2 प्रसिद्ध हरितालिका तीज व्रत कथाएं | haritalika teej vrat katha

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एक नजर में हरितालिका तीज

हरतालिका व्रत को हरतालिका तीज या तीजा भी कहते हैं। यह व्रत भाद्रपद  मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियाँ गौरी-शङ्कर की पूजा करती हैं।

विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चन्द्र देखने के उपरांत व्रत सम्पन्न कर दिया जाता है, वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत सम्पन्न जाता है। इस व्रत से जुड़ी एक मान्यता यह है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी के समान ही सुखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती हैं।

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पहली हरितालिका तीज व्रत कथा (haritalika teej vrat katha)

पहली कथा के अऩुसार माता पार्वती ने भगवान शिव के लिए कठोर तपस्या की। दरअसल मां पार्वती का बचपन से ही माता पार्वती का भगवान शिव को लेकर अटूट प्रेम था। माता पार्वती अपने कई जन्मों से भगवान शिव को पति के रूप में पाना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने हिमालय पर्वत के गंगा तट पर बचपन से ही कठोर तपस्या शुरू की।

माता पार्वती ने इस तप में अन्न और जल का त्याग कर दिया था। खाने में वे मात्र सूखे पत्ते चबाया करती थीं। माता पार्वती की ऐसी हालत को देखकर उनके माता-पिता बहुत दुखी हो गए थे। एक दिन देवऋषि नारद भगवान विष्णु की तरफ से पार्वती जी के विवाह के लिए प्रस्ताव लेकर उनके पिता के पास गए। माता पार्वती के माता और पिता को उनके इस प्रस्ताव से बहुत खुशी हुई।

इसके बाद उन्होंने इस प्रस्ताव के बारे में मां पार्वती को सुनाया। माता पार्वती इस समाचार को पाकर बहुत दुखी हुईं, क्योंकि वो अपने मन में भगवान शिव को अपना पति मान चुकी थीं। माता पार्वती ने अपनी सखी को अपनी समस्या बताई। माता पार्वती ने यह शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया।

पार्वती जी ने अपनी एक सखी से कहा कि वह सिर्फ भोलेनाथ को ही पति के रूप में स्वीकार करेंगी। सखी की सलाह पर पार्वती जी ने घने वन में एक गुफा में भगवान शिव की अराधना की। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में पार्वती जी ने मिट्टी से शिवलिंग बनकर विधिवत पूजा की और रातभर जागरण किया। पार्वती जी के तप से खुश होकर भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था। 

कहा जाता है कि जिस कठोर कपस्या से माता पार्वती ने भगवान शिव को पाया, उसी तरह इस व्रत को करने वाली सभी महिलाओं के सुहाग की उम्र लंबी हो और उनका वैवाहिक जीवन खुशहाल रहे। माना जाता है की जो इस व्रत को पूरे विधि-विधान और श्रद्धापूर्वक व्रत करती है, उन्हें इच्छानुसार वर की प्राप्ति होती है। 


दूसरी हरितालिका तीज व्रत कथा (haritalika teej vrat katha)

दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार, पार्वती जी की सखियां उनका अपहरण करके जंगल में ले गई थीं। ताकि पार्वती जी के पिता उनका विवाह इच्छा के विरुद्ध भगवान विष्णु से न कर दें, क्योंकि देवी पार्वती ने मन ही मन भगवान शिव को अपना पति मान लिया था।

पार्वती जी के मन की बात जानकर उनकी सखियां उन्हें लेकर घने जंगल में चली गईं। जंगल में अपनी सखियों की सलाह से पार्वती जी ने एक गुफा में भगवान शिव की अराधना की। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में पार्वती जी ने मिट्टी से शिवलिंग बनाकर विधिवत पूजा की और रातभर जागरण किया। पार्वती जी के तप से खुश होकर भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था।

इस तरह सखियों द्वारा उनका हरण कर लेने की वजह से इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा। पौराणिक मान्यता के अनुसार, पिता के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान देवी सती सहन नहीं कर पाई थीं और उन्होंने खुद को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। वहीं अगले जन्म में उन्होंने राजा हिमाचल के यहां जन्म लिया और इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शंकर को ही पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की।

देवी पार्वती ने शिव जी को अपना पति मान लिया था और वह सदैव भगवान शिव की तपस्या में लीन रहतीं थीं। उनकी हालत देखकर राजा हिमाचल को चिंता सताने लगी और उन्होंने नारदजी से इस बारे में बात की। इसके बाद देवी पार्वती का विवाह भगवान विष्णु से कराने का निश्चय किया गया। लेकिन देवी पार्वती विष्णु जी से विवाह नहीं करना चाहती थीं।

उनके मन की बात जानकर उनकी सखियां उन्हें लेकर घने जंगल में चली गईं। कहा जाता है कि भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि के हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। साथ ही उन्होंने अन्न का त्याग भी कर दिया। ये कठोर तपस्या 12 साल तक चली।

पार्वती के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छा अनुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इसलिए हर साल महिलाएं अखंड सौभाग्य के लिए इस व्रत को करती हैं।

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