4 historical stories in Hindi | ऐतिहासिक कहानियां जो सभी भारतीयों को पता होनी चाहिए।

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historical stories in Hindi
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पंचतंत्र के निर्माण की कहानी (indian historical stories in hindi )

महिला रौप्य नाम का एक नगर हुआ करता था जिसका महान राजा अमर शक्ति था वह बहुत महान था। उसके तीन पुत्र थे बहु शक्ति, उग्र शक्ति और अनेक शक्ति चिंता का विषय यह था कि ये बहुत ही मुर्ख थे राजा को इसी बात की चिंता दिन प्रति दिन खाये जा रही थी राजा की अब उम्र भी हो रही थी। राजा चिंता में था कि आखिर मेरे बाद इनमे से कौन राजपाठ संभालेगा तीनो ही मुर्ख है कोई भी मेरे बाद राजपाठ सँभालने योग्य नहीं है। इसलिए राजा ने यह चिंता अपने दरबार में अपने मंत्रियों के सामने व्यक्त की।

 मंत्रियों में से एक ने कहा – एक ऐसा विद्वान् है जो आपके तीनों  पुत्रों को कुछ ही समय में ज्ञानी और विद्वान् बना सकता है।

राजा ने कहा – ऐसा कैसे संभव हो सकता है सिर्फ व्याकरण आदि का अध्यन करने में ही वर्षों का समय लग जायेगा और फिर शास्त्र आदि का अध्ययन किया जायेगा। जिसमे वर्षों लग जायेंगे। अगर  ऐसा संभव हो कि कुछ ही महीनो के अंदर मेरे तीनों पुत्रों को विद्वान् बनाया जा सके तो उस विद्वान् का नाम मुझे बताएं।

मंत्री ने कहा – उसका नाम विष्णु शर्मा है अगर आपकी आज्ञा है तो मैं उसे दरबार में आने का निमंत्रण देना चाहूंगा।

 राजा मान गया और पंडित विष्णु शर्मा को बुलाया गया। विष्णुशर्मा ने राजा की बात सुनी और जवाब दिया कि मैं आपके तीनो पुत्रों को मात्र छह माह में ही शास्त्रों का ज्ञाता और विद्वान् बना दूंगा। अगर मैं ऐसा नहीं कर पाया तो अपना नाम बदल दूंगा। इस प्रकार पंडित विष्णु शर्मा ने राजा के तीनो पुत्रों को शास्त्रों का ज्ञाता छह माह का समय लेकर बना दिया।

असल में विष्णुशर्मा ने शास्त्रों को पशु पक्षियों की कहानियों में परिवर्तित करके एक पुस्तक का निर्माण किया था। यह पुस्तक किसी भी मुर्ख से मुर्ख व्यक्ति को बुद्धिमान और शास्त्रों का ज्ञाता बना देती है। अगर आप पंचतंत्र की कहानियां पढ़ना  चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं

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चाणक्य के अपमान के बदले की कहानी (famous historical stories in Hindi )

चाणक्य का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में 400 ईसा पूर्व में हुआ था। उनका स्वाभाव बचपन से ही बहुत उग्र था इसलिए उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है तथा उन्हें विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता था। चाणक्य ने उस समय के महान शिक्षा के केंद्र में शिक्षा ग्रहण की थी। उनका रंग काला था तथा रूप के बदसूरत थे। 

ईसा के जन्म से कोई चार सौ वर्ष पूर्व भारत में चाणक्य नामक एक महापुरुष ने जन्म लिया था। चाणक्य के आरजिभक जीवन के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।

एक किंवदंतिय के आधार पर उनके जीवन की एक मनोरंजक घटना यों बताई जाती है। एक बार चाणक्य की माता अपने बेटे का मुंह देखते-देखते एकदम रो पड़ी। चाणक्य अपनी माँ को यों रोते देख बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने पूछा – माँ। तुम मुझे देख कर एकदम क्यों रो पड़ी ?

चाणक्य की माँ बोली- बेटा, तेरे भाग्य में बड़ा राजा होना लिखा है। तू राजा हो जाने पर अपनी माँ को ज़रूर भूल जाएगा। बस, यही सोचकर मेरे आँसू निकल पड़े चाणक्य बोला – लेकिन तुमने यह कैसे जाना कि मेरे भाग्य में राजा बनना लिखा है ? माँ बोली तुम्हारे सामने वाले दो दाँत बताते हैं कि तुम राजा बनोगे।चाणक्य ने बाहर जाकर एक पत्थर उठाया और अपने दोनों दाँत तोड़ कर फैंक दिए।

लौट कर बोला – लो, माँ, मैं अपने राज लक्षण वाले दोनों दाँत तोड़ आया हूँ। अब न मैं राजा बनूँगा और न तुम्हें छोड़कर जाऊँगा। तुम्हारी ममता के सामने संसार की सभी चीजें तुच्छ हैं । इस कथा से पता चलता है कि वे कितने कोमल मन के थे।

चाणक्य तक्षशिला के एक विद्वान ब्राह्मण थे। तक्षशिला उन दिनों सभी प्रकार की विद्याओं का केन्द्र था। तक्षशिला के समान ही उस ज़माने में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भी शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था।तक्षशिला में अपना अध्ययन पूरा करके चाणक्य पाटलिपुत्र में और अध्ययन के लिए आ गए।उस समय मगध के सिंहासन पर घनानन्द नामक राजा बैठा था। घनानन्द जाति का शूद्र था। वह बडा लोभी था और उसने प्रजा पर बहुत ज्यादा कर लगाकर अपने खज़ाने में बड़ा धन इकट्ठा कर लिया था।

किंतु जिस समय चाणक्य पाटलिपुत्र पहुँचे, उस समय तक घनानन्द के स्वभाव में बड़ा अन्तर आ चुका था। दान बाँटने के लिए उसने एक दानशाला खोल दी थी और उस के प्रबंध के लिए एक समिति बना दी थी। इसका अध्यक्ष कोई ब्राह्मण होता था। यह नियम बना दिया था कि समिति का अध्यक्ष एक करोड़ मुद्रा तक का दान किसी को भी दे सकता है।

चाणक्य विद्वान तो थे ही, अत: शीघ्र ही उनकी योग्यता और विद्वता का सिक्का पाटलिपुत्र में भी जम गया। उन्हें दानशाला प्रबंध समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।

चाणक्य जहां विद्वान और अनोखी प्रतिभा वाले थे, वहां उनके साथ एक कठिनाई भी थी। वह बहुत ही बदसूरत और रंग के बिल्कुल काले थे। भाग्य की बात कि एक दिन घनानन्द ने अपने दरबार में चाणक्य को बुलाया।इससे पहले उसने उन्हें देखा नहीं था। चाणक्य की सूरत देखते ही राजा को क्रोध चढ़ आया और उसने आज्ञा दी कि चाणक्य को दरबार से बाहर किया जाए।

चाणक्य भला यह अपमान कैसे सहन कर सकते थे ? उन्हें भी बहुत क्रोध आया। मारे गुस्से के थर-थर काँपते हुए उन्होंने दरबार में अपनी चोटी खोल दी और राजा की तरफ मुँह करके बोले-नीच, तूने आज मेरा भरे दरबार में जो अपमान किया है, उसका बदला मैं तुझसे से अवश्य लूंगा।

मैं तुझे और तेरे वंश को मलियामेट करके मगध के राज सिंहासन पर किसी कुलीन व्यक्ति को बिठाऊंगा। मैं जब तक ऐसा नहीं कर लूँगा, तब तक अपनी चोटी नहीं बांधूगा।

यह कह कर चाणक्य गुस्से में ही दरबार छोड़कर बाहर चले गए। वह पाटलिपुत्र से बाहर जा रहे थे, कि तभी अचानक उनकी भेंट चन्द्र गुप्त से हो गई। यही चन्द्र गुप्त बाद में चन्द्र गुप्त मौर्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुए।

चन्द्रगुप्त को देखकर चाणक्य को लगा कि उसमें सचमुच ही राजा बनने के सारे लक्षण हैं। बस, वह उसे अपने साथ लेकर तक्षशिला चले गये।

वहां पर उन्होंने चन्द्रगुप्त को सात-आठ वर्ष तक शस्त्र-विद्या और अन्य शास्त्रों की पूरी शिक्षा दी और अपनी देख-रेख में उसे सब प्रकार की विद्याएं सिखा कर पटु बना दिया। बाद में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के द्वारा ही नन्द वंश का नाश करवाया।

जिस समय चन्द्रगुप्त तक्षशिला में चाणक्य के पास रह कर शस्त्र विद्या और शास्त्रों का अध्ययन कर रहा था, लगभग उसी समय भारत पर मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने हमला किया था। यह ईसा से 327 वर्ष पहले की बात है। सिकन्दर सारे यूनान पर अधिकार कर चुका था और उसकी फौजें ईरान के विशाल साम्राज्य को रौंदती हुई भारत की तरफ बढ़ रही थीं।

वह सारे संसार को जीतने का स्वप्न देख रहा था। सिकन्दर के हमले के समय भारत के पश्चिमी भाग में सिंधु नदी की घाटी और पंजाब में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे।

यूनान की प्रबल और सुसंगठित सेना के सामने ये छोटे-छोटे राज्य टिक नहीं सके। कुछ राजाओं ने सिकन्दर का बहादुरी से सामना किया। इनमें राजा पुरू का नाम सबसे ऊपर आता है। उसने सिकन्दर की तूफानी बाढ़ को बहुत बहादुरी से रोका, इसकी कहानी पहले ही बताई जा चुकी है।

यह कहानी भारत की नहीं, बल्कि विश्व के इतिहास में सदैव याद रखी जाने वाली घटना है। दूसरे राजाओं की तरह पुरू भी युद्ध में पराजित हुआ। लेकिन सिकन्दर और उसकी यूनानी फौज को मालूम हो गया कि भारतीयों से टकराना चट्टान के ऊपर सिर मारना है।

उसकी हिज़्मत व्यास नदी को पार करके आगे बढ़ने की नहीं रही और वह भारत के जीते हुए भाग पर अपने सूबेदार नियुक्त करके वापस लौट आया।चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों ने देखा कि किस तरह आपसी फूट के कारण भारत के पश्चिमी भाग पर यूनानियों का शासन स्थापित हो गया है।

सिकन्दर के लौट जाने पर चाणक्य ने देश को यूनानी शासन से मुक्त करवाने का बीड़ा उठाया। उस की दृष्टि में विदेशी शासन सबसे बड़ी बुराई थी। अत: उसने चन्द्रगुप्त को आगे कर पंजाब में एक छोटी-मोटी सेना एकत्र की और उस को इस सेना का सेनापति बनाया। चन्द्रगुप्त के हाथ मज़बूत करने के लिए चाणक्य ने पंजाब के कुछ पहाड़ी राजाओं को भी अपने साथ मिला लिया।

चाणक्य की बुद्धि और चन्द्रगुप्त के युद्ध कौशल के मिलने का ही फल था कि सिकंदर के हमले के तीन वर्ष के अन्दर ही भारत भूमि से यूनानियों का सफाया हो गया और विदेशी शासन का निशान तक नहीं रहा। इसके बाद चाणक्य ने अपना ध्यान मगध की ओर किया। उन्हें अपनी प्रतिज्ञा अभी तक याद थी। वे नन्द वंश का नाश करके चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बिठाने की योजना बनाने में लग गए।

चाणक्य ने अपनी कूटनीति द्वारा राजा नन्द के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा और अपने बुद्धि बल से उन्होंने इस षड्यंत्र को सफल बनाया। कूटनीति के सभी दांव लगाकर उन्होंने अन्त में नन्द-वंश का विनाश करने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

उन्होंने चन्द्रगुप्त को न केवल मगध के सिंहासन पर ही बिठाया, बल्कि बाद में मगध के साम्राज्य को फैलाने में भी उसकी बराबर सहायता की।चाणक्य निःसन्देह त्यागी थे। उन्होंने कभी भी महलों में रहना स्वीकार नहीं किया। चन्द्रगुप्त जैसे महाप्रतापी सम्राट के प्रधानमन्त्री होकर भी वे कुटिया में ही रहते थे, सादा खाना खाते थे और सादा वस्त्र पहनते थे। सारे साम्राज्य पर उनका हुक्म चलता था।

चन्द्रगुप्त स्वयं उनके सामने | सिर झुकाकर खड़ा होता था।चाणक्य के समय भारत में दो प्रकार की राज्य प्रणालियाँ थीं- राजतंत्र और गणतंत्र। उस समय भारत में जो गणतंत्र थे उनका राजकाल आजकल के गणतंत्रों की तरह प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नहीं होता था।वह तो एक विशेष वंश में उत्पन्न लोगों के प्रतिनिधियों का तंत्र था। चाणक्य की सज़्मति में इन छोटे-छोटे गणतंत्रों की तुलना में राजतंत्रों यानी राजा का शासन कहीं अधिक श्रेयस्कर था।इसीलिए उन्होंने अपने समय के छोटे-छोटे गणतंत्रों को मिलाकर एक राजा की अधीनता स्वीकार करने की सज़मति दी।

चाणक्य के मत में राजा का आदर्श प्रजा के पालन व कल्याण की चिन्ता करना होना चाहिए।

वही राजा अच्छा है जो प्रजा के सुख के आगे अपने सुख की परवाह न करे। प्रजा के सुखी होने में ही उसका अपना हित है।

उन्होंने यह भी लिखा है कि राजा की आज्ञा के सामने वेद और धर्मशास्त्रों में दी गई हिदायतें तुच्छ हैं। राजधर्म, मन्त्रियों की परिषद, राज्य-व्यवस्था, राज्य के अर्थ की व्यवस्था, न्याय आदि विषयों पर चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत विस्तार से लिखा है।

यहां पर ऊपर कही गई इस बात को दोहरा देना काफी होगा कि राजा का हित प्रजा में हैं और यदि प्रजा सुखी है तो राजा भी सुखी रहेगा। चाणक्य की समिति में तलाक और विधवा-विवाह की प्रथाएं धर्म-सज्मत हैं। उन्होंने इनका समर्थन किया है।

चाणक्य ने अपनी बुद्धि के चमत्कार से यूनानी शासकों को निकाल बाहर किया। साथ ही उन्होंने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक विशाल भारतीय साम्राज्य की नींव डलवाई।


अकबर की मृत्यु का कारण (short historical stories in hindi )

अकबर को कौन नहीं जनता वह बहुत ही महान कुशल और समृद्ध शासक थे। बहुत से युद्ध जित कर उन्होंने लगभग पुरे हिंदुस्तान पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। लेकिन उनकी मृत्यु के पीछे कोई  बड़ा युद्ध नहीं था। न ही कोई षड्यंत्र था। उनके तीन पुत्र थे। जिनमे से सलीम उन्हें प्रिय था। कहा जाता है कि सलीम की वजह से ही अकबर की मृत्यु हुई थी। वैसे  तो अकबर की मौत की सही जानकरी बहुत ही कम लोगों को पता है। इसलिए इस कहानी के माध्यम से हम आपको यह जानकरी देने जा रहे हैं। कहा जाता है कि अकबर को सलीम बहुत ही प्यारा था परन्तु सलीम अकबर के खिलाफ ही रहता था।

वह अकबर को परेशान करने के नए नए तरीके अपनाता रहता था। शुरू में तो सलीम छोटी छोटी गलतियां करता था लेकिन बड़े होने के साथ साथ उसकी गलतियां भी बढ़ती जा रही थी।  अकबर का सबसे प्रिय होने  के कारण अकबर सलीम की गलतियों को नजरअंदाज कर देता था। अब समय आ गया था कि अकबर अपने तीनो पुत्रों में से किसी एक को शासन दे।

अकबर को यह भी ज्ञात था  कि सलीम की माफ़ी के न काबिल गलतियों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता यह राज्य के लिए बहुत हानिकारक हो सकती है। इसलिए राजा अकबर ने अपने बड़े पुत्र को राजपाठ संभालने का निर्णय लिया। लेकिन एक तरफ अकबर का प्रिय पुत्र सलीम भी था जिसे वह बहुत प्यार करते थे।  बहुत ही विचार विमर्श करके अकबर ने अपने बड़े बेटे की जगह सलीम को अपना उत्तराधिकारी बना ही दिया ।

अकबर दक्कन के  अभियान में व्यस्त था इसी समय के दौरान सलीम ने उत्तर भारत में विद्रोह कर दिया और अकबर के नव रत्नो में से एक अबुल फजल की हत्या करवा दी। इस घटना के दौरान उन्हें बहुत धक्का लगा और उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। अकबर बहुत बीमार रहने लगे। वह इतने बीमार हो गए कि वह चल फिर भी नहीं सकते थे। इसी बीमारी का इलाज सलीम ने नहीं करवाया जिसके कारण बहुत जल्द ही उनकी मृत्यु हो गयी।

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क्रिकेट का इतिहास (Cricket historical stories in Hindi) 

क्रिकेट इंग्लैंड में 500 साल पहले अलग-अलग नियमों के तहत खेले जा रहे गेंद-डंडे के खेलों से पैदा हुआ। ‘बैट’ अंग्रेज़ी का एक पुराना शब्द है, जिसका सीधा अर्थ है ‘डंडा’ या ‘कुंदा’। सत्रहवीं सदी में एक खेल के रूप में क्रिकेट की आम पहचान बन चुकी थी और यह इतना लोकप्रिय हो चुका था कि रविवार को चर्च न जाकर मैच खेलने के लिए इसके दीवानों पर जुर्माना लगाया जाता था। अठारहवीं सदी के मध्य तक बल्ले की बनावट हॉकी-स्टिक की तरह नीचे से मुड़ी होती थी। इसकी सीधी-सी वजह ये थी कि बॉल लुढ़का कर, अंडरआर्म, फेंकी जाती थी और बैट के निचले सिरे का घुमाव बल्लेबाज़ को गेंद से संपर्क साधने में मदद करता था।

इंग्लैंड के गाँवों से उठकर यह खेल कैसे और कब बड़े शहरों के विशाल स्टेडियम में खेला जानेवाला आधुनिक खेल बन गया, यह इतिहास का एक दिलचस्प विषय है, क्योंकि इतिहास का एक इस्तेमाल तो यही है कि वह हमें वर्तमान के बनने की कहानी बताए। खेल हमारी मौजूदा जिंदगी का एक अहम हिस्सा है-इसके ज़रिए हम अपना मनोरंजन करते हैं, एक दूसरे से होड़ लेते हैं, खुद को फिट रखते हैं और अपनी सामाजिक तरफ़दारी भी व्यक्त करते हैं। अगर आज के दिन लाखों-करोड़ों हिन्दुस्तानी सब कुछ छोड़-छाड़कर भारतीय टीम को टेस्ट या एकदिवसीय मैच खेलते देखने में जुट जाते हैं तो यह जानना ज़रूरी लगता है कि दक्षिण-पूर्व इंग्लैंड में खोजा गया यह गेंद-डंडे का खेल आखिर भारतीय उपमहाद्वीप का जुनून कैसे बन गया। इस खेल की कहानी इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि एक ओर जहाँ उपनिवेशवाद व राष्ट्रवाद की बड़ी कहानी इससे जुड़ी है तो दूसरी ओर धर्म व जाति की राजनीति ने भी एक हद तक इसका स्वरूप गढ़ा।

क्रिकेट की एक और दिलचस्प ख़ासियत यह है कि पिच की लंबाई तो तय-22 गज़-होती है पर मैदान का आकार-प्रकार एक-सा नहीं होता। हॉकी, फुटबॉल जैसे दूसरे टीम-खेलों में मैदान के आयाम तय होते हैं, क्रिकेट में नहीं। ऐडीलेड ओवल की तरह मैदान अंडाकार हो सकता है, तो चेन्नई के चेपॉक की तरह लगभग गोल भी। मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में छक्का होने के लिए गेंद को काफ़ी दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला में थोड़े प्रयास में ही गेंद सीमा रेखा के पार जाकर गिरती है।

इन दोनों अजूबों के पीछे ऐतिहासिक कारण हैं। कायदा-क़ानून से बँधने वाले खेलों में क्रिकेट का नंबर अव्वल था, यानी, सॉकर व हॉकी जैसे बाकी खेलों के मुकाबले में क्रिकेट ने सबसे पहले अपने लिए नियम बनाए और वर्दियाँ भी अपनाईं। ‘क्रिकेट के क़ानून’ पहले-पहल 1744 ई. में लिखे गए। उनके मुताबिक, “हाज़िर शरीफ़ों में से दोनों प्रिंसिपल (कप्तान) दो अंपायर चुनेंगे, जिन्हें किसी भी विवाद को निपटाने का अंतिम अधिकार होगा। स्टंप 22 इंच ऊँचे होंगे, उनके बीच की गिल्लियाँ 6 इंच की। गेंद का वज़न 5 से 6 औंस के बीच होगा  और स्टंप के बीच की दूरी 22 गज़ होगी”। बल्ले के रूप व आकार पर कोई पाबंदी नहीं थी।

ऐसा लगता है कि 40 नॉच या रन का स्कोर काफी बड़ा होता था, शायद इसलिए कि गेंदबाज़ तेजी से बल्लेबाज़ के नंगे, पैडरहित पिंडलियों पर गेंद फेंकते थे। दुनिया का पहला क्रिकेट क्लब हैम्बल्डन में 1760 के दशक में बना और मेरिलिबॉन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) की स्थापना 1787 में हुई। इसके अगले साल ही एमसीसी ने क्रिकेट के नियमों में सुधार किए और उनका अभिभावक बन बैठा। एमसीसी के सुधारों से खेल के रंग-ढंग में ढेर सारे परिवर्तन हुए, जिन्हें 18वीं सदी के दूसरे हिस्से में लागू किया गया।

1760 व 1770 के दशक में ज़मीन पर लुढ़काने की जगह गेंद को हवा में लहराकर आगे पटकने का चलन हो गया था। इससे गेंदबाजों को गेंद की लंबाई का विकल्प तो मिला ही, वे अब हवा में चकमा भी दे सकते थे और पहले से कहीं तेज़ गेंदें फेंक सकते थे। इससे स्पिन और स्विंग के लिए नए दरवाजे खुले। जवाब में बल्लेबाजों को अपनी टाइमिंग व शॉट चयन पर महारत हासिल करनी थी। एक नतीजा तो फ़ौरन यह हुआ कि मुड़े हुए बल्ले की जगह सीधे बल्ले ने ले ली। इन सबकी वजह से हुनर व तकनीक महत्वपूर्ण हो गए, जबकि ऊबड़-खाबड़ मैदान या शुद्ध ताकत की भूमिका कम हो गई।

गेंद का वज़न अब साढ़े पाँच से पौने छ: औंस तक हो गया और बल्ले की चौड़ाई चार इंच कर दी गई। यह तब हुआ जब एक बल्लेबाज़ ने अपनी पूरी पारी विकेट जितने चौड़े बल्ले से खेल डाली! पहला लेग बिफ़ोर विकेट (पगबाधा) नियम 1774 में प्रकाशित हुआ। लगभग उसी समय तीसरे स्टंप का चलन भी हुआ। 1780 तक बड़े मैचों की अवधि तीन दिन की हो गई थी और इसी साल छः सीवन वाली क्रिकेट बॉल भी अस्तित्व में आई।

उन्नीसवीं सदी में ढेर सारे बदलाव हुए। वाइड बॉल का नियम लागू हुआ, गेंद का सटीक व्यास तय किया गया, चोट से बचाने के लिए पैड व दस्ताने जैसे हिफ़ाज़ती उपकरण उपलब्ध हुए, बाउंड्री की शुरुआत हुई, जबकि पहले हरेक रन दौड़ कर लेना पड़ता था, और सबसे अहम बात, ओवरआर्म बोलिंग कानूनी ठहरायी गई। पर अठारहवीं सदी में क्रिकेट पूर्व औद्योगिक खेल रहा, जिसे परिपक्व होने के लिए औद्योगिक क्रांति, यानी 19वीं सदी के दूसरे हिस्से का इंतज़ार करना पड़ा। अपने इस ख़ास इतिहास के चलते क्रिकेट में भूत-वर्तमान दोनों की विशेषताएं शामिल हैं।

क्रिकेट की ग्रामीण जड़ों की पुष्टि टेस्ट मैच की अवधि से भी हो जाती है। शुरू में क्रिकेट मैच की समय-सीमा नहीं होती थी। खेल तब तक चलता था जब तक एक टीम दूसरी को दोबारा पूरा आउट न कर दे। ग्रामीण जिंदगी की रफ्तार धीमी थी और क्रिकेट के नियम औद्योगिक क्रांति से पहले बनाए गए थे। आधुनिक फैक्ट्री का मतलब था कि लोगों को घंटे, दिहाड़ी या हफ्ते के हिसाब से काम के पैसे मिलते थे: फुटबॉल या हॉकी जैसे खेलों की संहिताएँ औद्योगिक क्रांति के बाद बनीं, लिहाजा उनकी कठोर समय-सीमाएँ औद्योगिक शहरी जिंदगी के रूटीन को ध्यान में रखकर बनाई गईं।

उसी तरह क्रिकेट में मैदान के आकार का अस्पष्ट होना उसकी ग्रामीण शुरुआत का सबूत है। क्रिकेट मूलतः गाँव के कॉमन्स में खेला जाता था। कॉमन्स ऐसे सार्वजनिक और खुले मैदान थे जिनपर पूरे समुदाय का साझा हक़ होता था। कॉमन्स का आकार हरेक गाँव में अलग-अलग होता था, इसलिए न तो बाउंड्री तय थी और न ही चौके। जब गेंद भीड़ में घुस जाती तो लोग क्षेत्ररक्षक या फ़ील्डर के लिए रास्ता बना देते थे, ताकि वह आकर गेंद वापस ले जाए। जब सीमा-रेखा क्रिकेट की नियमावली का हिस्सा बनी तब भी, विकेट से उसकी दूरी तय नहीं की गई। नियम सिर्फ यह कहता है कि ‘अंपायर दोनों कप्तानों से सलाह कर के खेल के इलाके की सीमा तय करेगा।’

खेल के औजारों को देखें तो पता चलता है कि वक्त के साथ बदलने के बावजूद क्रिकेट अपनी ग्रामीण इंग्लैंड की जड़ों के प्रति वफ़ादार रहा। क्रिकेट के सबसे जरूरी उपकरण प्रकृति में उपलब्ध पूर्व-औद्योगिक सामग्री से बनते हैं। बल्ला, स्टंप व गिल्लियाँ लकड़ी से बनती हैं, जबकि गेंद चमड़े, सुतली (ट्वाइन) और काग (कॉर्क) से। आज भी बल्ला और गेंद हाथ से ही बनते हैं, मशीन से नहीं। बल्ले की सामग्री अलबत्ता वक्त के साथ बदली।

किसी ज़माने में इसे लकड़ी के एक साबुत टुकड़े से बनाया जाता था। लेकिन अब इसके दो हिस्से होते हैं – ब्लेड या फट्टा जो विलो (बैद) नामक पेड़ से बनता है और हत्था जो बेंत से बनता है। बेंत तब जाकर उपलब्ध हुई जब यूरोपीय उपनिवेशकारों व कंपनियों ने खुद को एशिया में जमाया। गोल्फ़ और टेनिस के विपरीत, क्रिकेट ने प्लास्टिक, फ़ायबर-शीशा या धातु-जैसी औद्योगिक या कृत्रिम सामग्री के इस्तेमाल को सिरे से नकारा है। जब ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर डेनिस लिली ने एल्युमीनियम के बल्ले से खेलने की कोशिश की तो अंपायरों ने उसे अवैध करार दिया।

दूसरी ओर हिफ़ाज़ती साज-सामान पर तकनीकी बदलाव का सीधा असर पड़ा है। वल्केनाइज्ड रबड़ की खोज के बाद पैड पहनने का रिवाज 1848 में चला, जल्द ही दस्ताने भी बने और धातु, सिन्थेटिक व हल्की सामग्री से बने हेल्मेट के बिना तो आधुनिक क्रिकेट की कल्पना ही असंभव है।

इंग्लैंड में क्रिकेट के आयोजन पर अंग्रेज़ी समाज की छाप साफ़ है। अमीरों को, जो मजे के लिए क्रिकेट खेलते थे, ‘शौकिया’ खिलाड़ी कहा गया और अपनी रोजी-रोटी के लिए खेलनेवाले गरीबों को ‘पेशेवर’ (प्रोफ़ेशनल) कहा गया। अमीर शौक़िया दो कारणों से थे: एक, यह खेल उनके लिए एक तरह का मनोरंजन था – खेलने के आनंद के लिए न कि पैसे के लिए खेलना नवाबी ठाठ की निशानी था। दूसरे, खेल में अमीरों को लुभा सकने लायक पैसा भी नहीं था। पेशेवर खिलाड़ियों का मेहनताना वज़ीफ़ा, चंदे, या गेट पर इकट्ठा किए गए पैसे से दिया जाता था। मौसमी होने के कारण खेल से साल भर का रोजगार तो नहीं मिल सकता था। जाड़े के महीनों, यानी ऑफ़-सीजन में, ज्यादातर पेशेवर खिलाड़ी खदानों में काम करते थे या कहीं और मजदूरी करते थे।

शौकीनों की सामाजिक श्रेष्ठता क्रिकेट की परंपरा का हिस्सा बन गई। शौक़ीनों को जहाँ ‘जेंटलमेन’ की उपाधि दी गई तो पेशेवरों को ‘खिलाड़ी’ (‘प्लेयर्स’) का अदना-सा नाम मिला। मैदान में घुसने के उनके प्रवेश-द्वार भी अलग-अलग थे। शौकीन जहाँ बल्लेबाज़ हुआ करते वहीं खेल में असली मशक्कत और ऊर्जा वाले काम, जैसे तेज़ गेंदबाज़ी, खिलाड़ियों के हिस्से आते थे। क्रिकेट में संदेह का लाभ (बेनेफ़िट ऑफ़ डाउट) हमेशा बल्लेबाज़ को क्यों मिलता है, उसकी एक वजह यह भी है। क्रिकेट बल्लेबाजों का ही खेल इसीलिए बना क्योंकि नियम बनाते समय बल्लेबाजी करनेवाले ‘जेंटलमेन’ को तरजीह दी गई। शौक़िया खिलाड़ियों की सामाजिक श्रेष्ठता का ही नतीजा था कि टीम का कप्तान पारंपरिक तौर पर बल्लेबाज ही होता थाः इसलिए नहीं कि बल्लेबाज़ कुदरती तौर पर बेहतर कप्तान होते थे, बल्कि इसलिए कि बल्लेबाज़ तो आम तौर पर ‘जेंटलमेन’ ही होते थे। चाहे क्लब की टीम हो या राष्ट्रीय टीम, कप्तान तो शौकिया खिलाड़ी ही होता था। 1930 के दशक में जाकर पहली बार अंग्रेज़ी टीम की कप्तानी किसी पेशेवर खिलाड़ी-यॉर्कशायर के बल्लेबाज़ लेन हटन-ने की।

अकसर कहा जाता है कि ‘वाटरलू का युद्ध ईटन के खेल के मैदान में जीता गया। इसका अर्थ यह है कि ब्रिटेन की सैनिक सफलता का राज़ उसके पब्लिक स्कूल के बच्चों को सिखाए गए मूल्यों में था। अंग्रेजी आवासीय विद्यालय में अंग्रेज़ लड़कों को शाही इंग्लैंड के तीन अहम संस्थानों सेना, प्रशासनिक सेवा व चर्च में करियर के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक टॉमस आर्नल्ड-जो मशहूर रग्बी स्कूल के हेडमास्टर होने के साथ-साथ आधुनिक पब्लिक स्कूल प्रणाली के प्रणेता थे-राबी व क्रिकेट जैसे खेलों को महज़ मैदानी खेल नहीं मानते थे बल्कि अंग्रेज लड़कों को अनुशासन, ऊँच-नीच का बोध, हुनर, स्वाभिमान की रीति-नीति और नेतृत्व क्षमता सिखाने का ज़रिया मानते थे। इन्हीं गुणों पर तो ब्रितानी साम्राज्य को बनाने और चलाने का दारोमदार था।

विक्टोरियाई साम्राज्य-निर्माता दूसरे देशों को जीतना निःस्वार्थ समाज सेवा मानते थे, क्योंकि उनसे हारने के बाद ही तो पिछड़े समाज ब्रितानी कानून व पश्चिमी ज्ञान के संपर्क में आकर सभ्यता का सबक सीख सकते थे। क्रिकेट ने अभिजात अंग्रेजों की इस आत्मछवि को पुष्ट करने में मदद की-ऐसा शौकिया खेल को बतौर आदर्श पेश करके हुआ, यानी खेल जहाँ फ़ायदे या जीत के लिए न होकर सिर्फ खेलने और स्पिरिट ऑफ़ फ़ेयरप्ले (न्यायोचित खेल भावना) के लिए खेला जाता था।

सच्ची बात तो यह है कि नेपोलियन के खिलाफ लड़ाई इसलिए जीती जा सकी कि स्कॉटलैंड व वेल्स के लौह उद्योग, लंकाशायर की मिलों व सिटी ऑफ़ लंदन के वित्तीय घरानों से भरपूर सहयोग मिला। इंग्लैंड के व्यापार व उद्योग में आगे होने के चलते ब्रिटेन विश्व की सबसे बड़ी ताकत बन गया था, लेकिन अंग्रेजी शासक-वर्ग को यही खयाल अच्छा लगता था कि दुनिया में उनकी श्रेष्ठता के पीछे आवासीय विद्यालयों में पढ़कर तैयार हुए और शरीफ़ों का खेल-क्रिकेट खेलनेवाले युवावर्ग का चरित्र ही है।

हॉकी व फुटबॉल जैसे टीम-खेल तो अंतर्राष्ट्रीय बन गए, पर क्रिकेट औपनिवेशिक खेल ही बना रहा, यानी यह उन्हीं देशों तक सीमित रहा जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अंग थे। क्रिकेट की पूर्व-औद्योगिक विचित्रता के कारण इसका निर्यात होना मुश्किल था। इसने उन्हीं देशों में जड़ें जमायीं जहाँ अंग्रेजों ने कब्जा जमाकर शासन किया। इन उपनिवेशों (जैसे कि दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, वेस्ट इंडीज़ और कीनिया) में क्रिकेट इसलिए लोकप्रिय खेल बन पाया क्योंकि गोरे बाशिंदों ने इसे अपनाया या फिर जहाँ स्थानीय अभिजात वर्ग ने अपने औपनिवेशिक मालिकों की आदतों की नकल करने की कोशिश की, जैसे कि भारत में।

हालाँकि ब्रिटिश शाही अफ़सर उपनिवेशों में यह खेल लेकर ज़रूर आए पर इसके प्रसार के लिए, खास तौर पर वेस्ट इंडीज़ व हिंदुस्तान जैसे गैर-गोरे उपनिवेशों में, उन्होंने शायद ही कोई प्रयास किया। क्रिकेट खेलना यहाँ सामाजिक व नस्ली श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया और अफ्रीकी-कैरिबियाई आबादी को क्लब क्रिकेट खेलने से हमेशा हतोत्साहित किया गया। नतीजतन, इस पर गोरे बागान-मालिकों और उनके नौकरों का बोलबाला रहा। वेस्ट इंडीज़ में पहला गैर-गोरा क्लब उन्नीसवीं सदी के अंत में बना और यहाँ भी सदस्य हल्के रंगवाले मुलैट्टो समुदाय के थे। इस तरह काले रंग के लोग समुद्री बीचों, गलियों और पार्को में बड़ी संख्या में  क्रिकेट खेलते थे, लेकिन क्लब क्रिकेट पर 1930 के दशक तक गोरे अभिजनों का ही वर्चस्व रहा।

वेस्ट इंडीज़ में अभिजात गोरों की विशिष्टतावादी नीतियों के बावजूद कैरिबियाई द्वीप समूह में क्रिकेट महालोकप्रिय हो गया। क्रिकेट में कामयाबी का मतलब नस्ली समानता व राजनीतिक प्रगति हो गया। अपनी आजादी के समय, फ़ोर्ब्स बर्नहैम व एरिक विलियम्स जैसे नेताओं ने क्रिकेट में आत्मसम्मान और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की संभावनाएँ देखीं। जब वेस्ट इंडीज़ ने 1950 के दशक में इंग्लैंड के खिलाफ़ अपनी पहली टेस्ट श्रृंखला जीती तो राष्ट्रीय उत्सव मनाया गया, मानो वेस्ट इंडियनों ने दिखा दिया कि वो अंग्रेजों से कम नहीं इस महान जीत में दो विडम्बनाएं थी पहली,  वेस्ट इंडीज़ की टीम का कप्तान एक गोरा ही था। याद रहे कि 1960 में पहली बार किसी अश्वेत- फ़ैन्क वॉरेल – को नेतृत्व सँभालने का मौका मिला। दूसरी, वेस्ट इंडीज़ की टीम किसी एक देश की नहीं थी, बल्कि उसमें कई डोमीनियनों के खिलाड़ी शामिल थे और ये राज्य बाद में स्वतंत्र देश बने। मज़ेदार बात है कि कैरिबियाई क्षेत्र की नुमाइंदगी करनेवाली वेस्ट इंडियन टीम, वेस्ट इंडियन एकता के तमाम असफल प्रयासों का एकमात्र अपवाद है।

क्रिकेट के फ़ैन जानते हैं कि क्रिकेट देखने का मतलब ही है कि आप किसी न किसी ओर से हैं। रणजी ट्रॉफी मैच में जब दिल्ली का मुंबई से मुक़ाबला हो तो दर्शक की वफ़ादारी इस पर निर्भर करती है कि वह किस शहर का है या वह किसका साथ दे रहा है। जब भारत बनाम पाकिस्तान हो तो भोपाल या चेन्नई में टेलीविज़न पर मैच देखते दर्शकों की भावनाएँ राष्ट्रीय निष्ठाओं से तय होती हैं।

लेकिन भारतीय प्रथम श्रेणी क्रिकेट के शुरुआती इतिहास में टीमों को भौगोलिक आधारों पर नहीं बाँटा जाता था – बल्कि यह जानना दिलचस्प है कि 1932 के पहले किसी टीम को टेस्ट मैच में राष्ट्रीय नुमाइंदगी का अधिकार नहीं मिला था। तो टीमें बनती कैसे थीं और राष्ट्रीय और क्षेत्रीय टीमों के नहीं होने की स्थिति में फ़ैन अपनी तरफ़दारी कैसे तय करते थे? आइए देखें कि इतिहास के पास इन सवालों के क्या जवाब हैं-देखें कि भारत में क्रिकेट कैसे पनपा और कौन-सी वफ़ादारियाँ ब्रितानी राज के ज़माने में हिंदुस्तानियों को साथ ला रही थीं और कौन उन्हें बाँट रही थीं।

औपनिवेशिक भारत में क्रिकेट नस्ल व धर्म के आधार पर संगठित था। भारत में क्रिकेट का पहला सबूत हमें 1721 से मिला है, जो अंग्रेज़ जहाजियों द्वारा कैम्बे में खेले गए मैच का ब्यौरा है। पहला भारतीय क्लब, कलकत्ता क्लब, 1792 में बना। पूरी अठारहवीं सदी में क्रिकेट भारत में ब्रिटिश सैनिक व सिविल सर्वेट्स द्वारा सिर्फ़-गोरे क्लबों व जिमखानों में

खेला जानेवाला खेल रहा। इन क्लबों की निजी चहारदीवारियों के अंदर क्रिकेट खेलने में मजा तो था ही, यह अंग्रेजों के भारतीय प्रवास के खतरों व मुश्किलों से राहत व पलायन का सामान भी था। हिंदुस्तानियों में इस खेल के लिए ज़रूरी हुनर की कमी समझी जाती थी, न ही उनसे खेलने की उम्मीद की जाती थी। लेकिन वे खेले।

हिंदुस्तानी क्रिकेट-यानी हिंदुस्तानियों द्वारा क्रिकेट-की शुरुआत का श्रेय बम्बई के ज़रतुश्तियों यानी पारसियों के छोटे से समुदाय को जाता है। व्यापार के चलते सबसे पहले अंग्रेजों के संपर्क में आए और पश्चिमीकृत होनेवाले पहले भारतीय समुदाय के रूप में पारसियों ने 1848 में पहले क्रिकेट क्लब की स्थापना बम्बई में की, जिसका नाम था-ओरिएंटल क्रिकेट क्लब। पारसी क्लबों के प्रायोजक व वित्तपोषक थे टाटा व वाडिया जैसे पारसी व्यवसायी।

क्रिकेट खेलने वाले गोरे प्रभुवर्ग ने उत्साही पारसियों की कोई मदद नहीं की। उल्टे, गोरों के बॉम्बे जिमखाना क्लब और पारसी क्रिकेटरों के बीच पार्क के इस्तेमाल को लेकर एक झगड़ा भी हुआ। पारसियों ने शिकायत की कि बॉम्बे जिमखाना के पोलो टीम के घोड़ों द्वारा रौंदे जाने के बाद मैदान क्रिकेट खेलने लायक नहीं रह गया। जब ये साफ़ हो गया कि औपनिवेशिक अधिकारी अपने देशवासियों का पक्ष ले रहे हैं, तो पारसियों ने क्रिकेट खेलने के लिए अपना खुद का जिमखाना बनाया। पर पारसियों व नस्लवादी बॉम्बे जिमखाना के बीच की इस स्पर्धा का अंत अच्छा हुआ-पारसियों की एक टीम ने बॉम्बे जिमखाना को 1889 में हरा दिया। यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के चार साल बाद हुआ, और दिलचस्प बात यह है कि इस संस्था के मूल नेताओं में से एक दादाभाई नौरोजी, जो अपने वक्त के महान राजनेता व बुद्धिजीवी थे, पारसी ही थे।

 पारसी जिमखाना क्लब की स्थापना ने जैसे एक नई परंपरा डाल दी, दूसरे भारतीयों ने भी धर्म के आधार पर क्लब बनाने चालू कर दिए। हिंदू व मुसलमान दोनों ही 1890 के हिन्दू व इस्लाम जिमखाना के लिए पैसे इकट्ठे करते दिखाई दिए। 

ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत को राष्ट्र नहीं मानते थे-उनके लिए तो यह जातियों, नस्लों व धर्मों के लोगों का एक समुच्चय था, जिन्हें उन्होंने उपमहाद्वीप के स्तर पर एकीकृत किया। 19वीं सदी के अंत में कई हिंदुस्तानी संस्थाएँ व आंदोलन जाति व धर्म के आधार पर ही बने क्योंकि औपनिवेशिक सरकार भी इन बँटवारों को बढ़ावा देती थी-सामुदायिक संस्थाओं को फ़ौरन मान्यता मिल जाती थी। मिसाल के तौर पर, इस्लाम जिमखाना द्वारा बम्बई के समुद्री इलाके के पास वाली ज़मीन की अर्जी पर विचार करते हुए बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गवर्नर ने लिखा: ‘… हमें मानकर चलना चाहिए कि बहुत जल्द हमारे पास किसी हिंदू जिमखाना के लिए ऐसी ही अर्जी आएगी… इन अर्जियों को नामंजूर करने का कोई उपाय मेरे पास नहीं है, लेकिन मैं … हर राष्ट्रीयता के जिमखाने की स्थापना के बाद… आगे के आवेदनों को स्वीकार नहीं करूंगा’। (जोर हमारा)। इस पत्र से ज़ाहिर है कि औपनिवेशिक अफ़सर हरेक धार्मिक समुदाय को अलग राष्ट्रीयता मानते थे। यह भी साफ है कि धार्मिक प्रतिनिधित्व के नाम पर स्वीकृति की गुंजाइश ज्यादा थी।

जिमखाना क्रिकेट के इतिहास ने प्रथम श्रेणी के क्रिकेट को सांप्रदायिक व नस्ली आधारों पर संगठित करने की रिवायत डाली। औपनिवेशिक हिंदुस्तान में सबसे मशहूर क्रिकेट टूर्नामेंट खेलनेवाली टीमें क्षेत्र के आधार पर नहीं बनती थीं, जैसा कि आजकल रणजी ट्रॉफी में होता है, बल्कि धार्मिक समुदायों की बनती थीं। इस टूर्नामेंट को शुरू-शुरू में क्वाड्रेग्युलर या चतुष्कोणीय कहा गया, क्योंकि इसमें चार टीमें-यूरोपीय, पारसी, हिंदू व मुसलमान – खेलती थीं। बाद में यह पेंटांग्युलर या पाँचकोणीय हो गया और द रेस्ट नाम की नई टीम में भारतीय ईसाई जैसे बचे-खुचे समुदायों को नुमाइंदगी दी गई। मिसाल के तौर पर विजय हजारे, जो ईसाई थे, द रेस्ट के लिए खेलते थे।

पत्रकारों, क्रिकेटरों व राजनेताओं ने 1930-40 के दशक तक इस पाँचकोणीय टूर्नामेंट की नस्लवादी व सांप्रदायिक बुनियाद पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे। बॉम्बे क्रॉनिकल नामक अखबार के मशहूर संपादक एस.ए, बरेलवी, रेडियो कमेंटेटर ए.एफ.एस. तलयारखान और भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेता महात्मा गांधी ने पेंटांग्युलर को समुदाय के आधार पर बाँटनेवाला बताकर इसकी निंदा की। उनका कहना था ऐसे समय में जब राष्ट्रवादी हिंदुस्तानी अवाम को एकजुट करना चाह रहे थे, इस टूर्नामेंट का क्या तुक था? इसके विपरीत क्षेत्र-आधारित नैशनल क्रिकेट चैंपियनशिप नामक एक नए टूर्नामेंट का आयोजन शुरू हुआ (जिसे बाद में रणजी ट्रॉफी कहा गया), लेकिन पाँचकोणीय टूर्नामेंट की जगह लेने के लिए इसे आजादी का इंतजार करना पड़ा। पाँचकोणीय टूर्नामेंट की नींव में ब्रितानी सरकार की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति थी। यह एक औपनिवेशिक टूर्नामेंट था, जो ब्रिटिश राज के साथ खत्म हो गया।

आधुनिक क्रिकेट में टेस्ट और एकदिवसीय इंटरनैशनल का वर्चस्व है, जिन्हें राष्ट्रीय टीमों के बीच खेला जाता है। मशहूर होकर लोगों की यादों में रच-बस जानेवाले क्रिकेटर आम तौर पर अपनी राष्ट्रीय टीमों के खिलाड़ी होते हैं। पाँचकोणीय और चतुष्कोणीय मैचों के दौर से उन्हीं खिलाड़ियों को हिंदुस्तानी फ़ैन याद करते हैं, जिन्हें टेस्ट क्रिकेट खेलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने समय के बेहतरीन बल्लेबाज़ सी.के. नायडू को तो लोग अब भी याद करते हैं, जबकि पालवंकर विट्ठल व पालवंकर बालू जैसे उनके कुछ अन्य समकालीन इसलिए भुला दिए गए हैं, क्योंकि नायडू का करियर तो लंबा था पर ये दोनों खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट खेलने के वक्त तक सक्रिय नहीं रहे।

 हालाँकि नायडू भी इंग्लैंड के खिलाफ़ 1932 में शुरू होनेवाले पहले क्रिकेट मैचों तक अपने पुराने फ़ॉर्म में नहीं थे, पर देश के पहले टेस्ट कप्तान के रूप में इतिहास में उनका नाम सुरक्षित है। इस तरह भारत ने आजाद होने के डेढ़ दशक पहले ही टेस्ट क्रिकेट में प्रवेश ले लिया था। ऐसा इसलिए संभव हुआ चूँकि 1877 में अपनी शुरुआत से ही टेस्ट क्रिकेट ब्रिटिश साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों के बीच खेला जाता था न कि संप्रभु राष्ट्रों के बीच। पहला टेस्ट ऑस्ट्रेलिया व इंग्लैंड के बीच जब खेला गया तब ऑस्ट्रेलिया गोरों का उपनिवेश-भर था, स्वशासी डोमीनियन राज्य भी नहीं था। उसी तरह, वेस्ट इंडीज़ के नाम से जाने जानेवाले विभिन्न कैरिबियाई देश दूसरे विश्वयुद्ध के काफ़ी बाद तक ब्रिटिश उपनिवेश ही थे।

लगभग 150 साल पहले भारत के अग्रणी क्रिकेटरों – पारसियों – को खेल के मैदान के लिए संघर्ष करना पड़ा था। आज वैश्विक बाजार ने हिन्दुस्तानी क्रिकेटरों को खेल का सबसे मशहूर और अमीर खिलाड़ी बना दिया है, पूरी दुनिया जैसे अब उनका रंगमंच हो गया है। इस ऐतिहासिक बदलाव के पीछे कुछ छोटे-मोटे कारण भी थेः शौकिया जेंटलमेन की जगह वेतनभोगी पेशेवरों का आना, लोकप्रियता में टेस्ट मैच क्रिकेट का एकदिवसीय मैचों द्वारा पछाड़ दिया जाना और वैश्विक वाणिज्य व प्रौद्योगिकी में अहम बदलावों का होना। वक्त के साथ परिवर्तन को समझना ही इतिहास का काम है

-यह कहानी 9वी कक्षा की ncert की पुस्तक से ली गई है

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