चार प्रसिद्ध जातक कथाएँ (2023) | jatak kathayen

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एक नजर में जातक कथाएं

जातक या जातक पालि या जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है। इन कथाओं में भगवान बुद्ध की कथायें हैं। जो मान्यता है कि खुद गौतमबुद्ध जी के द्वारा कहे गए है, हालांकि की कुछ विद्वानों का मानना है कि कुछ जातक कथाएँ, गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा कही गयी है। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं में मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।

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अंगुलिमाल जातक कथा (jatak kathayen)

मगध देश के जंगलों में एक खूंखार डाकू का राज हुआ करता था। वह डाकू जितने भी लोगों की हत्या करता था, उनकी एक-एक उंगली काटकर माला की तरह गले में पहन लेता। इसी वजह से डाकू को सभी अंगुलिमाल के नाम से जानते थे।

मगध देश के आसपास के सभी गांवों में अंगुलिमाल का आतंक था। एक दिन उसी जंगल के पास के ही एक गांव में महात्मा बुद्ध पहुंचे। साधु के रूप में उन्हें देखकर हर किसी ने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। कुछ देर उस गांव में रुकते ही महात्मा बुद्ध को थोड़ा अजीब-सा लगा। तभी उन्होंने लोगों से पूछा, ‘आप सभी लोग इतने डरे और सहमे-सहमे से क्यों लग रहे हैं?’

सबने एक-एक करके अंगुलिमाल डाकू द्वारा की जा रही हत्याओं और उंगुली काटने के बारे में बताया। सभी दुखी होकर बोले कि जो भी उस जंगल की तरफ जाता है, उसे पकड़कर वो डाकू मार देता है। अब तक वो 99 लोगों को मार चुका है और उनकी उंगुली को काटकर उन्हें गले में माला की तरह पहनकर घूमता है। अंगुलीमाल के आतंक की वजह से हर कोई अब उस जंगल के पास से गुजरने से डरता है।

इन सभी बातों को सुनने के बाद भगवान बुद्ध ने उसी जंगल के पास जाने का फैसला ले लिया। जैसे ही भगवान बुद्ध जंगल की ओर जाने लगे, तो लोगों ने कहा कि वहां जाना खतरनाक हो सकता है। वो डाकू किसी को भी नहीं छोड़ता। आप बिना जंगल गए ही हमें किसी तरह से उस डाकू से छुटकारा दिला दीजिए।

भगवान बुद्ध सारी बातें सुनने के बाद भी जंगल की ओर बढ़ते रहे। कुछ ही देर में बुद्ध भगवान जंगल पहुंच गए। जंगल में महात्मा के भेष में एक अकेले व्यक्ति को देखकर अंगुलिमाल को बड़ी हैरानी हुई। उसने सोचा कि इस जंगल में लोग आने से पहले कई बार सोचते हैं। आ भी जाते हैं, तो अकेले नहीं आते और डरे हुए होते हैं। ये महात्मा तो बिना किसी डर के अकेले ही जंगल में घूम रहा है। अंगुलिमाल के मन में हुआ कि अभी इसे भी खत्म करके इसकी उंगली काट लेता हूं।

तभी अंगुलिमाल ने कहा, ‘अरे! आगे कि ओर बढ़ते हुए कहां जा रहा है। ठहर भी जा अब।’ भगवान बुद्ध ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया। फिर गुस्से में डाकू बोला, ‘मैंने कहा रुक जाओ।’ तब भगवान ने उसे पलटकर देखा कि लंबा-चौड़ा, बड़ी-बड़ी आंखों वाला आदमी जिसके गले में उंगलियों की माला थी, वो उन्हें घूर रहा था।

उसकी तरफ देखने के बाद बुद्ध दोबारा से चलने लगे। गुस्से में तमतमाते हुए अंगुलिमाल डाकू उनके पीछे अपनी तलवार लेकर दौड़ने लगा। डाकू जितना भी दौड़ता, लेकिन उन्हें पकड़ नहीं पाता। दौड़-दौड़कर वो थक गया। उसने दोबारा कहा, ‘रुक जाओ, वरना मैं तुम्हें मार दूंगा और तुम्हारी उंगली काटकर मैं 100 लोगों को मारने की अपनी प्रतीज्ञा पूरी कर लूंगा।’

भगवान बुद्ध बोले कि तुम अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझते हो न, तो पेड़ से कुछ पत्तियां और टहनियां तोड़कर ले आओ। अंगुलिमाल ने उनका साहस देखकर सोचा कि जैसा ये कह रहा है कर ही लेता हूं। वो थोड़ी देर में पत्तियां और टहनियां तोड़कर ले आया और कहा, ले आया मैं इन्हें।

फिर बुद्ध जी कहने लगे, ‘अब इन्हें दोबारा पेड़ से जोड़ दे।’
यह सुनकर अंगुलिमाल बोला, ‘तुम कैसे महात्मा हो, तुम्हें नहीं पता कि तोड़ी हुई चीज को दोबारा नहीं जोड़ सकते हैं।’

भगवान बुद्ध ने कहा कि मैं यही तो तुम्हें समझाना चाहता हूं कि जब तुम्हारे पास किसी चीज को जोड़ने की ताकत नहीं है, तो तुम्हें किसी वस्तु को तोड़ने का अधिकार भी नहीं है। किसी को जीवन देने की क्षमता नहीं, तो मारने का हक भी नहीं।’

यह सब सुनकर अंगुलिमाल के हाथों से हथियार छूट गया। भगवान आगे बोले, ‘तू मुझे रुक जा-रुक जा कह रहा था, मैं तो कबसे स्थिर हूं। वो तू ही है जो स्थिर नहीं है।’

अंगुलिमाल बोला, ‘मैं तो एक जगह पर खड़ा हूं, तो कैसे अस्थिर हुआ और आप तब से चल रहे हैं।’ बुद्ध भगवान बोले, ‘मैं लोगों को क्षमा करके स्थिर हूं और तू हर किसी के पीछे उसकी हत्या करते हुए भागने की वजह से अस्थिर है।’

यह सबकुछ सुनकर अंगुलिमाल डाकू की आंखें खुल गईं और उसने कहा, ’आज के बाद से मैं कोई अधर्म वाला कार्य नहीं करूंगा।’

रोते हुए अंगुलिमाल डाकू भगवान बुद्ध के चरणों पर गिर गया। उसी दिन अंगुलिमाल ने बुराई का रास्ता छोड़ा और वो बहुत बड़ा संन्यासी बन गया।


कुरुधर्म जातक कथा (jatak kathayen)

श्रावस्ती वासी दो मित्र, भिक्षु हो, उपसम्पदा प्राप्त कर, प्रायः एक साथ रहते थे। एक दिन अचिरवती (नदी) पर जा, स्नान कर, वे किनारे के बालू पर धूप लेते हुए कुशल-क्षेम पूछ रहे थे। उसी समय दो हंस आकाश मार्ग से जा रहे थे। उनमे से छोटे भिक्षु ने कंकड उठाकर कहा-इस हंस -बच्चे की आंख में मारता हूँ।


‘नहीं सकेगा `
‘इस तरफ की बात रहने दो,
दूसरी तरफ की आँख में मारूंगा।’
‘यह तो नहीं हो सकेगा ?


‘तो सब्र करो’ कह तिकोना ककड़ ले, उसने हंस के पीछे फेका। हंस ने ककड़ का शब्द सुन, मुड़कर देखा। तब दूसरा गोल कंकड ले,दूसरी तरफ की आँख में मारकर इधर वाली आँख से निकाल दिया । हंस चिल्लाता हुआ पलट कर उनके पैर मे ही आ गिरा। वहाँ आस-पास खड़े भिक्षुओं ने देख, आकर कहा-आयुष्मान ! बुद्ध के शासन में प्रव्रजित होकर यह जो तुमने प्राणी की हिंसा की, सो अनुचित किया। उसे लेकर तथागत को दिखाया। शास्ता ने पूछा-सचमुच भिक्षु तुमने जीव-हत्या की !
“सचमुच भन्ते !”
‘भिक्षु ! ऐसे कल्याणकारी शासन मे प्रब्रजित होकर तुमने कैसे ऐसा किया ! पुराने पण्डितों ने बुद्ध के पैदा होने के पहले स्त्री सहित घर में रहते समय अल्प-मात्र अनुचित कर्मो के करने मे भी हिचकिचाहट की। (और) तूने इस प्रकार के शासन मे प्रव्रजित होकर जरा भी हिचकिचाहट नहीं की। क्या भिक्षुओं को शरीर, वचन और मन से संयत नहीं होना चाहिए!” ऐसा कह, पूर्वजन्म की कथा कही

अतीत कथा

पूर्व समय में कुरु राष्ट्र में इन्द्र-प्रस्थ नगर में धनञ्जय के राज्य करते समय बोधिसत्व ने उसकी पटरानी की कोख में जन्म ग्रहण किया । क्रमश: बड़े हो तक्षशिला में जाकर शिल्प सीखे। पिता ने उपराज बनाया । आगे चलकर पिता के मरने पर राज्य प्राप्त कर, दस राज-धर्मों के अनुकूल चलते हुये कुरु-धर्मानुसार आचरण किया। कुरुधर्म कहते हैं पाँच शीलों की। बोधिसत्व ने उनका पवित्रता से पालन किया। जिस प्रकार बोधीसत्व ने उसी प्रकार उसकी माता, पटरानी, छोटे भाई उपराजा, ब्राह्मण पुरोहित, रज्जुग्रहण करने वाला अमात्य, सारथी, सेठ, द्रोणमापक महामात्य, द्वारपाल तथा नगर की शोभा गणिका (वैश्या) ने भी पालन किया। इस प्रकार उन्होने:-

राजा माता महेसी च उपराजा पुरोहितो,
रज्जुको सारथी सेठ्ठी दोशो दोवरिको तथा;
गणिका तेकादस जना कुरूधम्मे पतिष्ठ्ठिता ॥

[राजा, माता,पटरानी, उपराजा, पुरोहित, रज्जुग्रहण करने वाला, सारथी, सेठ, द्रोणमापक, द्वारपाल और वैश्या-ये ग्यारह जन कुरुधर्म में प्रीतष्ठित रहे ।। ]

इन सब ने पवित्रता से पाँच शीलों का पालन किया। राजा ने नगर के चारों द्वारों पर, नगर के बीच में और निवास के द्वार पर छ: दानशालाये बनवा प्रति दिन छः लाख धन का त्याग करते हुये सारे जम्बुद्वीप की उन्नादित कर दान दिया । उसकी दानशीलता सारे जम्बुद्वीप में प्रसिद्ध हो गयी ।

उस समय कलिङ्ग राष्ट्र के दन्तपुर नगर मे कालिङ्ग राजा राज्य करता था। उसके राष्ट्र में वर्षा न हुई। वर्षा के न होने से सारे राष्ट्र में अकाल पड़ गया। भोजन का कष्ट और बीमारी फैल गई। दुदृष्टि-भय, अकाल-भय और रोग-भय यह तीनों भय फैल गये। मनुष्य अकिंचन हो बच्चों को हाथों पर ले जहाँ तहाँ घूमते थे । सारे राष्ट्र के निवासियों ने इकट्ट हो दन्तपुर पहुँच राजद्वार पर शोर मचाया ।
राजा ने खिड़की के पास खड़े ही शोर सुनकर पूछा:-यह क्यों चिल्लाते हैं ?

‘महाराज, सारे राष्ट्र में तीन भय उत्पन्न हो गये हैं-वर्षा नहीं होती, खेत नष्ट हो गये हैं, अकाल पड़ गया है, मनुष्य खराब भोजन मिलने से रोगी हो गये हैं और सब कुछ छोड़ केवल पुत्रों को हाथो पर उठाये घूमते हैं। महाराज ! वर्षा बरसाये।”
‘पुराने राजा वर्षा न होने पर क्या करते थे ?
‘पुराने राजा महाराज ! वर्षा न होने पर दान दे, उपोसथ (व्रत ) रख, शील ले, शयनागार में प्रविष्ट हो, एक सप्ताह तक दूब के बिछौने पर लेटे रहते थे। तब वर्षा होती थी।” राजा ने ‘अच्छा’ कह वैसा किया।

ऐसा करने पर भी वर्षा नही हुई । राजा ने अमात्यों से पूछा-“मै ने अपना कर्तव्य किया। वर्षा नहीं हुई। क्या करूं ! ‘महाराज इन्दप्रस्थ नगर में धनञ्जय नामक कुरु-नरेश का अञ्जन वसभ नाम का मङ्गल-हाथी है। उसे लाये। उसके लाने से वर्षा होगी।” ‘वह राजासेना तथा वाहन से युक्त है, दुर्जय है। उसका हाथी कैसे लायेगे ?” ‘महाराज, उसके साथ युद्ध करने की आवश्कयता नही है । राजा दानी है, दान-शील है। माँगने पर अलंकृत शीस भी काट कर दे सकता है। सुन्दर आंखें भी निकाल कर दे सकता है। सारा राज्य भी त्याग सकता है। हाथी का तो कहना ही क्या । माँगने पर अवश्य ही दे देगा।”


‘उससे कौन माँग सकते हैं !”
“महाराज, ब्राह्मण ।”
राजा ने ब्राह्मण-ग्राम से आठ ब्राह्मणो को बुला, सत्कार-सम्मान करके हाथी माँगने के लिए भेजा। उन्होने खर्चा लिया और राही का भेस बना चल दिये। सभी जगह एक ही रात ठहरते हुये, जल्दी जल्दी जा, कुछ दिन नगर-द्वार पर दानशालाओं मे भोजन कर, थकावट उतार पूछा


“राजा दान-शाला में कब आता है ?”


आदमियों ने उत्तर दिया-पक्ष में तीन दिन-चतुर्दशी को, पूर्णिमा को तथा अष्टमी को आता है। कल पूर्णिमा है। इसलिये कल भी आयेगा। ब्राह्मण अगले दिन प्रातः काल ही जाकर पूर्व-द्वार पर खड़े हो गये। बोधिसत्व भी प्रातः काल ही स्नान कर, (चन्दन आदि का) लेपकर, सब अलङ्कारों से अलंकृत हो, सजे हुये श्रेष्ठ हाथी के कन्धे पर चढ़, बहुत से अनुयाइयों के साथ पूर्व-द्वार की दान शाला में पहुँचा। वहाँ उतर, सात आठ जनों को अपने हाथ से भोजन दे: ‘इसी तरह से दो’ कह, हाथी पर चढ़, दक्षिण द्वार को चला गया। ब्राह्मणों को पूर्व-द्वार पर सिपाहियों की अधिकता के कारण मौका न मिला। वे दक्षिण-द्वार पहुँच, राजा को आते देख, द्वार से थोड़ी ही दूर एक ऊँचे स्थान पर खड़े हुये।

जब राजा पास आया तो उन्हों ने हाथ उठाकर राजा की जय-जयकार बुलाई। राजा ने बज्र-अंकुश से हाथी को रोक उन के पास पहुँच पूछा-ब्राह्मणो, क्या चाहते हो ! ब्राह्मणों ने बोधिसत्व का, गुणानुवाद करते हुये पहली गाथा कहीः

तव सद्धञ्च सीलञ्च विदित्वान जनाधिप,
वण्णां श्रञ्जनवण्णेन कालिङ्गस्मिं निमिग्हसे ॥

[ है। जनाधिप। तेरी श्रद्धा और शील की जानकर हम कलिङ्ग-देश में अव्जन वर्ण नाग का सोने से विनिमय करें। ]

भावार्थ है-हे जनाधिप ! हम तेरा शील और श्रद्धा जान यह सोच कर यहाँ आये हैं कि इस प्रकार का अद्धावान् तथा शीलवान राजा मांगने पर अव् जनवर्ण हाथी को दे देगा । फिर हम उस तेरे हाथी को अपने हाथी की तरह कलिङ्ग राजा के पास ले जायेंगे और उसका बहुत धन धान्य से विनिमय करेंगे तथा उस धन-धान्य को पेट में डालेंगे । इस प्रकार सोच कर हे देव ! हम यहां आये हैं। अब जो करना है सो हे देव ! आप जानें।

दूसरा अर्थ:-आपका श्रद्धा-शील वर्ण है, गुण है-मांगने पर पशु का तो क्या कहना, राजा जीवन भी दे दे-सुन कर कलिङ्ग-राज के पास यह अञ्जन वर्ण नाग ले जाकर धन से विनिमय करेंगे, सोच यहाँ आये हैं।

इसे सुन बोधिसत्व ने कहा-हे ब्राह्मणो, यदि इस नाग का विनिमय कर धन का भोग किया तो वह सुभोग है। मत सोच करो। मैं जैसा अलकृत नाग है वैसा ही दूँगा। इस प्रकार आश्वासित कर शेष दो गाथायें कहीं

अन्नभचा च भश्चा च योध उद्दिस्स गच्छति,
सव्वे ते अप्पष्टिक्खिप्पा पुब्बाचरियवचो इद ॥

[अन-भृत्य तथा भृत्य कोई भी हो जो भी (माँगने के) उद्देश से जाते हैं, वे सभी इनकार न करने योग्य हैं। यह (हमारे) पूर्व आचार्यो का वचन है।]

ददामि वो ब्राह्मणा नागमेत
राजारहँ राजभोग्याँ यसस्सिर्न,
अलङ्कर्त हेमजालाभिछन्न’
ससारथिं गच्छथ येन कामं ॥

[हे ब्राह्मणो, मैं तुम्हें यह राजाओ के योग्य, राज-परिभोग्य, यशस्वी, अलकृत तथा स्वर्ण जाली से ढका हुआ हाथी देता हूं। इसका सारथी भी इसके साथ है। जहाँ चाहो (ले) जाओ। ]

इस प्रकार हाथी के कन्धे पर बैठे ही बैठे बोधिसत्व ने वाणी से दान दे दिया। फिर नीचे उतर कर ‘यदि कही हाथी अनलकृत रह गया हो तो उस स्थान को भी अलकृत करके दूंगा’ सोच तीन बार हाथी की प्रदक्षिणा करके देखा। अनलकृत स्थान नहीं दिखाई दिया। तब उसने हाथी की सूण्ड को ब्राह्मणों के हाथ मे दे, स्वर्ण की झारी से सुगन्धित जल गिरा, हाथी दे दिया।
ब्राह्मणो ने अनुयाइयों सहित हाथी को स्वीकार कर, हाथी की पीठ पर बैठ, दन्तपुर-नगर पहुँच, हाथी राजा को दिया।
हाथी के आने पर भी वर्षा नहीं हुई। राजा ने पूछा-अब क्या कारण है !
‘कुरुराज धनञ्जय कुरुघर्म पालता है। इसलिये उसके राष्ट्र मे पन्द्रहवें दिन, दसवे दिन वर्षा होती है। यह राजा के ही गुणों का प्रताप है। इस पशु मे गुण होने पर भी आखिर कितने गुण हो सकते हैं ?”

“तो अनुयाइयों सहित इस सजे सजाये हाथी को वापिस ले जाकर राजा को दो; वह जिस कुरुधर्म का पालन करता है, वह सोने की तख्ती पर लिखवा कर लाओ” कह ब्राह्मणों और अमात्यो को भेजा। उन्होंने जाकर राजा को हाथी सौप कर निवेदन किया-देव ! इस हाथी के जाने पर भी हमारे देश में वर्षा नहीं हुई।

आप कुरुधर्म का पालन करते हैं। हमारा राजा भी कुरुधर्म का पालन करना चाहता है। उसने हमें भेजा है कि इस सोने की तख्ती पर कुरुधर्म लिखवा कर ले आओ। हमें कुरुधर्म दें।

‘तात ! मैंने सचमुच कुरुधर्म का पालन किया है। लेकिन अब मेरे मन में उसके बारे में अनुताप है। इस समथ कुरुधर्म मेरे चित्त को प्रसन्नता नहीं देता है। इस लिये तुम्हें नहीं दे सकता हूँ।”

राजा का शील उसके चित्त को प्रसन्नता क्यों नहीं देता था ?
उस समय प्रति तीसरे वर्ष कार्तिकमास में कार्तिकोत्सव नाम का उत्सव होता था । उस उत्सव को मनाते हुये राजागण सब अलङ्कारों से सज, देवताओं का भेस बना, चित्र-राज नामक यज्ञ के पास खड़े हो, चारों ओर फूलों से सजे हुये चित्रित-बाण फेंकते थे । इस राजा ने भी वह उत्सव मनाते समय एक तालाब के किनारे के चित्रराज के पास खड़े होकर चारों और चित्रित बाण फेंके । शेष तीन और फेंके बाण दिखाई दिये ।

तालाब के तल पर फेंका बाण न दिखाई दिया। राजा के मन में अनुताप हुआ कि कहीं मेरा फेंका बाण मछली के शरीर में तो नहीं चला गया ? प्राणी की हिंसा होने से शील-भेद हो गया । इसलिये शील (मन की) प्रसन्न नहीं करता था।
उसने कहा-तात ! मुझे कुरुधर्म के प्यारे में अनुताप है। लेकिन मेरी माता ने उसे अच्छी तरह पालन किया है। उससे ग्रहण करो।

‘महाराज ! मैं जीवहिंसा करूंगा, यह आपकी चेतना नहीं थी। बिना चित्त के जीवहिंसा नहीं होती। आपने जिस कुलधर्म का पालन किया है, वह हमें दें।”
‘तो लिखो” कह सोने की तख्ती पर लिखवाया-जीवहिंसा नहीं करनी चाहिये । चोरी नहीं करनी चाहिये । कामभोगा सम्बन्धी मिथ्या-चार नहीं करना चाहिये। झूठ नहीं बोलना चाहिये । मद्यपान नहीं करना चाहिये।


लिखवा कर भी कहा कि ऐसा होने पर भी मेरा चित्त संतुष्ट नहीं है, मेरी माता के पास से ग्रहण करो। दूतों ने राजा को प्रणाम कर उनकी माता के पास जाकर कहा-देवी ! आप कुरुधर्म की रक्षा करती हैं । उसका उपदेश हमें दें।

‘तात! मैं सचमुच कुरुधर्म का पालन करती हूँ, लेकिन अब मेरे मन में उसके बारे मे अनुताप है। मुझे वह धर्म प्रसन्न नही करता, इस लिए तुम्हें नहीं दे सकती ?


उसके दो पुत्र थे, ज्येष्ठ पुत्र राजा था, कनिष्ठ उपराजा। एक राजा ने बोधिसत्व के पास लाख के मूल्य का चन्दनसार और हजार के मूल्य की सोने की माला भेजी। उसने ‘माता की पूजा करूंगा? सोच वह सब माता को दे दी। माँ ने सोचा, न मै चन्दन का लेप करती हूँ , न माला पहनती हूँ, मै ये अपनी पतोहू को दूगी। फिर उसे ख्याल हुआ कि उसकी ज्येष्ठ-पतोहू ऐश्वय्र्यवान् है, पटरानी है, इसलिए उसे सोने की माला देगी और कनिष्ठ पतोहू दरिद्र है, इसलिये उसे चन्दनसार देगी। उसने राजा की रानी को सोने की माला दे उपराज की भार्या को चन्दनसार दिया। लेकिन दे चुकने पर उसे ख्याल आया-मै तो कुरुधर्म का पालन करनेवाली हूँ। इन दोनों मे कौन दरिद्र है, कौन अदरिद्र, इससे मुझे क्या ! मुझे तो जो बड़ी हो उसी का अधिक आदर करना योग्य है। कही उसके न करने के कारण मेरा शील भंग तो नहीं हो गया ? उसके मन में इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न हुआ। इसीलिए ऐसा कहा।

दूतों ने उत्तर दिया-अपनी वस्तु यथारुचि दी जाती है। तुम ऐसी बात मे भी सन्देह करती हो, तो तुमसे दूसरा क्या पाप-कर्म हो सकता है ? शील इस तरह भंग नहीं होता। हमे कुरु-धर्म दे । उस से भी कुरुधर्म ले सोने की तख्ती पर लिखा।
‘तात । ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नही है। मेरी पतोहू कुरुधर्म का पालन अच्छी तरह करती है। उससे कुरुधर्म ग्रहण करे।”

उन्होने पटरानी के पास जा, पूर्वोक्त ढग से कुरुधर्म की याचना की। उसने भी पूर्वोक्त ही की तरह कहा-अब मेरा शील मुझे प्रसन्न नहीं करता। इसलिये नही दे सकती ।


उसने एक दिन झरोखे मे बैठे-बैठे राजा के नगर की प्रदक्षिणा करते समय हाथी की पीठ पर उसके पीछे बैठे हुए उपराज को देख लोभायमान हो सोचा-यदि मै इसके साथ सहवास करूं तो भाई के मरने पर राज्य पर प्रतिष्ठित हो यह मेरी सेवा करेगा।


तब उसे ध्यान आया मैंने कुरुधर्म का पालन करने वाली होकर स्वामी के रहते, दूसरे पुरुष की ओर बुरी दृष्टि से देखा। मेरा शील भंग हो गया होगा। उसके मन में यह सन्देह पैदा हुआ। इसीलिये उसने ऐसा कहा।
दूतों ने उत्तर दिया-आर्ये ! चित्त में ख्याल आने मात्र से दुराचार नहीं होता । तुम ऐसी बात में भी सन्देह करती हो तो तुममे उल्लघन कैसे हो सकता है ? इतने से शील भंग नहीं होता। हमें कुरुधर्म दें। उससे भी कुरुधर्म ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिखा ।


‘तात’ l ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नहीं है। उपराजा अच्छी तरह पालन करता है। उनमे ग्रहण करें।” उन्होंने उपराजा के पास जा पूर्वोक्त प्रकार ही कुरुधर्म की याचना की !


वह सन्ध्या समय राजा की सेवा में जाता हुआ, रथ पर ही बैठा, राजानन में पहुँच, यदि राजा के पास खाकर वहीं सो रहना चाहता तो रस्सी और चाबुक की धुरी के अंदर रख देता था। उस इशारे से आदमी लौट कर अगले दिन प्रात:काल ही उसके बाहर निकलने की प्रतिक्षा करते हुए खड़े रहते। यदि उसी समय लौटने की इच्छा होती तो रस्सी और चाबुक को रथ में ही छोड कर राजा से भेंट करने जाता ।

आदमी उससे यह समझ कर कि अभी लौटेगा राजद्वार पर ही खड़े रहते ! वह एक दिन ऐसा करके राजमहल में गया। उसके जाते ही वर्षा होने लगी। राजा ने ‘वर्षा हो रही है कह उसे लौटने नही दिया। यह वहीं खाकर सो गया। लोग ‘अब निकलेगा? सोच प्रतीक्षा करते हुए सारी रात भीगते खड़े रहे। उपराज ने दूसरे दिन निकल जब लोगो को भीगे खड़े देखा तो वह सोचने लगा-मैं तो कुरुधर्म का पालन करता हूँ और मैंने इतने लोगों को कष्ट दिया। मेरा शील भंग हो गया होगा। इसी सन्देह के कारण उसने दूतों को कहा-मैं सचमुच कुरुधर्म का पालन करता हूँ। लेकिन इस समय मेरे मन में सन्देह पैदा हो गया है। इसलिये मैं कुरुधर्म (का उपदेश) नहीं दे सकता।


‘देव ! इन लोगों की कष्ट हो, यह तुम्हारी चेतना नहीं रही है। बिना चित के कर्म नहीं होता। इतनी सी बात में भी जब आप सन्देह करते हैं, तो आपसे उल्लघन कैसे हो सकता है । दूतों ने उस से भी शील ग्रहण कर उन्हे सोने की पट्टी पर लिख लिया।


‘‘ऐसा होने पर भी मेरा चित प्रसन्न नही है। पुरोहित अच्छी तरह पालन करता है। उससे ग्रहण करे।”
उन्होंने पुरोहित से जाकर याचना की। वह भी एक दिन राजा की सेवा में जा रहा था। उसने रास्ते मे देखा कि एक राजा ने उसके राजा के पास मध्याह सूर्य की तरह लाल वर्ण का रथ भेजा है। ‘यह रथ किस का है ” पूछने पर उत्तर मिला, ‘राजा के लिये लाया गया है।”पुरोहित के मन में विचार पैदा हुआ-मै बूढ़ा हूँ। यदि राजा यह रथ मुझे दे दे तो मै इस पर चढ कर सुखपूर्वक घूमू। यह सोच, वह राजा की सेवा मे पहुँचा।

उसके राजा की जय बुला कर खड़े होने के समय वह रथ राजा के सामने लाया गया। राजा ने देख कर कहा-यह रथ बहुत सुन्दर है। इसे आचार्य को दे दो। पुरोहित ने लेना स्वीकार नही किया। बार बार कहने पर भी अस्वीकार ही किया।
ऐसा क्यों हुआ ? वह सोचने लगा-मै कुरुधर्म का पालन करने वाला हूँ। मैने दूसरे की वस्तु के प्रति लोभ पैदा किया। मेरा शील भंग हो गया होगा। उसने यह बात सुना कर कहा-


तात ! कुरुधर्म के प्रति मेरे मन में सन्देह है। मेरा मन उससे प्रसन्न नहीं है। इसलिये मैं नहीं दे सकता हूँ। ‘आर्य! केवल (मन में) लोभ उत्पन्न होने मात्र से शील भंग नही होता। आप इतनी सी बात में भी सन्देह करते हैं। आपसे क्या उल्लघन हो सकेगा ?


दूतों ने उससे भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिख लिये। ‘‘ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नहीं है। रस्सी पकड़ने वाला अमात्य अच्छी तरह पालन करता है। उससे ग्रहण करे ।” उसके पास भी पहुँच याचना की। वह भी एक दिन जनपद में खेत की गिनती कर रहा था। डण्डे में बँधी हुई रस्सी का एक सिरा खेत के मालिक के पास था, एक उसके पास। जिस सिरे को उसने पकड़ रखा था उस सिरे की रस्सी से बँधा हुआ डण्डा एक केकड़े के बिल पर आ पहुँचा। वह सोचने लगा-यदि डण्डे को बिल में उतारूंगा, तो बिल के अन्दर का केकड़ा मर जायगा। यदि डंडे को आगे की सरका दूंगा ती राजा का हक मारा जायगा। यदि पीछे की और करूंगा तो ग्रहस्थ का हक मारा जायगा।


क्या किया जाये ? तब उसे सुझा, यदि बिल में केकड़ा होगा तो प्रगट होगा । डंडे को बिल में ही उतारूंगा। उसने डंडा बिल में उतार दिया। केकड़े ने `किरी` आवाज की। तब उसे चिन्ता हुई-डंडा केकड़े की पीठ में घुस गया होगा और केकड़ा मर गया होगा। मैं कुरुधर्म का पालन करता हूँ। मेरा शील भंग हो गया होगा । उसने यह बात सुना कर कहा- इस कारण कुरुधर्म के प्रति मेरे मन में सन्देह है। इसलिये तुम्हें नहीं दे सकता हूँ। ‘आपकी यह इच्छा नहीं थी कि केकड़ा मरे। बिना चेतना का कर्म नहीं होता । इतनी बात में भी आप सन्देह करते हैं। आपसे कैसे उल्लंघन हो सकता है !” दूतों ने उससे भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिख लिये।


‘‘ऐसा होने पर भी मेरा मन प्रसन्न नहीं है। सारथी अच्छी तरह रक्षा करता है। उससे भी प्रहण करें ।”


उन्होंने उसके पास भी पहुँच याचना की। वह एक दिन राजा को रथ से उद्यान ले गया। राजा वहाँ दिन भर क्रीड़ा कर शाम को निकल कर रथ पर चढ़ा । नगर में पहुँचने से पहले ही सूयस्ति के समय बादल घिर आये। सारथी ने राजा के भीगने के डर से घोड़ों को चाबुक दिखाया। सिन्धव घोड़े तेज़ी से दौड़े। तब से घोड़े उद्यान जाते और लौटते समय भी उस स्थान पर पहुँच, तेजी से दौड़ने लगते। क्यों ? उनको ख्याल हो गया कि इस स्थान पर खतरा होगा, इसीलिये सारथी ने हमें इस स्थान पर चाबुक दिखाया था।

सारथी को भी चिन्ता हुई-राजा के भीगने वा न भीगने से मुझ पर दोष नहीं आता। लेकिन मैंने सुशिक्षित सिन्धव घोड़ों को चाबुक दिखाने की गलती की। इसलिये अब यह आते-जाते भागने का कष्ट उठाते हैं। मैं कुरुधर्म का पालन करता हूं। वह मेरा भंग हो गया होगा । उसने यह बात सुना कर कहा-इस कारण मेरे मन में कुरुधर्म के प्रति सन्देह है। इसलिये नहीं दे सकता ।


‘आप की यह इच्छा नहीं थी कि सिन्घव घोड़े कष्ट पायें। बिना चेतना के कर्म नहीं होता। इतनी बात में भी आप मन मैला करते हैं। आपसे कैसे उल्लंघन हो सकेगा?


दूतों ने उस से शील ग्रहण कर उन्हे सोने की पट्टी पर लिख लिया। ‘‘ऐसा होने पर भी मेरा मन प्रसन्न नही है। सेठ अच्छी तरह रक्षा करता है। उस से ग्रहण करे ।’


उन्होंने सेठ के पास भी पहुँच कर याचना की। वह भी एक दिन जब धान की बल्ली निकल आई थी, अपने धान के खेत में पहुँचा। देखकर उसने सोचा कि धान को बँधवाऊँगा और धान की एक मुट्ठी पकडवाकर खम्बे से बंधवा दी । तब उसे ध्यान आया-इस खेत में से मुझे राजा का हिस्सा देना है। बिना राजा का हिस्सा दिये गये खेत मे से ही, मैने धान की मुट्ठी लिवाई। मैं कुरुधर्म का पालन करता हूँ। वह भंग हो गया होगा। उसने यह बात सुना कर कहा-इस कारण मेरे मन मे कुरुधर्म के प्रति सन्देह है। इसलिये नहीं दे सकता हू।


‘‘आपकी चोरी की चेतना नहीं थी। बिना उसके चोरी का दोष नहीं
घोपित किया जा सकता। इतनी सी बात मे भी सन्देह करने वाले आप किसी की क्या चीज ले सकेगे !
दूतों ने उससे भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिखा।


‘‘ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नही है। दोणमापक महामात्य अच्छी तरह पालता है। उस से ग्रहण करें।”
उन्होने उसके पास भी पहुँच कर याचना की। वह एक दिन कोठी के द्वार पर बैठा राजा के हिस्से के धान की गिनती करा रहा था। बिना मापे गये धान के ढेर मे से धान लेकर उसने चिह्न रख दिया। उस समय वर्षा आ गई। महामात्य ने चिन्ह को गिन कर ‘मापे गये धान इतने हुए कह, चिन्ह के धान बटोर, मापे गये धान मे डाल दिये।

फिर जल्दी से कोठी के द्वार पर पहुँच, खडा हो सोचने लगा-क्या मै ने चिन्ह के धान, मापे गये खेत में फेके वा बिना मापे गये ढेर मे ? यदि मापे गये ढेर मे तो मैंने अकारण ही राजा के हिस्से को बढ़ा दिया और किसानों के हिस्से की हानि की। मै कुरुधर्म का पालन करता हू। वह भंग हो गया होगा। उसने यह बात सुना कर कहा-इस कारण मेरे मन मे कुरुधर्म के प्रति सन्देह है। इस लिये नही दे सकता हूं।

‘‘आपकी चोरी की चेतना नहीं थी। बिना उसके चोरी का दोष घोषित नहीं किया जा सकता। इतनी सी बात में भी सन्देह करने वाले आप किसी की क्या चीज ले सकेंगे।” दूतों ने उस से भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिखा।
‘ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नहीं है। द्वार-पाल अच्छी तरह पालन करता है। उस से ग्रहण करें।”

उन्होंने उसके पास भी पहुँच कर याचना की। उसने भी एक दिन नगर-द्वार बन्द करने के समय तीन बार घोषणा की थी । एक दरिद्र मनुष्य अपनी छोटी बहिन के साथ लकड़ी-पत्ते लेने के लिये जंगल गया था । लौटते समय उसकी आवाज सुनकर बहन की ले शीघ्रता से अन्दर आया। द्वार-पाल बोला- तू नहीं जानता कि नगर में राजा है ! तू नहीं जानता कि समय रहते ही इस नगर का द्वार बन्द हो जाता है ! अपनी स्त्री को ले जंगल में रति-क्रीड़ा करता घूमता है। उसने उत्तर दिया-स्वामी ! यह मेरी भार्या नहीं है। यह मेरी बहिन है। तब द्वार-पाल चिन्तित हुआ-मैंने बहिन को भार्या बना दिया। यह मुझसे अनुचित हुआ । मैं कुरुधर्म का पालन करता हूँ। वह मेरा भंग हो गया होगा। यह बात सुनाकर उसने कहा-इस बात से मेरे मन में कुरुधर्म के प्रति सन्देह है। इसलिये नहीं दे सकता हूँ।

‘आपने जैसा समझा, वैसा कहा। इससे शील भंग नहीं होता। इतनी बात के लिये भी आप अनुताप करते हैं तो आप कुरुधर्म का पालन करते हुए जान-बूझ कर झूठ क्या बोलेंगे ? दूतों ने उससे भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिखा।


‘‘ऐसा होने पर भी मेरा चित्त प्रसन्न नहीं है। कुरुधर्म का वेश्या अच्छी तरह पालन करती है। उससे ग्रहण करें।”

उससे भी याचना की। वेश्या ने भी पुर्वोक्त प्रकार से ही मना किया। क्यों ? देवेन्द्र शक्र उसके सदाचार की परीक्षा लेने के लिये तरुण का भेस धारण कर आया, और यह कह कर कि मैं आऊँगा एक सहस्र देकर देव-लोक को ही चला गया। वह तीन वर्ष तक नहीं लौटा। उसने अपने शील के भंग होने के डर से तीन वर्ष तक किसी दूसरे आदमी से पान तक भी नहीं ग्रहण किया। क्रमशः जब वह अति-दरिद्र हो गई, तब सोचने लगी-मुझे सहस्र देकर गया आदमी तीन वर्ष तक नही आया । मैं दरिद्र हो गई हूँ। जीवन-यापन नहीं कर सकती हूँ। अब मुझे न्यायाधीश अमात्य के पास जाकर खर्चा लेना चाहिये ।

उसने न्यायालय में जाकर निवेदन किया स्वामी ! जो आदमी मुझे खर्चा देकर गया, वह तीन वर्ष से नही लौटा। यह भी नहीं जानती कि वह जीता है या मर गया । मै अब जीवन-यापन नही कर सकती हूँ। क्या करूं ! तीन वर्ष तक भी नही आया, तो क्या करेगी? अब से खर्च लिया कर। उसके फैसला सुन कर न्यायालय से निकलते ही एक आदमी एक सहस्र की थैली लाया । उसे लेने के लिये हाथ पसारने ही के समय इन्द्र प्रकट हुआ। उसने देखते ही हाथ खीच लिया और बोली-मुझे तीन साल पहले हजार देने वाला आदमी आ गया ।

मुझे तेरे कार्षापणी की जरूरत नहीं है। शक्र अपना ही रूप धारण कर मध्यान्ह सूर्य की तरह चमकता हुआ आकाश मे खड़ा हुआ। सारा नगर इकट्ठा हो गया। तब शक्र ने जनता को सबोधन कर कहा-मैने इसकी परीक्षा लेने के लिये तीन वर्ष हुए इसे हजार दिये थे। शील की रक्षा करनी हो तो इस की तरह रक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार उपदेश दे, उसके घर को सातो रत्नो से भर, शक्र ‘अब से अप्रमादी होकर रहना कह देवलोक को चला गया । इस कारण उसने मना किया कि मैने लिये खचे को बिना भुगताये दूसरे से प्राप्त होने वाले खर्चे के लिये हाथ पसारा । इससे मेरा शील मुझे प्रसन्न नही करता । इसी से तुम्हे नहीं दे सकती।


‘हाथ पसारने मात्र से शील भंग नही होता । आपका शील परम परिशुद्ध शील है। दूतों ने उससे भी शील ग्रहण कर सोने की पट्टी पर लिखे।

इस प्रकार इन ग्यारह जनो द्वारा पालन किया गया शील सोने की पट्टी पर लिख, दन्तपुर पहुँच, कलिङ्ग नरेश को सोने की पट्टी दे, सब हाल सुनाया। राजा ने उस कुरुधर्म मे स्थित हो पाँच शीलो को पूर्ण किया। उस समय सारे कलिङ्ग राष्ट्र मे वर्षा हुई। तीनों भय शान्त हो गये। राष्ट्र का कल्याण हो गया। पैदावार खूब हुई।


बोधिसत्व जीवन पयर्थन्त दान आदि पुण्य करके अनुयायियों सहित स्वर्ग-गामी हुए । शास्ता ने यह धर्मदेशना ला (आर्य-) सत्यों को प्रकाशित कर जातक का मेल बैठाया। सत्यों के अन्त में कई श्रोतापन्न हुये, कोई सकदागामी हुए, कोई अनागामी हुए तथा कोई अरहंत हुए।
कथा के अंत में भगवान ने जातक का मेल बैठाया ।

गणिका उपखवण्णा च पुण्षो दोवारिको तदा,
रज्जुगाही च कद्यानो दोष्णभाता च कोक्षिती II
सारिपुतो तदासेटिंठ अनुरुदो च सारथी,
श्राह्मणो कस्सपो थेरो उपराजा नन्द-पण्डिती ।
महेसी राहुलमाता मायादेवी जनेतिया,
कुरुराजा बोधिसत्तो एवं धारेथ जातकं ॥

उस समय की वैश्या उत्पलवणा थी, द्वारपाल पुण्ण था। रज्जु पकड़ने वाला कच्चान था, द्रोण मापने वाला कोलित था । सेठ सारिपुत्र था। सारथी अनुरुद्ध था। ब्राह्मण कस्सप स्थविर थे । उपराजा नन्द-पण्डित थे। पटरानी राहुल-माता थी। और जननी मायादेवी थी। कुरुराजा स्वयं (मै ही था ) बोधिसत्व थे। इस प्रकार जातक को समझे।


बंजारा जातक कथा (jatak kathayen)

प्राचीन समय की बात है. उस समय बोधिसत्व ने एक बंजारे के घर में जन्म लिया और उम्र बढ़ने के साथ ही एक सफल व्यापारी बन गए. कुछ समय तक आस-पास के क्षेत्र में व्यापार करने के बाद उन्हें बड़े सौदे के लिए प्रख्यात काशी नगर जाने का विचार बनाया. उस वक्त काशी ही व्यापार का बड़ा केन्द्र हुआ करता था.

उस वक्त के सबसे बड़े व्यापारी काशी जाकर ही अपने सामान की खरीद-फरोख्त किया करते थे. बोधिसत्व ने काशी जाने के लिए पांच सौ आदमियों और इतने ही छकड़ों का एक झुंड तैयार किया. वे रवाना होने ही वाले थे कि उन्हें पता लगा कि एक और बंजारे का बेटा इतने ही लोगों के दल के साथ काशी जा रहा है.

बोधिसत्व ने सोचा कि अगर इतने बड़े दो दल एक साथ जाएंगे तो न तो मार्ग में पूरा खाने को मिलेगा और न ही पीने को पानी मिलेगा. ऐसे में उन्होंने बंजारे के बेटे के पास जाकर अनुरोध किया कि या तो वह आगे जाए या फिर उन्हें आगे जाने दे.

बंजारे के बेटे ने सोचा कि आगे जाने में लाभ ही लाभ है. पानी के सोते भरे हुए मिलेंगे और बैलों को खाने के लिए उगी हुई घास मिलेगी. साथ ही पहले पहुंचने से सौदा करने के ज्यादा मौके मिलेंगे तो आगे जाना ही श्रेष्ठ होगा. बंजारे के बेटे ने बोधिसत्व से कहा कि वह ही आगे जाएगा. बोधिसत्व मुस्कुराए और उत्तर दिया कि जैसी ईश्वर की इच्छा, तुम्हारे अनुभव से मुझे लाभ होगा.

बंजारे का बेटा आगे निकला और चलते-चलते उसके सामने एक बड़ा रेगिस्तान आ गया, जहां दूर-दूर तक पानी नहीं था. अपने दल को प्यासे मरने से बचाने के लिए बंजारे के बेटे ने छकड़ों का माल खाली करवा कर मटको में पानी भरवाया और रेगिस्तान को पार करने के लिए सफर की शुरूआत कर दी.

उस रेगिस्तान पर कुख्यात डाकुओं का अधिपत्य था जो व्यापारी दलों को लूटने और उनकी हत्या के लिए जाने जाते थे. जब डाकुओं को पता लगा कि बंजारे का बेटा 500 लोगों के दल के साथ है तो उनकी हिम्मत टूट गई क्योंकि इतने बड़े दल से लड़ने के उनके पास आदमी नहीं थे. डाकुओं के सरदार ने अपने दल को आश्वस्त किया कि घबराने की जरूरत नहीं है.

डाकुओं के सरदार ने योजना बनाई कि उसके साथी अपने आप को पूरी तरह गीला कर लेंगे और अपने बैलों को कमल और कुमुदनी की घास खिलाते हुए बंजारे के बेटे के दल के पास से गुजरेंगे. डाकुओं ने ऐसा ही किया और जब वे बंजारे के बेटे के दल के पास से गुजरे तो बंजारे के बेटे ने उनसे भीगे होने का कारण पूछा. डाकूओं के सरदार ने बताया कि आगे बहुत तेज बरसात हो रही है इस वजह से वे सब भीग गए हैं.

बंजारे के बेटे ने को डाकुओं के सरदार ने यह भी बताया कि आगे हरित प्रदेश है जहां के तालाब में कमल और कुमुदनी खिली हुई है और इसी वजह से उसके बैल कमल और कुमुदनी के पते खा रहे हैं. आप चाहे तो इन मटकों के पानी को गिरा सकते हैं और हल्के होकर तेजी से यात्रा कर सकते हैं और जल्दी सौदा करके मुनाफा कमा सकते हैं.

बंजारे के बेटे को उनकी बात जम गई और उसने सभी मटको का पानी फिंकवा दिया. कुछ दूर तक चलने के बाद सबको प्यास लग गई लेकिन हरित प्रदेश नहीं आया. शाम होते-होते सारा दल प्यास से त्रस्त और कमजोर हो गया. रात को डाकुओं ने इस दल पर हमला करके सबकी हत्या कर दी और सामना लूट लिया. बंजारा का बेटा मारा गया.

बोधिसत्व भी यात्रा करते-करते रेगिस्तान के मुहाने तक आ गए और उन्होंने भी आगे की यात्रा के लिए मटको में पानी भरवा कर यात्रा शुरू की. डाकुओं के सरदार ने उन भी यही तरकीब आजमाई और उन्हें मटकों का पानी फेंकने के लिए कहा.

डाकुओं के जाने के बाद जब बोधिसत्व के आदमियों ने मटको का पानी फेंकने के लिए बोधिसत्व से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि क्या तुम सबने कभी बरसता देखी है. दल ने हां में उत्तर दिया. तो बताओं की उसकी हवा कितनी दूर तक चलती है. दल ने जवाब दिया, एक योजन तक.

बोधिसत्व ने पूछा क्या तुमने में से किसी ने भी अपने शरीर पर बरसता की हवा को महसूस किया. दल ने ना में सिर हिलाया.

बोधिसत्व ने फिर पूछा कि बरसात के बादल कितनी दूर तक दिखाई देते हैं. दल ने उत्तर दिया, दो योजन तक. क्या तुम में से किसी को भी आकाश में बादल दिखाई दे रहे हैं. दल ने ना में सिर हिलाया.

बोधिसत्व ने पूछा कि बरसात के बादलो की गड़गड़ाहट कितनी दूर तक सुनाई देती है तो दल ने उत्तर दिया, तीन योजन तक. क्या तुम में से किसी को बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी. दल का उत्तर ना था.

बोधिसत्व ने दल को समझाया कि वे व्यापारी नहीं थे, वे डाकू थे और वे आज रात को हमला करेंगे. रात को दल डाकुओं के हमले के लिए तैयार था और डाकू जैसे ही आए, दल ने उनका खात्मा कर दिया और उस रेगिस्तान को डाकुओं के आतंक से आजाद करवाया.


स्वर्ण मृग जातक कथा (jatak kathayen)

प्राचीन काल में काशी में ब्रहमदत्त नाम का राजा राज्य करता था. उसी समय वन प्रदेश में एक अत्यंत सुन्दर मृग था जिसका शरीर सोने के रंग का था. उसकी आँखें रत्नों की भाँति चमकती थीं और उसके सींग चांदी के जैसे सफ़ेद थे. लोग उस मृग को स्वर्ण मृग कहते थे. उसके साथ लगभग पांच सौ अन्य मृगों और मृगियों का झुण्ड भी रहता था. 

निकट के ही वन में मृगों का एक और झुण्ड रहता था. उनके सरदार का रंग भी सोने जैसा था और उसे शाखा मृग के नाम से जाना जाता था. 

काशी के राजा को आखेट करना बहुत पसंद था और अक्सर वे अपने दलबल के साथ वन प्रदेश में आखेट करने को चले जाया करते थे. राजा के इस तरह कई कई दिनों के लिए वन में चले जाने से राजकाज प्रभावित होता था. 

एक मंत्रियों ने सोचा क्यों न राजा के आखेट की व्यवस्था काशी नगर के पास ही कर दी जाए. उन्होंने एक बड़ा सा उद्यान बनवाया जिसमें मृगों आदि पशुओं के लिए चारे और पानी की व्यवस्था की और वन से मृगों के झुंडों को उद्यान में हांक लाये. उन मृगों में स्वर्ण मृग भी था. 

अब राजा उस उद्यान में ही आखेट के लिए जाने लगा. एक दिन उसने स्वर्ण मृग को देखा और उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर उसे अवध्य घोषित कर दिया अर्थात कोई उसका शिकार नहीं कर सकता था. किन्तु अन्य साधारण मृगों का शिकार अब भी जारी रहा. 

तब बोधिसत्व (स्वर्ण मृग) ने मृगों की प्राणरक्षा के लिए एक उपाय निकाला. उसने शाखा मृग को बुलाकर सलाह की कि आखेट की यह प्रथा बंद होनी चाहिए, क्योंकि इसमें नित्य ही कई मृग मारे जाते थे और कई घायल हो जाते थे. 

दोनों मृग सरदारों ने निश्चय किया कि क्यों न राजा के आखेट के समय एक मृग उसके सामने भेज दिया जाए जिसे मारकर राजा का आखेट का शौक पूरा हो जाए और अन्य मृग व्यर्थ प्राण देने और घायल होने से बच जाएँ. 

इस तरह बारी – बारी से एक मृग नित्य ही राजा के सामने आने लगा जिससे राजा का हिरणों के पीछे भागने और घात लगाने का श्रम और समय बचने लगा तथा मृगों की प्राणरक्षा भी होने लगी. 

एक दिन एक गर्भिणी हिरनी की आखेट भूमि पर जाने की बारी थी. वह स्वर्ण मृग के पास गई और बोली – “मैं गर्भवती हूँ, आप मेरे स्थान पर किसी अन्य को आखेट भूमि पर भेजने की व्यवस्था कर दें अन्यथा मेरे पेट में जो बच्चा है वह निर्दोष ही मारा जाएगा.” 

शाखा मृग भी वहीं था. उसने मृगी की बात सुनकर कहा – “नहीं, तुम्हारे स्थान पर और कोई नहीं जा सकता. जो  व्यवस्था बनाई गई है उसे भंग नहीं किया जा सकता. और फिर तुम्हारे स्थान पर जाकर समय से पूर्व मरने को कौन मृग तैयार होगा ?”

स्वर्ण मृग मृगी की वेदना से व्यथित हो गया. उसने कहा – “तू निर्भय होकर जा और समय पर अपने बच्चे को जन्म दे. मैं कोई दूसरी व्यवस्था कर लूँगा.” यह सुनकर मृगी प्रसन्न होकर चली गई. 

दूसरे दिन आखेट भूमि में मृगी के स्थान पर स्वर्ण मृग स्वयं आकर खड़ा हो गया. राजा ने आकर जब वहाँ स्वर्ण मृग को देखा तो कहा – “हे मृगराज ! मैंने तुम्हारे रूपगुण से प्रभावित होकर तुम्हें अभयदान दिया था. फिर तुम्हारे यहाँ आखेट भूमि में आने का क्या कारण है ?”

स्वर्ण मृग ने कहा – “हे राजन ! आज यहाँ आने की जिस मृगी की बारी थी वह गर्भवती है. वह चाहती थी कि उसके स्थान पर किसी दूसरे को भेजने की व्यवस्था की जाए अन्यथा उसके गर्भ में स्थित बच्चा निर्दोष ही मारा जाएगा. अतएव उसकी प्राणरक्षा हेतु मैं स्वेच्छा से स्वयं को अर्पित कर रहा हूँ.”

राजा स्वर्ण मृग की बात सुनकर बहुत प्रभावित हुआ. बोला – “हे स्वर्ण मृग ! दूसरों की प्राणरक्षा के लिए अपने प्राण अर्पित करने वाला तो मैंने कोई व्यक्ति मनुष्यों में भी नहीं देखा है. तुम धन्य हो. मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारे साथ उस मृगी को भी अभयदान देता हूँ.”

स्वर्ण मृग ने कहा – “राजन ! दो की प्राण रक्षा से क्या होगा ? शेष तो मृत्यु मुख में जायेंगे ही !”

राजा ने कहा – “ऐसी बात है तो मैं सभी मृगों को अभयदान देता हूँ. आज से मैं या मेरा कोई आदमी किसी मृग को नहीं मारेगा.”

स्वर्ण मृग ने कहा – “हे राजन ! आप सचमुच दया के सागर हैं. किन्तु आपके वचन से सिर्फ मृगों की प्राणरक्षा होती है. अन्य चौपाये तो फिर भी वध किये जायेंगे.”

राजा ने कहा – “हे मृगराज ! तुमसे बड़ा लोक-कल्याण-कामी मैंने अपने जीवन में नहीं देखा. तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं सम्पूर्ण जीवों को अभय देता हूँ. आज से मेरे राज्य में अब किसी भी प्रकार का कोई आखेट नहीं होगा.”

इस प्रकार स्वर्ण मृग के रूप में मौजूद बोधिसत्व ने राजा से समस्त जीवों को अभयदान दिला दिया और वापस वन को चले गए. 

समय आने पर मृगी ने एक सुन्दर शावक को जन्म दिया और उसे उपदेश रूप में बोधिसत्व की यह कथा सुनाई.

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