6 गणेश की कहानियां | ganesh ji ki kahani

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गणेश के वाहन मूषक की कहानी (ganesha stories in hindi)

गणेश जी ने अपना वाहन मूषक क्यों चुना इस विषय में कई कथाएं मिलती हैं। एक कथा के अनुसार गजमुखासुर नामक एक असुर से गजानन का युद्ध हुआ। गजमुखासुर को यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी अस्त्र से नहीं मर सकता। गणेश जी ने इसे मारने के लिए अपने एक दांत को तोड़ा और गजमुखासुर पर वार किया। गजमुखासुर इससे घबरा गया और मूषक बनकर भागने लगा। गणेश जी ने मूषक बने गजमुखासुर को अपने पाश में बांध लिया। गजमुखासुर गणेश जी से क्षमा मांगने लगा। गणेश जी ने गजमुखासुर को अपना वाहन बनाकर जीवनदान दे दिया।

एक अन्य कथा का जिक्र गणेश पुराण में मिलता है। जिसके अनुसार द्वापर युग में एक बहुत ही बलवान मूषक महर्षि पराशर के आश्रम में आकर महर्षि को परेशान करने लगा। उत्पाती मूषक ने महर्षि के आश्रम के मिट्टी के बर्तन तोड़ दिये। आश्रम में रखे अनाज को नष्ट कर दिया। ऋषियों के वस्त्र और ग्रंथों को कुतर डाला।

महर्षि पराशर मूषक की इस करतूत से दुःखी होकर गणेश जी की शरण में गये। गणेश जी महर्षि की भक्ति से प्रसन्न हुए और उत्पाती मूषक को पकड़ने के लिए अपना पाश फेंका। पाश मूषक का पीछा करता हुआ पाताल लोक पहुंच गया और उसे बांधकर गणेश जी के सामने ले आया।

गणेश जी को सामने देखकर मूषक उनकी स्तुति करने लगा। गणेश जी ने कहा तुमने महर्षि पराशर को बहुत परेशान किया है लेकिन अब तुम मेरी शरण में हो इसलिए जो चाहो वरदान मांग लो। गणेश जी के ऐसे वचन सुनते ही मूषक का अभिमान जाग उठा। उसने कहा कि मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, अगर आपको मुझसे कुछ चाहिए तो मांग लीजिए। गणेश जी मुस्कुराए और मूषक से कहा कि तुम मेरा वाहन बन जाओ।

अपने अभिमान के कारण मूषक गणेश जी का वाहन बन गया। लेकिन जैसे ही गणेश जी मूषक पर चढ़े गणेश जी के भार से वह दबने लगा। मूषक ने गणेश जी से कहा कि प्रभु मैं आपके वजन से दबा जा रहा हूं। अपने वाहन की विनती सुनकर गणेश जी ने अपना भार कम कर लिया। इसके बाद से मूषक गणेश जी का वाहन बनकर उनकी सेवा में लगा हुआ है।

गणेश पुराण में यह भी वर्णन किया गया है कि हर युग में गणेश जी का वाहन बदलता रहता है। सतयुग में गणेश जी का वाहन सिंह है। त्रेता युग में गणेश जी का वाहन मयूर है और वर्तमान युग यानी कलियुग में उनका वाहन घोड़ा है।

कहानी का स्त्रोत – www.amarujala.com


एकदंत गणेश कथा (ganesh ji ki kahani)

कथा 1

परशुराम जी अपने परशे से तोडा गणेश जी का एक दांत : एक बार विष्णु के अवतार भगवान परशुराम जी शिवजी से मिलने कैलाश पर्वत पर आये। शिव पुत्र गणेश जी ने उन्हें रोक दिया और मिलने की अनुमति नही दी। इस बात पर परशुराम जी क्रोधित हो उठे और उन्होंने श्री गणेश को युद्ध के लिए चुनौती दी दी। श्री गणेश भी पीछे हटने वालो में से नही थे । दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ।

इसी युद्ध में परशुरामजी के फरसे से उनका एक दांत टूट गया।

कथा 2

कार्तिकेय ने ही तोडा उनका दांत : भविष्य पुराण में एक कथा आती है जिसमे कार्तिकेय ने श्री गणेश का दन्त तोडा । हम सभी जानते है की गणेशजी अपने बाल अवस्था में अति नटखट हुआ करते थे । एक बार उनकी शरारते बढती गयी और उन्होंने अपने ज्येष्ठ भाई कार्तिकेय को परेशान करना शुरू कर दिया । इन सब हरकतों से परेशान होकर एक बार कार्तिकेयजी ने उनपर हमला कर दिया और भगवान श्री गणेश को अपना एक दांत गंवाना पड़ा । कुछ फोटो में गणेशजी के हाथ में यही दांत दिखाई देता है।

कथा 3

वेदव्यास जी की महाभारत लिखने के लिए खुद ने तोडा अपना दांत : एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि वेदव्यास जी को महाभारत लिखने के लिए बुद्धिमान किसी लेखक की जरुरत थी। उन्होंने इस कार्य के लिए भगवान श्री गणेश को चुना । श्री गणेश इस कार्य के लिए मान तो गये पर उन्होंने एक शर्त अपनी भी रखी की वेदव्यास जी महाभारत लिखाते समय बोलना बंद नही करेंगे । तब श्री गणेश जी ने अपने एक दांत को तोड़कर उसकी कलम बना ली वेद व्यास जी के वचनों पर महाभारत लिखी।

कथा 4

एक असुर का वध करने के लिए गणेशजी ने लिया अपने दांत का सहारा गजमुखासुर नामक एक महाबलशाली असुर हुआ जिसने अपनी घोर तपस्या से यह वरदान प्राप्त कर दिया की उसे कोई अस्त्र शास्त्र मार नही सकता । यह वरदान पाकर उसने तीनो लोको में अपना सिक्का जमा लिया । सब उससे भय खाने लगे। तब उसका वध करने के लिए सभी ने भगवान श्रीगणेश को मनाया । गजानंद ने गजमुखासुर को युद्ध के ललकारा और अपना एक दांत तोड़कर हाथ में पकड़ लिया ।गजमुखासुर को अपनी मृत्यु नजर आने लगी। वह मूषक रूप धारण करके युद्ध से भागने लगा । गणेशजी ने उसे पकड़ लिया और अपना वाहन बना लिया।

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अवतारों की कथाएँ (बाल गणेश की कहानियां)

एकदंत

महर्षि च्यवन ने अपने तपोबल से मद की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया।

मद ने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से दीक्षा ली। शुक्राचार्य ने उसे हर तरह की विद्या में निपुण बनाया। शिक्षा होने पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया। सारे देवता उससे प्रताडित रहने लगे। मद इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसने भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। सारे देवताओं ने मिलकर गणपति की आराधना की।

तब भगवान गणेश एकदंत रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं थीं, एक दांत था, पेट बड़ा था और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु और एक खिला हुआ कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।

महोदर

जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को संस्कार देकर देवताओं के खिलाफ खड़ा कर दिया। मोहासुर से मुक्ति के लिए देवताओं ने गणेश की उपासना की। तब गणेश ने महोदर अवतार लिया। महोदर का उदर यानी पेट बहुत बड़ा था। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया।

लंबोदर

समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर काम मोहित हो गए। उनका शुक्र स्खलित हुआ, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई।

इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए। वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।

विकट

भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया।

तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।

विघ्नराज

एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी मुलाकात शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा।

मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया। शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए और सारे देवताओं के बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं ने गणेश की उपासना की। गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।

धूम्रवर्ण

एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। उन्हें एक बार छींक आ गई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। वो शुक्राचार्य के समीप गया और उन्हें गुरु बना लिया।

वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिए। उसने भी बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर का पराभाव किया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की। 

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क्यों चढ़ाई जाती है दूर्वा (ganesh ki kahaniyan)

हम सभी यह जानते हैं कि श्री गणेश को दूर्वा बहुत प्रिय है। दूर्वा को दूब भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की घास होती है, जो सिर्फ गणेश पूजन में ही उपयोग में लाई जाती है। आखिर श्री गणेश को क्यों इतनी प्रिय है दूर्वा? इसके पीछे क्या कहानी है? क्यों इसकी 21 गांठें ही श्री गणेश को चढ़ाई जाती है?

पौराणिक कथा

एक पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीनकाल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था, उसके कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। अनलासुर एक ऐसा दैत्य था, जो मुनि-ऋषियों और साधारण मनुष्यों को जिंदा निगल जाता था। इस दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त होकर इंद्र सहित सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि भगवान महादेव से प्रार्थना करने जा पहुंचे और सभी ने महादेव से यह प्रार्थना की कि वे अनलासुर के आतंक का खात्मा करें।

तब महादेव ने समस्त देवी-देवताओं तथा ऋषि-मनियों की प्रार्थना सुनकर, उनसे कहा कि दैत्य अनलासुर का नाश केवल श्री गणेश ही कर सकते हैं। फिर सबकी प्रार्थना पर श्री गणेश ने अनलासुर को निगल लिया, तब उनके पेट में बहुत जलन होने लगी।

इस परेशानी से निपटने के लिए कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी जब गणेशजी के पेट की जलन शांत नहीं हुई, तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर श्री गणेश को खाने को दी। यह दूर्वा श्री गणेशजी ने ग्रहण की, तब कहीं जाकर उनके पेट की जलन शांत हुई। ऐसा माना जाता है कि श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा तभी से आरंभ हुई।


क्यों नहीं चढ़ाते तुलसी (बाल गणेश की कहानी)

धर्म ग्रंथो के अनुसार भगवान गणेश को भगवान श्री कृष्ण का अवतार बताया गया है और भगवान श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु के अवतार है। लेकिन जो तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है, इतनी प्रिय की भगवान विष्णु के ही एक रूप शालिग्राम का विवाह तक तुलसी से होता है वही तुलसी भगवान गणेश को अप्रिय है, इतनी अप्रिय की भगवान गणेश के पूजन में इसका प्रयोग वर्जित है। पर ऐसा क्यों है

इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है –

एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मात्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर प्रस्थान किया। देवी तुलसी सभी तीर्थस्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पंहुची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो तपस्या में विलीन थे। शास्त्रों के अनुसार तपस्या में विलीन गणेश जी रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।

तुलसी श्री गणेश के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में गणेश से विवाह करने की इच्छा जाग्रत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया। 

श्री गणेश द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने श्री गणेश के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए

जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। तब से ही भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।


 

प्रथम पूज्य बनने की कहानी ( ganesh ji ki kahani)

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि, कौन बड़ा ?

निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास। शिव-पार्वती ने कहाः जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जाएगा।

कार्तिकेय तुरन्त अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा तो झट से उन्हें उपाय मिल गया।

जो ध्यान करते हैं, शांत बैठते हैं उन्हें अंतर्यामी परमात्मा सत्प्रेरणा देते हैं। अतः किसी कठिनाई के समय घबराना नहीं चाहिए बल्कि भगवान का ध्यान करके थोड़ी देर शांत बैठो तो आपको जल्द ही उस समस्या का समाधान मिल जायेगा।

फिर गणपति जी आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़ कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे।

एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया…. दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया…. इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणा कर ली।

शिव-पार्वती ने पूछाः “वत्स! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की ?” गणपति जीः “सर्वतीर्थमयी माता… सर्वदेवमय पिता… सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर ली हैं।”

तब से गणपति जी प्रथम पूज्य हो गये।

कहानी का स्त्रोत – blog.dreamofdesign.in


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