड़ गई । वह बोली -‘ बहु की माँ बड़ी टोटके वाली है ।’ सबकी निगाहे उसकी बात सुनकर उसके गले मैं पड़े डोरे पर पड़ी । सभी स्त्रियां डोरे के बारे मैं अपनी-अपनी राय प्रकट करने लगी । शाम को सास , ननद , देवरानी ,जेठानी , घर की सभी स्त्रियां भी उसी डोरे की चर्चा करने लगी । सब डोरे की निंदा कर रही थी ।

सुबह से शाम तक डोरे के बारे सुनते-सुनते बहु का दिमाग ख़राब हो गया । उसने डोरे को गले से उतार कर जलती हुई आग मैं डाल दिया । डोरे के जलते ही सारे घर मैं आग लग गयी । घर मैं रखा सब धन-धान जल गया । सब आदमी अपने प्राण बचाकर घर से बाहर भागे । अब घर मैं केवल नई बहु और उसका पति रह गया । बाकि सब भाग गए थे ।

घर का सारा सामान जल गया था । घर में अब न खाने को अन्न था और न ही पहनने के लिए वस्त्र बचे थे । इसलिए दोनों पति-पत्नी गांव छोड़कर रोजगार खोजने चल दिए । चलते-चलते वे उसी गांव मैं पहुच गए जहा की वह लड़की थी । लड़की ने अपने पति से कहा -‘ तुम यहाँ भाड़ झोको और मैं भी कोई काम ढूंढती हु ।’ पत्नी का कहना मानकर वह भाड़ झोकने लगा और वह स्वयं एक कुवे पर जाकर बैठ गयी ।

उस कुवे पर सारे गांव की स्त्रियां पानी भरने आया करती थी । उस लड़की की भाभियां उस कुवे पर पानी भरने आई परंतु उन्होंने अपनी ननद को नहीं पहचाना । वे उससे बोली-‘ तुम तो किसी भले घर की लड़की मालूम होती हो । कुछ काम करना चाहती हो तो बोलो ।’ लड़की बोली -‘ काम तो करुँगी परन्तु कोई नीच काम नहीं करूँगी ।’ बड़ी भाभी बोली -‘ हमारी ननद ससुराल चली गयी है । तुम हमारे बच्चो की देखभाल करती रहना और हमारे घर से सीधा लेकर अपना भोजन बना लिया करना ।’ लड़की इस काम के लिए राजी हो गई ।

लड़की की भाभियां अपने घर आई और सास से बोली -‘ कुवे पर एक अनाथ लड़की बैठी है । वह हमारे घर रहने और बच्चो की देखभाल करने को राजी है । आप कहो तो हम उसे रख ले ?’ सास ने कहा -‘ख़ुशी से रख लो , परंतु आपस मैं कलह मत करना ।’ सब बहुए राजी हो गई । वे वापस कुवे पर आई और उसे घर ले आई । वह अपने भतीजे और भतीजियो की देखभाल करने लगी और अपना जीवन निर्वाह करने लगी ।

एक दिन दशामाता का डोरा लेने का अवसर आया । सास के कहने पर सब बहुओ ने डोरा लिया । बहुओ ने सास से पूछा की -‘ क्या इस लड़की के लिए भी डोरा लेना है ‘ सास ने कहा -‘हा ।’ बहुओ ने कहा-‘ इसी प्रकार आपने ननद जी के लिए भी डोरा ले लिया था , परन्तु पूजा से पहले ही उनकी विदाई हो गई । अब इस लड़की को डोरा दिलाना चाहती हो । यदि यह पूजा से पहले चली गई तो क्या होगा ? ।’

सास बोली -‘ तुम्हारी ननद ने अपने घर जाकर पूजा की होगी । यह लड़की पूजा होने तक इसी घर में रहेगी तो अपने आप पूजा में शामिल हो जाएगी और यदि कही चली गयी तो वह पर ही पूजा कर लेगी ।’ सर्वसमति से लड़की ने भी दशामाता को डोरा ले लिया । नो दिन तक वह दशामाता की कहानी तथा व्रत पूजन में शामिल होती रही । दसवे दिन लड़की की माता व् बहुओ ने सर से स्नान किया और घर में चोका लगाया तथा पूजन की तयारी करने लगी ।

लड़की बहुओ से बोली -‘ यदि कोई पुराना कपडा मिल जाये तो में भी स्नान कर लु । ‘ बहुओ ने अपनी सास से पूछ कर अपनी ननद की साड़ी उस लड़की को दे दी । अपनी पुरानी साड़ी लेकर वह स्नान करने गयी । उसने सर से स्नान करके साड़ी पहनी और घर आ गयी । घर पर पूजा आरम्भ हो गई । वह जैसे ही पूजा के पास आकर बैठी तो बहुओ ने कहा-‘ यह तो हमारी ननद जैसी लग रही है ।’

इस पर सास ने नाराज होकर कहा -‘ तुम्हारे मन में जो आता है बोलती रहती हो । पूजा के समय भी चुपचाप नहीं बैठा जाता है । चुप रहो , मुझे कथा कह लेने दो । तुम्हारी बातो से कथा में विघ्न पड़ता है  ।’ बहुए चुप हो गई । घर की सब स्त्रियों ने पारण किया । लड़की ने भी पारण किया । इसके बाद स्त्रियां एक-दूसरे का सर गुथने लगी । एक ने लड़की का सर गुथना सुरु किया । वह बोली की -‘ जैसी गूँथ सिर मैं है वैसी गूँथ हमारी ननद के सिर मैं थी । ‘ सास नाराज होकर बोली -‘ तुम मेरी बेटी की तुलना इससे क्यों कर रही हो ?’

सास ने बहु को तो डाट दिया परन्तु उसकी बात मन मैं घर कर गयी । उसने लड़की से कहा -‘आज रात मेरे पास सोना ।’ रात तो जब बहुए सो गयी तो उसने लड़की से पूछा -‘ तुम्हारे पीहर मैं कभी कोई था ?’ उसने जवाब दिया -‘ मेरे पांच भाई और भाभियां थी । तुम जैसे माता-पिता थे। ‘

उसने फिर पूछा -‘क्या हुआ ?’ लड़की बोली -‘ पीहर मैं मैंने दशामाता का डोरा लिया था । उसके पूजन से पहले ही ससुराल के लिए विदा हो गयी । ससुराल मैं पहुच कर मेरे गले मैं पड़े डोरे को देखकर वह की स्त्रियां हंसी उड़ाने लगी । तब मैंने उस डोरे को आग मैं दाल दिया । उस डोरे के साथ सारा घर जलकर भस्म हो गया । सब लोग भाग गए । हम दोनों भाग कर इस गांव मैं आ गए ।’

उसकी माँ ने पूछा की -‘ तुम्हारा पति कहा है ?’ लड़की ने कहा -‘वह भड़भूजे के यहाँ  भाड़ झोंकता है । दशामाता के प्रकोप से हमारी ये हालात हो गई ।’ वह समझ गए की यह लड़की कोई और नहीं उसकी बेटी ही है ।तब उसने अपने पाचो बेटो को बुला कर कहा की यह तुम्हारी छोटी बहिन ही है । सवेरा होते ही माता के कहने पर पाचो भाई भड़भूजे के यहाँ से अपने बहनोई को लेकर आये ।

उन्होंने उसको स्नान कराया और उत्तम वस्त्र पहनने को दिए । कपडे पहन कर वह सुन्दर साहूकार दिखाई देने लगा । वह कुछ दिन ससुराल रहकर अपने घर चला गया । घर पहुचकर उसने देखा की सब लोग पहले की तरह सुखप्रवक रह रहे है । इसके बाद वह अपने ससुराल आया और अपनी पत्नी को विदा कर घर ले गया ।

वह अपनी दशा पर विचार करती हुई जा रही थी । मार्ग मैं एक नदी पड़ी उस नदी मैं स्नान करके अप्सराये दशामाता का डोरा ले रही थी । उनके पास एक डोरा बच गया था । वह अप्सराये बोली-‘ यदि इस डोली मैं कोई उच्च वर्ग की स्त्री हो तो उसे ये डोरा दे दें ।’ उन्होंने डोली के पास जाकर पता किया और वह डोरा उस लड़की को दें दिया ।

जब लड़की अपनी ससुराल पहुची तो सास थाल सजाये  ननद कलश लिए और देवरानी-जेठानी अन्य मांगलिक वस्तुवे लिए उसका स्वागत करने के लिए खड़ी थी । नेग दस्तूर हो जाने के बाद लड़की को आसन पर बैठाया गया । आसन पर बैठने के बाद लड़की ने कहा -‘ आप लोगो ने पहली बार दशामाता के डोरे के लिए अपशब्द कहे थे जिसका का फल ये हुआ की घर के सब लोग बिछुड़ गए तथा घर का धन-धान्य जलकर स्वाह हो गया । बड़ी मुसीबते उठाने के बाद अब अच्छे दिन आये है । आप मैं से कोई भी अब मेरे दशामाता के डोरे की निंदा करने की भूल न करे । जब मेरा व्रत हो तब सब श्रद्धापूर्वक पूजा करे । ‘

सब ने ख़ुशी-ख़ुशी उसकी बात मान ली । नो दिन तक व्रत चलता रहा । दसवे दिन विधिपूर्वक डोरे की पूजा की गई । सात सुहागिनों को न्योता दिया गया ।उनका शंगार करके आँचल भरा गया । इस प्रकार दशामाता को पूजन समाप्त हुआ ।

जिस प्रकार दशामाता ने उस लड़की के दिन फेरे , वैसे ही वह सब पर दया करे ।


दशा माता की कहानी 5

एक राजा की दो रानिया थी । रानी की प्यारी रानी को लक्ष्मी कहा जाता था और दूसरी रानी को रानी होने पर भी कुलक्ष्मी कहा जाता था ।

एक दिन लक्ष्मी रानी क्रोध होकर लकड़ी का पटा ले मलिन कपड़े पहनकर कोप भवन मैं जा लेटी । राजा ने लक्ष्मी से पूछा-‘तुम कोप भवन मैं क्यों पड़ी हो ? तुम क्या चाहती हो ?’ रानी बोली -‘ कुलक्ष्मी को देश निकाला दिया जाये ।’ कुलक्ष्मी रानी थी इसलिए उसे निकाला देने से राजा की बदनामी होने का डर था । इसलिए रानी को पीहर छोड़ कर आने की बात सोची गई ।

राजा ने पटरानी को एक रथ मैं सवार कराया और स्वयं घोड़े पर चढ़ कर रथ के साथ चलने लगा । एक बीहड़ जंगल मैं पहुच कर राजा ने रथ को रुकवाया । पालकी ढोने वालो को वहा से हट जाने को कहा गया । राजा रानी को उस जंगल मैं छोड़कर घोंड़े पर सवार होकर अपने महल मैं आ गया ।

कुलक्ष्मी को बाट जोहते सारी रात बीत गई । रानी को प्यास लगी । वह रथ से उतर कर पानी के तलाश  मैं चल दी । रानी ने आस-पास पानी खोजा परंतु उसे कोई जलासय नहीं दिखाई दिया । रानी ने एक सारस के जोड़े को एक तरफ जाते देखा । रानी कुलक्ष्मी सारस के जोड़े के पीछे चल दी । चलते-चलते वह एक नदी के किनारे पहुच गयी । रानी ने सोच आदि से निर्वत होकर उसी नदी मैं स्नान किया और जल पीकर अपनी प्यास भुजाई।

उस समय कुछ अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थी । स्नान करने के बाद उन स्त्रियों ने दशामाता का डोरा लिया । उनके पास एक डोरा बच गया । उन्होंने रानी से डोरा लेने का अनुरोध किया । रानी डोरा लेकर अपने रथ मैं आकर बैठ गई ।

दशामाता ने रानी की परीक्षा लेने के लिए एक बुढ़िया का वेश धारण कर उसके रथ के पास आई । वह रानी से बोली की -‘ बेटी ! यहाँ बैठी क्या कर रही हो ?’ रानी ने बुढ़िया से कहा -‘ पहले तुम बताओ तुम कोन हो ?’ बुढ़िया ने उतर दिया -‘ मैं तुम्हारी मौसी हु ।’ तब रानी उसके गले लगकर रोने लगी । उसने अपनी विपदा भरी सारी कहानी बुढ़िया को बता दी । अंत मैं रानी ने बुढ़िया से कहा -‘ अब मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है । मेरी रक्षा करो ।’

दशामाता की कृपा से उसी जगह माया का शहर बस गया । रानी के भाई भाभी आदि सारा मायका वहा प्रकट हो गया । रानी ने अपने पीहर के साथ मिलकर नो दिन दशामाता की कथा -कहानिया सुनाई । दसवे दिन डोरे की पूजा होनी थी । उस दिन सवेरे उठ कर दशामाता ने रानी से कहा -‘ नदी मैं स्नान कर आओ । वहा तुमको स्वर्ण कलश मिलेगा । तुम उसे ले लेना और जो डोली तुम्हे लेने आये उसमे बैठ जाना । किसी से ये मत पूछना की यह डोली किसकी है ?’

रानी ने नदी मैं स्नान किया । वह स्नान करके बाहर निकल आई तो उसे दो स्वर्ण के कलश नदी के किनारे रखे मिले । उन्ही के पास रेशमी वस्त्र रखे थे । उन वस्त्रो को रानी ने पहन लिया । वह चलने को तैयार हुई तो उसे डोली आती दिखाई दी । वह डोली मैं बैठ गई और अपने घर पहुच गई ।

घर पहुच कर उसने माया के परिवार की सब महिलाये सहित दशामाता के डोरे की पूजा की । सुहागिनों को भोजन कराया । इसके बाद उसने पारण किया । अब रानी अपने पीहर मैं आनद पूर्वक सबके साथ मिलकर रहने लगी ।

इधर कुछ समय बाद राजा को रानी कुलक्ष्मी का ध्यान आया । राजा ने विचार किया की जिस दिन से मैं रानी को जंगल मैं छोड़कर आया हु । तब से उनका कोई समाचार नहीं मिला । चलकर देखना चाहिए  की रानी कुलक्ष्मी का क्या हाल है ? मंत्रियो ने राजा को समझाया की अब रानी से मिलना आपके लिए ठीक नहीं होगा । परंतु राजा ने मंत्रियो की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया ।

वह घोड़े पर सवार होकर उसी स्थान पर पहुचा जहा पर रानी को छोड़ आया था । राजा को ये देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ की यहाँ तो सघन वन था परंतु अब यहाँ रमणीक बस्ती बसी हुई है । राजा ने लोगो से पूछा -‘ यह कोन-सी नगरी है ? ‘ लोगो ने उसे बताया की -‘ यह कुलक्ष्मी का नगर है ।’ अब तो राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । वह बार-बार सोच रहा था की क्या यह नगर मेरी पटरानी कुलक्ष्मी द्वारा बसाया नगर है ?

राजा ने कुलक्ष्मी के महल के पास जाकर सुचना भिजवाई की उनसे अमुक देश के राजा मिलना चाहते है । रानी ने राजा को पहचान कर मिलने से मना कर दिया परंतु मौसी ने उसे समझाया की -‘ हिन्दुओ मैं तो पति परमेस्वर माना जाता है । तुम्हे यही उचित है की तुम यथाशक्ति उनका आदर सत्कार करो ।’

मौसी के कहने पर रानी कुलक्ष्मी ने राजा को महल मैं बुलवाया । दोपहर को राजा को भोजन पर बुलाया गया । राजा के साथ नाइ भी था । रानी राजा और नाइ को भोजन कराने लगी । पहली बार रानी ने नाइ की पतल पर भोजन परोसा तो नाइ ने रानी के पैर पर एक छिटा लगाया । रानी इस भेद को नहीं समझ सकी की नाइ ने उसके पेर पर रायते का छिटा क्यों मारा । रानी दूसरी बार पोशाक बदल कर फिर आई ।

राजा मन मैं सोचने लगा की यहाँ तो बहुत सी रानिया है । सबकी सकल एक जैसी है । मैं अपनी रानी को कैसे पहचानुगा ? डेरे आकर राजा ने नाइ से कहा -‘ यहाँ तो कई रानिया है । मैं अपनी रानी को कैसे पहचानू ?’ नाइ बड़ा चतुर था वह बोला -‘ रानी तो एक ही है परंतु  वह पोशाक बदल-बदल कर हमारे सामने आ रही है ।’ राजा ने नाइ से पूछा -‘ तुझे कैसे पता चला की रानी एक ही है ?’ नाइ बोला की – ‘ मैंने उनके पर रायते का छिटा मारा था । वह तीन बार कपडे बदल कर हमारे सामने आई परन्तु वह छिटा उनके पेर पर तीनो बार लगा था ।’

अगले दिन रानी ने राजा को अपने महल मैं बुलवाया । राजा को अपनी मेज पर बिठाकर खाने के लिए पैन का बीड़ा दिया । पान खाकर राजा पलंग पर लेट गया और रानी उसके पेर दबाने लगी ।राजा ने रानी से अपने किये के लिए शमा मांगी और रानी को अपनी राजधानी मैं चलने को कहा । रानी ने कहा -‘ आप मुझे किस मुह से चलने को कह रहे हो ? आप तो मुझे जंगल मैं अकेला छोड़ कर चले गए थे । आप तो दूसरी रानी के के कहने मैं आकर मेरा परित्याग कर चुके थे । यह तो मेरी मौसी का किया हुआ है । उसी के कारन यह सब वैभव मुझे प्राप्त हुआ है वरना आप तो मेरा सर्वनाश कर चुके थे ।’

राजा ने रानी को बहुत समझाया । तब रानी बोली की -‘ मैं केवल एक शर्त पर आपके साथ चल सकती हु । आप मेरी मौसी से वरदान मांगेंगे की यह नगरी आपकी राजधानी के पास पहुचा दे । जिससे जब मेरा मन चाहे आपके पास रहू और जब जी चाहे तो मौसी के दिए महल मैं चली जाऊ । मेरी मौसी बड़ी दयालु है । संभव है की वह हमारी बात मान जाये ।’

राजा ने दशामाता मौसी से प्राथना की । मौसी ने राजा की बात मानकर दोनों शहरो को पास-पास स्थापित कर दिया । मानो एक दूसरे के ही भाग हो । राजा ने दशामाता की कृपा का फल जानकर शहर मैं ढिंडोरा पिटवाया की उसकी प्रजा दशामाता की पूजा किया करे ।

भगवती दशामाता ने जिस प्रकार कुलक्ष्मी पर दया करी, वैसे ही दया सब जनो पर करे ।

Leave a Comment