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एक नजर में ऋषि पंचमी
ऋषिपंचमी का त्यौहार हिन्दू पंचांग के भाद्रपद महीने में शुक्ल पक्ष पंचमी को मनाया जाता है।यह त्यौहार गणेश चतुर्थी के अगले दिन होता है। इस त्यौहार में सप्त ऋषियों के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त किया जाता है।
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पहली ऋषि पंचमी की व्रत कथा
एक बार सिताश्व नामक राजा ने ब्रह्माजी से पूछा की ”हे पितामह” सब व्रतों में से श्रेष्ठ व्रत और तुरन्त फलदायक व्रत कौनसा है। राजा सिताश्व कि बात सुनकर ब्रह्माजी बोले ”हे राजन” सब व्रतों में से श्रेष्ठ और पापों का विनाश करने वाला व्रत ऋषि पंचमी का व्रत है जो भाद्रपद शुक्लपक्ष की पंचमी को आता है।
ब्रह्माजी ने कहा, ”विदर्भ देश में एक उत्तंक नामक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी सुशीला बड़ी ही पतिव्रता नारी थी। उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। जब पुत्री बड़ी हुयी तो उन्होन उसका विवाह कर दिया। विवाह करने के बाद उसका पति मर गया जिससे वह विधवा हो गई। दु:खी ब्राह्मण-दम्पत्ति एवं पुत्र व पुत्री सहित गंगातट पर कुटिया बनाकर रहने लग।
एक दिन उत्तंक समाधि में बैठकर ध्यान कर रहा था। तो उसने ज्ञात किया की उसकी पुत्री पिछले जन्म में रजस्वला (माहामारी) होने पर भी बर्तनों को छू लेती थी। जिसके कारण वह अंत समय में कीड़े पडने से मरी थी। धर्म शास्त्रो के अनुसार रजस्वला (माहामारी) स्त्री पहले दिन तो ”चाण्डालिनी” दूसरे दिन ”ब्रह्मघातिनी” तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है।
उत्तंक ब्राह्मण ने सोचा यदि मेरी पुत्रि विधिपूर्वक ”ऋषि पंचमी’ का व्रत एवं पूजन करेगी तो इस व्रत के प्रभाव से इस जन्म में पापमुक्त हो जाएगी। और उस ब्राह्मण ने अपनी पुत्रि को भाद्रपद शुक्ल्पक्ष की पंचमी को आने वाला व्रत ऋषि पंचमी के व्रत के बारे में बताया। ब्राह्मण की पुत्रि ने कई वर्षो तक पूरे विधि-विधान से ऋषि पंचमी का व्रत किया। और वह इस व्रत के प्रभाव से सभी दुखो व पापों से मुक्त हो गई। और मरने के बाद अगले जन्म में अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।
दूसरी ऋषि पंचमी की व्रत कथा
सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत पतिव्रता थी।
एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था।
इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए।
जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी।
बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया।
रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया।
तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।
अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो।
भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है