10वीं कक्षा के लिए नैतिक कहानियां | moral stories in hindi for class 10

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वृक्ष बाबा (moral stories in hindi for class 10)

नींव खोदते-खोदते सुक्खू जब थक कर चूर हो गया तो आराम करने के लिए चारपाई पर जा बैठा। अंगोछे से पसीना पोंछकर उसने एक लोटा पानी पिया और चारपाई पर निढाल हो गया। इस बार सुक्खू की कड़ी मेहनत और मौसम की मेहरबानी से उसके खेतों में धान की फसल बहुत अच्छी हुई थी।

 

घर में खाने के लिए भरपूर राशन रखने के बाद भी उसके पास बहुत सा अन्न बच गया था, जिसे बेचकर उसने पांच हजार रुपयों का मुनाफा कमाया था। उन रूपयों से वह अपना एक पक्का और मजबूत घर बनवाना चाहता था। इसीलिए वह नींव की खुदाई कर रहा था।

 

अपने कच्चे घर में सुक्खू अपनी पत्नी और बेटे पुत्तू के साथ मजे में रहता | था। लेकिन बरसात के दिनों में जब छप्पर या छत चूने लगीं और दीवारें अत्यधिक भीग जाने के कारण दरकने लगतीं, तो उसे बड़ी परेशानी होती। इसलिए उसने पक्का घर बनवाने का फैसला किया था।

 

जिससे रोज-रोज की परेशानियों से हमेशा के लिए निजात मिल जाए। दीवारों के लिए ईटें तो उसने पिछले साल ही मंगवा ली थीं। बस उन्हें जोड़कर मकान बनवाना था।

 

पर जिस जगह वह बाहरी कमरा बनवाना चाहता थी, वहाँ पर एक पुराना नीम का पेड़ लगा हुआ था। उस पेड़ को उसके बाबा ने अपने बचपन में लगाया था, और अब तब वह एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। उसकी धनी व हरी डालों पर जब रंग-बिरंगे पक्षी आकर बैठते तो आस-पास का वातावरण गुंजारित हो जाता।

 

गर्मी के तपते मौसम में भी उसके नीचे शीतलता बनी रहती और ठंडक के लिए सुक्खू के दरवाजे पर हमेशा लोगों का जमघट सा लगा रहता। पर अब सुक्खू उसी पेड़ को काटने को तत्पर था। आखिर घर जो उसे बनाना था।

 

“पिताजी मैं कुल्हाड़ी ले आया। तभी उसके लड़के ने तन्द्रा भंग की। “रख दो अभी थोड़ी देर आराम कर लूँ।” सुक्खू ने लेटे-लेटे ही जवाब दिया। “ठीक है, तब तक मैं भी खाना खा लेता हूं। फिर काटेंगे!’ कहता हुआ पुत्तु | वहाँ से चला गया। पेड़ के नीचे लेटे सुक्खू को हवा के ठंडे झोंकों में जल्दी ही नींद आ गयी और वह स्वप्न में विचरने लगा। 

 

अचानक उसे कुछ याद आया और वह कुल्हाड़ी लेकर पेड़ को काटने के लिए बढ़ा। जैसे ही उसने कुल्हाड़ी चलाई, एक जोरदार चीख उसके कानों में गूंज गयी। चौंककर उसने देखा तो आश्चर्य- चकित रह गया। चीखने वाला और कोई नहीं स्वंय वृक्ष था। उसके मोटे व बलिष्ठ तने में एक उदास मानवाकृति उभर आयी। हाथों के समान लम्बी हरी भरी डालें जोरों से कांपने लगीं।

 

पैरों की तरह विशाल धरती में धंसी जड़ें लगा अब उखड़ी, तब उखड़ी । -और पर्ण वृन्तों के महील छिद्रों से आंसू रूपी छोटी-छोटी बूंदें ढुलक पड़ीं।

 

इससे पहले कि सुक्खू कुछ बोलता, एक दूसरी आवाज उसके कानों में गूंजी।-“तुम जानते हो सुक्खू कि ये क्या करने जा रहे हो”? सुक्खू एक बार फिर चौंका। क्योंकि यह आवाज तो उसे जानी- पहचानी ली। लग रही थी उसने इधर-उधर नजरें दौड़ाई पर कोई नज़र न आया।

 

कुछ देर तक वह खड़ा-खड़ा सोचता रहा, फिर उसे याद आया कि यह आवाज तो मेरे बाबा की तरह है। तभी फिर वही आवाज उसे सुनाई पड़ी, “मेरी बात का जवाब को सुक्खू ।”

 

“मैं-मैं, ये पेड़ काटने जा रहा हूँ।” सुक्खू ने सहमे स्वरों में जवाब दिया। “क्यों ? पुनः आवाज कौंधी।

 

“क्योंकि मुझे यहां पर अपना मकान बनाना है और यह पेड़ बिना वजह ही इतनी जगह घेरे हुए है” सुक्खू बोला।  “मुझे अफसोस है सुक्खू कि तुम पेड़ का महत्व न समझ पाए। अरे, इस पेड़ को मैने, यानि तुम्हारे बाबा ने लगाया और हमेशा अपने भाई की तरह इसकी देखभाल की।

 

उसी का फल है यह आज इतने विशाल रूप में तुम्हारे सामने मौजूद है। सैंकड़ों नन्हें जीव और पक्षी इसी पर आश्रय पाते हैं और अपनी सुमधुर आवाज से वातारण को गुजारित करते हैं। गर्मी के तपते महीनों में यह स्वयं धूप सहकर तुम्हें शीतलता प्रदान करता है। इसके नीचे बैठकर तुम ही नहीं गाँव के तमाम लोग आनन्द का अनुभव करते हैं और हमेशा तुम्हारे दरवाजे पर चहल-पहल बनी रहती है”

 

सुक्खू बड़े ध्यान से सारी बातें सुन रहा था। आवाज अब भी जारी थी-“इसकी सूखी लकड़ियों से तुम्हारा  खाना बनता है, दातून से दांतों को चमकाते हो, इसके फलों से तेल निकालकर बेचते हो और पत्तियों से अपने को बीसियों रोगों से बचाते हो।

 

फिर भी तुम इसी वृक्ष को काटने पर तुले हुए हो ! अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए । सैकड़ों जीवों को कष्ट देने जा रहे हो। बोलो, क्या तुम इतना बड़ा पाप करके चैन से रह सकोगे ? बोलो रह सकोगे ?? रह सकोगे  स्वप्न के बार पार से आहत से सुक्खूउठ बैठा उसका स्वप्न भंग हो चुका था।

 

उसका हृदय व्याकुल हो गया और आंखें सजल भाग कर वह उसी नीम के पेड़ के पास पहुंचा और उससे लिपट कर बोला, “मुझसे बड़ा अनर्थ होने वाला था बाबा, पर तुमने बचा लिया। मुझे माफ कर दो वृक्ष बाबा, माफ कर दो !”

 

सुक्खू की आंखों से निकली आसुओं की तेज धार वृक्ष बाबा की लम्बी जड़ों में समाती जा रही थी। नीम की डालें हवा के दबाव से नीचे की ओर झुक रही थीं। ऐसा लगा रहा था जैसे वृक्ष बाबा अपने सुक्खू को गोद में उठाकर अपना ढ़ेर सारा प्यार उस पर निछावर कर देना चाहते हैं।

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पश्चाताप (moral stories in hindi for class 10)

अनुराग के गाँव में दसवीं कक्षा तक का विद्यालय था। उसने जब दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की तो आगे पढ़ने के लिए पिताजी ने उसका नाम शहर के एक कॉलेज में लिखा दिया। वह वहाँ किराये पर एक कमरा लेकर रहने लगा और मन लगाकर पढ़ने लगा। कभी-कभी वह गाँव जाकर अपने माता-पिता से मिल आता था। मकान मालिक का लड़का मुकेश नवीं कक्षा में पढ़ता था। उसका मन पढ़ने मे नहीं लगता था।

 

उसके पिताजी उससे हमेशा पड़ने के लिए कहा करते थे, परन्तु उस पर कोई असर नहीं पड़ता था। इससे पिताजी उससे नाराज रहते थे। वे प्राय मुकेश से कहा करते थे, “देखो, अनुराग स्वयं ही पढ़ता रहता है। एक तुम हो, कहने पर भी नहीं सुनते।” पिताजी की बातों को सुनकर मुकेश मन में अनुराग से नाराज रहने लगा।

 

वह समझता कि अनुराग के कारण ही उसे डांट सुननी पड़ती है। इसलिए उसने  एक दिन अपने पिताजी से कहा, अनुराग रात में देर तक बिजली जलाये रहता है,  इससे बिजली का बिल अधिक आयेगा।”  उसकी बात सुनकर मकान मालिक ने अनुराग से कहा, “तुम रात में देर तक बिजली जलाये रहते हो, यह ठीक नहीं है।”

 

“रात में पढ़ने के लिए मैं बिजली जलाता हूँ और पढ़ने के बाद बंद कर देता हूँ।” अनुराग ने कारण बताते हुए कहा।

 

उसकी बात सुनकर मकान मालिक चुप हो गया। उसकी समझ में यह बात आ गई। मुकेश ने जब देखा कि उसकी यह चाल सफल नहीं हुई तो अनुराग को  परेशान करने के लिए वह कोई दूसरा उपाय सोचने लगा।

 

कुछ दिन बाद जब बिजली का अधिक बिल आया तो मुकेश ने पिताजी से कहा,  “मैंने पहले ही कहा था कि अनुराग रात में देर तक बिजली जलाता है और सबेरे भी जल्दी उठकर बिजली जला देता है। उसके कारण ही इस बार बिजली का बिल अधिक आया है।”

 

 

उस पर मकान मालिक ने अनुराग से कहा, “तुम रात में बहुत देर तक बिजली जलाने के साथ ही सुबह भी जल्दी बिजली जला देते हो। तुम्हारे कारण बिजली का अधिक बिल आया है। यह अच्छी बात नहीं है।”

 

अनुराग ने कहा, ‘चाचा जी, मेरी परीक्षा निकट आ गई है। इसलिए रात में देर तक पढ़ता हूँ। मैं अनावश्यक बिजली नहीं जलाता।”  कुछ दिन बाद अनुराग जब अपने घर गया तो पिताजी को इस बारे में बताया। इस पर पिताजी ने उसे समझाते हुए कहा, “तुम एक लालटेन खरीद लो।

 

अगर मकान मालिक अधिक परेशान करे तो कभी-कभी लालटेन जलाकर पढ़ लिया करो वहाँ लडाई-झगडा मत करना। जब वहीं रहना है तो जैसा मकान मालिक कहे वैसा ही करना चाहिए।

 

इससे शान्ति मिलेगी। वरना तुम्हारा मन अशान्त रहेगा और तुम मन लगाकर नहीं पढ सकोगे।”  अनुराग जब शहर गया तो वहाँ एक लालटेन खरीद ली। अब यह कभी-कभी लालटेन भी जला कर पढ़ाई करने लगा। यद्यपि इससे उसे परेशानी होती थी। परन्तु मकान मालिक के वाद-विवाद से बचने के लिए वह कष्ट सहता रहा।

 

एक दिन अनुराग को लालटेन जलाकर पढ़ते देखकर मकान मालिक ने मुकेश से कहा, “देखो अनुराग लालटेन जलाकर कितनी तल्लीनता से पढ़ रहा है। वह अपनी पढ़ाई के लिए कितना जागरूक है। तुम्हारी परीक्षा भी जल्दी शुरू होनेवाली। है। अब तुम भी मन लगाकर पढ़ा करो।”

 

उस समय तो मुकेश ने “अच्छा” कह दिया परन्तु बाद में उसने सोचा कि अगर फेल हो जाऊँगा तो अनुराग के सामने बहुत डाँट पड़ेगी। इसलिए अब वह भी कुछ देर बैठकर पढ़ने लगा। 

 

एक रात जब मुकेश पड़ रहा था तो बिजली चली गई। मुकेश रोशनी करने के लिए शीशे का लैम्प खोजने लगा तो उसका हाथ लैम्प से टकरा गया। इससे लैम्प का शीश टूट गया और काँच के कुछ टुकड़े उसके दाहिने हाथ में चुभ गये। वह दर्द से कराह उठा उसके मुँह से चीख निकल गई।

 

उसकी चीख सुनकर अनुराग लालटेन लेकर जल्दी से मुकेश के कमरे में गया। मुकेश के हाथ से खून  बहते देखकर वह आश्चर्य में पड़ गया। एक पल तो उसकी कुछ समझ में नहीं।

 

आया कि वह क्या करे  फिर वह मुकेश को लेकर एक डॉक्टर के पास गया। | डॉक्टर ने मुकेश के हाथ से काँच निकालकर मरहम-पट्टी कर दी। उस समय  मुकेश के माता-पिता घर में नहीं थे। वे लोग एक परिचित के यहाँ कुछ काम से गये थे। कुछ देर बाद जब वे लोग घर आये तो मुकेश के हाथ में पट्टी बंधी देखकर आश्चर्य में पड़ गये।

 

उन्होंने मुकेश से पूछा तो उसने पूरी बात बतायी। उसकी बात सुनकर मकान मालिक को अनुराग के प्रति किये गये अपने व्यवहार पर बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हुई।

 

उन्होंने अनुराग को बुलाया और कहा, “आज तुमने मुकेश की जो सहायता की, उसके लिए हम लोग तुम्हारे आभारी हैं। अगर तुम उसे लेकर डॉक्टर के यहाँ नहीं जाते तो न जाने क्या होता ?'” ।

 

इस पर अनुराग ने कहा ‘चाचा जी आप ऐसा कहकर मुझे शर्मिंदा न करे मुकेश तो मेरा छोटा भाई है। उसकी मदद करके मैंने एहसान नहीं किया है।

 

उसकी प्यार भरी बातें सुनकर मकान मालिक ने कहा, ‘बेटा बिजली जलाने के लिए मैं तुम्हें अक्सर डाँटता रहता हूँ। इससे तुम्हें दुख होता होगा। फिर भी तुमने मेरी इन बातों पर ध्यान न देकर आज अनुराग की मदद की। अब तुम जब चाहो तब बिजली जलाकर पढ़ सकते हो। मुझे कोई शिकायत नहीं होगी।’

 

उधर अनुराग द्वारा अपने प्रति किये गये व्यवहार को देखकर मुकेश को भी पश्चाताप होने लगा। उसने मन में निश्चय किया कि अब कभी वह अनुराग के प्रति दुर्व्यवहार नहीं करेगा।

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दोस्त का कर्तव्य (moral stories in hindi for class 10)

 अंकुर ने 10वी पास किया तो पिताजी ने उसका नाम इलाहाबाद के एक महाविद्यालय में लिखा दिया। उसे इस शहर में पढ़ाने का मुख्य उद्देश्य इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराना था। वहाँ वह एक किराए का कमरा लेकर रहता था। उसके पिताजी हर महीने उसे मनीआर्डर द्वारा रुपया भेज देते थे। परन्तु इस बार अभी उसे इंजीनियरिंग का फॉर्म भरना था। वह सोच रहा था कि घर में ऐसी क्या बात हो गई जिससे अभी तक मनी ऑर्डर नहीं आया।

 

एक दिन वह पुस्तकालय में समाचार-पत्र पढ़ रहा था तो उसकी नजर एक खबर पर पड़ गई। उसे वह ध्यान से पढ़ने लगा। उससे पता चला कि उसके गृह जनपद में एक सप्ताह से कर्फ्यू लगा है। उसने सोचा कि शायद कर्फ्यू के कारण ही घर से मनी ऑर्डर नहीं आया होगा। अब पता नहीं कब कर्फ्यू हटेगा। यह सोचकर वह परेशान था।

 

उसका मन पढ़ने में भी नहीं लग रहा था। उसे परेशान देखकर उसके दोस्त पिंटू ने एक दिन उससे पूछा, “आजकल तुम कुछ परेशान लग रहे हो। क्या बात है?”

 

“कुछ नहीं।” अंकुर ने बात को टालते हुए कहा। उसी समय मुकेश और सुरेश के वहाँ आ जाने से बात रुक गई। दूसरे दिन कक्षा में प्राध्यापक ने दो-तीन लड़को से पूछने के बाद अंकुर से ब्लैक बोर्ड पर लिखे फार्मूले का अर्थ पूछा तो वह नहीं बता सका। इस पर उन्होंने डांटते हुए कहा, “अभी-अभी मैंने बताया है परन्तु पता नहीं तुम लोगों का मन कहाँ रहता है ? मैं जो कुछ पढ़ता हूँ, उसे ध्यान से सुना करो।”

 

अंकुर के फार्मूले का अर्थ न बताने पर पिन्टू आश्चर्य में पड़ गया। उसने सोचा कि अंकुर तो हमेशा मन लगाकर पढ़ता है, आज वह कैसे फार्मूले का अर्थ भूल गया।। पीरिएड समाप्त होने पर उसने अंकुर से पूछा, “आजकल तुम्हारा मन पढ़ने में नहीं लग रहा है। बताओ क्या बात है ?”

 

“अरे कुछ नहीं। मुझे कोई परेशानी नहीं है।” अंकुर ने कहा ! परन्तु उसके कहने के अंदाज से पिन्टू समझ गया कि वह कुछ छुपा रहा है। उसने नाराज होते हुए अकुर से कहा, “तुम झूठ बोल रहे हो। मगर मुझे सही-सही नहीं बताओगे तो मै तुमसे बात नहीं करूंगा।” इतना कहकर वह चल दिया।

 

उसे जाते देखकर अंकुर लपक कर उसके पास पहुंचा और बोला, “तुम नाराज मत हो, तुम्हारा कहना सही है। मैं आजकल बहुत परेशान हूँ। परन्तु अपनी परेशानी बताकर तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था उसकी बात सुनकर पिन्टू बोला, “क्या तुम मुझे अपना दोस्त नहीं समझते, जो नहीं बता रहे थे।”

 

अब अंकुर ने कर्फ्यू के कारण मनीआर्डर न आने की संभावना व्यक्त करते हुए कहा, “मुझे इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा का फार्म भरना है. लेकिन रुपया न होने के कारण मैं अभी तक फार्म नहीं भर सका, जबकि फार्म जमा करने की अंतिम तिथि में अब केवल एक सप्ताह बाकी है।

 

यही सोचकर परेशान हूँ कि अगर कल तक फार्म नहीं भेजेंगे तो यह समय से इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं पहुंच सकेगा। इससे मेरा एक साल बेकार चला जाएगा। मैं इसी इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए यहां आया हूँ।”

 

“अरे बस ! इतनी सी बात के लिए परेशान हो। मुझे पहले क्यों नहीं बताया। अब तुम परेशान मत हो मैं कल तुम्हें डेढ़ सौ रुपया दे दूंगा, उससे अपना काम चला लेना।” पिन्टू ने हँसते हुए कहा। पिन्टू की बात सुनकर अंकुर उसका मुँह ताकने लगा। फिर उसने पूछा, “परन्तु तुम इतना रुपया कहां से पाओगे ?”

 

“तुम इसकी चिन्ता छोड़ दो।” इस बारे में मैं कल तुम्हें बताऊंगा।’ इतना कहकर पिन्टू चला गया। पर जाकर उसने अपना बैग देखा तो उसमें सौ रुपये थे। दूसरे दिन सुबह उसने पिताजी से पचास रुपये मांगे। उन्होने कारण पूछा तो उसने कहा, “कुछ जरूरी काम है। शाम को कॉलेज से आकर बताऊँगा।”

 

 

कालेज में उसने अंकुर को रुपया दे दिये। अंकुर रुपया लेकर तुरन्त बैंक गया और बैंक ड्राफ्ट बनवाया। इसके बाद पोस्ट ऑफिस जाकर फार्म को पोस्ट कर दिया । वहाँ से लौटते समय वह बहुत खुश था। दूसरे दिन उसने पिन्टू से कहा

 

‘तुम्हारे कारण मेरी बहुत बड़ी समस्या हल हो गई। लोग दस-बारह बीस रुपया देने में बहाना बनाते हैं, परन्तु तुमने बिना हिचक डेढ़ सौ रुपये मुझे दे दिये, इसके लिए मैं |तुम्हारा एहसानमंद रहूँगा। मैं आज ही पिताजी को फिर पत्र लिखूंगा और जैसे ही मनीआर्डर आएगा तुम्हें रुपया दे दूंगा।”

 

इसमें एहसान की क्या बात हैं। यह सब तो दोस्ती में चलता रहता है।” पिन्टू बहुत खुश हुए उन्होंने कहा, “कर्फ्यू लगने से लोगों को बहुत परेशानी होती है। तुमने उसकी मदद करके बहुत अच्छा काम किया। दोस्तों को आपस में एक-दूसरे के प्रति ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए।”

 

पिताजी की बात सुनकर पिन्टू बहुत खुश हुआ। कुछ दिन बाद अंकुर ने घर से मनीआर्डर आने पर पिन्टू का आभार व्यक्त करते हुए हुए रुपए दे दिए।

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कपटी मित्र (moral stories in hindi for class 10)

चम्बल घाटी के जंगल में चीकू नाम का एक प्यारा खरगोश रहता था। उसका बदन दूध जैसा उजला और मखमल की तरह कोमल था। उसकी लल दोनों आँखें बहुत सुन्दर थीं। वह जंगल में हरी मुलायम घास पर उछलता कूदता कभी चौकड़ी भरता और कभी कुलांचे भरता रहता।

 

जंगल के सभी जानवरों को उसका उछल-कूद करके खेलना बहुत अच्छा लगता था। सभी उसे प्यार करते थे। वह था भी बहुत प्यारा । चीकू सभी से अपनी गोल-मटोल आँखें मटकाकर मीठी-मीठी बातें किया करता था।

 

उसी जंगल में जागू नाम का एक भेड़िया रहता था। वह जब भी चीकू को उछलते-कूदते हुए देखता, उसके मुँह में पानी आ जाता। खरगोश के नर्म-मुलायम स्वादिष्ट मांस को खाने के लिए उसका मन ललचा उठता । उसने एक युक्ति सोची और अधिक से अधिक खरगोश के नजदीक पहुंचने की फिराक में रहने लगा।

 

एक दिन भेड़िया नाटकीय अंदाज में प्यारी – प्यारी बातें करने लगा। वह चीकू से बोला, “चीकू भाई तुम कितने सुन्दर हो, तुम्हारा शरीर जितना उजला है तुम मन से भी उतने ही उजले हो।” अपनी तारीफ सुनकर चीकू अपने दोनों कान खड़े करके उछलने लगा। उसे भेड़िया की प्यारी-प्यारी मीठी-मीठी बातें बहुत अच्छी लगीं।

 

एक दिन मौका पाकर जगू ने चीकू से कहा, “चीकू भाई, तुम्हारी चंचलता और निर्मलता को देखकर तुम्हें अपना मित्र बनाने को मन करता है। क्या तुम मुझे अपना मित्र बनाओगे।”

 

“हां-हां क्यों नहीं। तपाक से चीकू ने कहा और धीरे-धीरे दोनों में गहरी मित्रता हो गई।

 

एक दिन आसमान में काले बादल छाये हुए थे। ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी। शाम बहुत ही सुहानी थी। जग्गू ने चीकू से कहा, “यार चीकू भाई आज मौसम कितना अच्छा है।” चीकू ने सहमति में अपनी गर्दन हिला दी।

 

 

जगू फिर कहने लगा–“ऐसा सुहाना मौसम कभी-कभी आता है। चलो नदी किनारे सैर करने चलते हैं।” भोला-भाला चीकू भेड़िये की चाल को न समझ सका और उछलता कूपता हुआ जग्गु के साथ नदी की ओर चल दिया।

 

नदी के किनारे पहुँचते-पहुँचते अंधेरा घिरने लगा। काली घटाएँ घिरी होने के कारण अंधेरा कुछ गहरा हो गया था। तेज हवाएँ चल रही थीं। नदी का किनारा एकदम सुनसान था। मौके को अपने अनुकुल पाकर दुष्ट जग्गू अपनी बड़ी – बड़ी क्रूर आँखों से चीकू को घूरने लगा।

 

भेड़िया की इस हरकत से चीकू भयभीत होने लगा और वह बोला, “जग्गू भाई, रात गहराने लगी है चलो घर लौट चलें।”

 

“चले जायेंगे घर ऐसी क्या जल्दी पड़ी है। बहुत दिनों के बाद तो आज मौका हाथ लगा है तुम्हारे स्वादिष्ट मांस को खाने का।” इतना कहकर वह दुष्ट भेड़िया चीकू पर टूट पड़ा।

 

इसके बाद कभी भी किसी ने हरी घास पर चीकू को उछलते-कूदते हुए नहीं देखा।

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होली का रंग (moral stories in hindi for class 10)

 बहुत पुरानी बात है। उन दिनों घरती पर चारों तरफ हरे भरे जंगल ही जंगल थे। उन्हीं जंगलों के बीच-बीच में बाकी दूरी पर इक्का दुक्का गांव बसे हुए थे। तब न तो बड़े-बड़े शहर थे, न कस्बे। केवल छोटे-छोटे गांवों में लोग रहते थे। लोगों में आपस में बहुत ही मेल मिलाप रहता था। कोई भी त्योहार आता तो गाव भर के छोटे-बड़े सब लोग मिलजुल कर अपना त्योहार धूमधाम से मनाते थे।

 

होली का त्योहार नजदीक आते ही जंगल का जंगल होली के रंग में रंग जाता था। लाल-लाल टेसू फूल उठते थे। आम बीरों से लदर-बदर हो उठते थे। सारी लता वल्लरियां फूलों से भर उठती थीं। इधर जंगल के सारे पेड़-पौधे होली के रंग में रंग जाते थे तो इधर उन जंगलों के बीच में बसे गांवों में लोग भी होली के दिन रंग गुलाल से सराबोर हो उठते थे।

 

जंगल के पेड़ पौधों और उन जंगली के बीच उसे गांवों के लोगों का होली खेलना देखकर एक बार सारे जंगल के पशु-पक्षी भी आपस में सलाह करते कि हम लोग भी इस साल रंगों की होली खेलेंगे। सारे जंगल के पशु पक्षी यह प्रस्ताव लेकर जंगल के राजा शेर सिंह के पास पहुंचे।

 

शेर सिंह जंगल में होली मनाने की बात सुनकर फूले नहीं समाए। वह तो पहले से ही चाहते थे कि जंगल के पशु-पक्षी भी आदमियों की तरह धूम धाम से होली का त्योहार मनाते तो कितना अच्छा होता। जगल के पशु पक्षिओं का प्रस्ताव सुनकर तो वे और भी मगन हो गये। 

 

जंगल के राजा शेर सिंह पक्षियों को इस साल धूम-धाम से होली मनाने के लिए कहकर स्वयं भी होली मनाने की तैयारी करने लगे। सारे पशु-पक्षी जंगल के पेड़-पौधों के फूल और पत्तियों से रंग तैयार करने लगें पशुओं में इस साल होड़ लग गई कि किस का रंग सबसे बढ़िया होता है। उधर पक्षी अलग अपना-अपना रग तैयार में लग गये।

 

 

धीरे-धीरे करके होली का त्योहार आ गया। भालू दादा अपनी टोली लेकर नाचते गाते आ गये। बन्दर दादा अपनी टोली लेकर उछलते कूदते आ गये। लोमड़ी, सियार लक्कड़बग्गा खरगोश आदि भी अपनी अपनी टोली लेकर सुबह से ही बीच जंगल में जुट गये।

 

उधर बूढ़े बरगद पर सारे पक्षी रंग बिरंगा रंग लिये पंख फड़फड़ा कर नाचते-गाते इकट्ठा हो गये। सारे पशु-पक्षी अपनी-अपनी धुन मेंनाच गा रहे थे कि इतने में जंगल के राजा शेर सिंह भी आ गये। पशु पक्षियों की मस्ती भरी होली से सारा जंगल गूंज उठा । शेर सिंह के आते ही रगों की होली शुरू  हो गयी।

 

किसी ने भालू दादा पर एक भरी बाल्टी काला रंग उड़ेल दिया। बन्दर ने अंगूर के मुंह पर काला रंग लगा दिया। लंगूर ने देशी बन्दर के मुंह पर लाल रंग पोत दिया। किसी ने हिरन पर बाघ दादा पर कत्थई रंग फेंक दिया।  इस तरह सुबह से शाम तक लोग रंग खेलते रहे। दिन डूबने के बाद जंगल की होली खत्म हुई।

 

दूसरे दिन भालू दादा रंग छुड़ाने लगे तो उनका रंग नहीं छूटा। लंगूर के मुंह का काला रंग नहीं छूटा। तथा देशी बन्दर के मुंह का लाल  रंग नहीं छूटा। इसी तरह लाख कोशिश के बाद भी बाघ दादा तथा हिरन का रंग पूरा नहीं छूटा और वे चितकबरा हो गये।

 

इतने पक्के रंग से होली खेलने की शिकायत लेकर लोग जंगल के राजा शेर सिंह के पास पहुंचे। तो शेर सिंह ने सारे जंगल के पशु पक्षियों से कहा कि अब जब तक पिछले साल की होली का लगा हुआ रंग नहीं छूट जाता तब तक जंगल में होली तो होगी लेकिन किसी पर कोई रंग नहीं डालेगा।

 

तभी के भालू दादा का रंग लाल, लंगूर का मुंह काला, देशी बंदर का मुंह लाल.. हिरन और बाध का रंग चितकबरा बना हुआ है और अभी उनका रंग नहीं छूट पाया। इसी लिये आज भी होली पर जंगल के जानवर किसी पर रंग नहीं डालते है और जब तक उन लोगों का रंग छूट नहीं जायेगा तब तक जंगल में होली पर रंग नहीं डाला जायेगा।

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दीपावली की सीख (moral stories in hindi for class 10)

धीरे-धीरे अंधेरा घिर आया। मुहल्ले के सारे मकान बिजली के बल्बों, रग-बिरंगी, झालरों और मोमबत्तियों की झिलमिलाती रोशनी से जगमगा उठे। जिधर भी देखो हर तरफ बस रोशनी ही रोशनी नजर आ रही थी, और रह-रह कर तड़-तड़, धड़-धड़ की आवाजें गूंज रही थीं। मुहल्ले के सारे बच्चे अपनी-अपनी छत्तों पर, लॉन में, घर के बाहर सड़कों पर और गलियों में उछल-कूद कर रहे थे, उधम मचा रहे थे, और पटाखे, चकरी तथा फुलझड़ियां छुड़ा रहे थे। 

 

उनके माता-पिता भी कुछ देर के लिए बच्चे बन गए थे और इस हो-हल्ला में खुलकर उनका साथ दे रहे थे। लेकिन रमेश माथुर का घर सन्नाटे में डूबा हुआ था। वहां न तो बच्चों का हो-हल्ला था न ही बम-पटाखों का शोर, माथुर साहब और उनकी पत्नी अपने लॉन में बेचैनी से चहल कदमी कर रहे थे।

 

 

उन दोनों की परेशान निगाहें गेट की तरफ लगी हुई थीं। बल्कि श्रीमती माथुर तो दो-तीन बार गेट से बाहर निकल कर सड़क तक देख आयीं लेकिन उनके बच्चों मनोज और रजना का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं था। लगभग एक घंटा पहले माथुर साहब के दोनों बच्चे मनोज और रंजना उनसे पैसे ले कर अपनी पसन्द के बम-पटाखे, राकेट, फूलझड़ी आदि खरीदने के लिए चौराहे की दूकान तक गए थे। 

 

उन दोनो को अधिक से अधिक आधा घंटा में लौट आना चाहिए था लेकिन धीरे-धीरे एक घटा बीत गया और वे नहीं लौटे। जैसे-जैसे देर हो रही थी माथुर साहब और उनकी पत्नी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। पन्द्रह-बीस मिनट तब और प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने घर में ताला बन्द किया और मनोज व रंजना को ढूंढने के लिए चौराहे की तरफ चल दिए।

 

चौराहे पर हर तरफ सड़कों की पटरियों पर तरह-तरह की आतिशबाजी से भरी दर्जनों दुकानें सजी थीं जिन पर औरत, मर्द और बच्चों की भारी भीड़ जमा थी, परेशान मिस्टर माथुर और उनकी पत्नी ने एक-एक करके सारी दूकानें देख डली, चारों तरफ भीड़ में खोज डाला लेकिन मनोज और रंजना कहीं भी नहीं दिखे। 

 

माथुर साहब ने सभी दुकानदारों और वहां उपस्थित लोगों से अपने बच्चों की हुलिया बता कर बहुत पूछ-ताछ की, लेकिन उन दोनों के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिल सकी। हर तरफ से निराश होने के बाद माथुर साहब और उनकी पत्नी भागे-भागे थाने पर पहुंचे सयोग से पुलिस इन्सपेक्टर शुक्ला थाने पर मौजूद थे।

 

माथुर साहब ने इन्सपेक्टर शुक्ला को सारी बात बताई, इन्सपेक्टर शुक्ला ने बहुत तत्परता दिखायी उन्होने झटपट रिपोर्ट लिखी फिर अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर माथुर साहब के साथ मनोज और रजना की खोज में निकल पड़े।

 

इन्सपेक्टर शुक्ला ने चौराहे पर अपनी जीप खड़ी की और पूछताछ करने लगा थोड़ी देर  पूछताछ के बाद एक रिक्सेवाले ने बताया कि लगभग डेढ़ घटा पहले उसने एक लड़का और एक लड़की को अस्पताल पहुंचाया है। उनके साथ एक बीमार बुढ़िया भी थी जो जोर-जोर से हांफ रही थी।

 

 लड़की की उम्र लगभग ग्यारह-बारह साल की थी, जो लाल बुंदीवाली फ्राक पहने थी तथा लड़के की उम्र लगभग सात-आठ साल की थी। वह भूरे रंग का हाफ पैन्ट तथा नीला-सफदे धारी वाला शर्ट पहने था।

 

“हा…हा… वे ही मेरे बच्चे हैं…।” श्रीमती माथुर बीच में ही बोल पड़ी। “लेकिन उनके साथ वह बीमार बुढ़िया कौन हो सकती है…” माथुर साहब बोले।

 

“यहां बात करने से बेहतर होगा कि हम लोग सीधे अस्पताल ही चलें…।” इन्सपेक्टर शुक्ला ने कहा। “हां इन्सपेक्टर साहब…जल्दी चलिए…।” श्रीमती माथुर बोली और फौरन जीप में बैठ कर सभी लोग अस्पताल चल पड़े। 

 

अस्पताल पहुंच कर सभी ने देखा कि जनरल वार्ड के एक बेड़ पर गन्दी और फटी साड़ी में लिपटी.एक बुढ़िया लेटी कराह रही थी, और उसके सिरहाने स्टूल पर बैठी रंजना उसका सर दबा रही थी।

 

इससे पहले कि माथुर साहब या उनकी पत्नी कुछ पूछते रंजना खुद ही बोल पड़ी, “पापा ! जब मैं और मनोज पटाखे खरीदने के लिए घर से निकले तो चौराहे की तरफ मेन रोड़ से न आ कर जल्दबाजी में पिछवाड़े वाली गली से आए।

 

 जब हम लोग रास्ते में पड़ने वाली झोपड़ियों के पास से गुजर रहे थे तो हमें एक झोपड़ी के अन्दर से कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। हम दोनों रुक गए और एक दरार से झोपड़ी के अन्दर झाँकने लगे। हमने देखा कि यह बुढ़िया माई जमीन पर पड़ी कराह रही थी और दर्द के मारे छटपटा रही थी। झोपड़ी के अन्दर और कोई भी नहीं था।

 

हम दोनो डरते-डरते झोपड़ी के अन्दर गए और इससे बातचीत की इसने बताया कि इसका बेटा रिक्सा चलाता है। वह रिक्सा लेकर कहीं गया था। इसकी बहू भी किसी के घर चौका-बरतन करने गई थी। यह अकेली पड़ी छटपटा रही थी और इसका शरीर तेज बुखार से तप रहा था। हमने सोचा पता नहीं इसके बेटे-बहू कितनी देर में लौटें तब तक कहीं इसकी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए। 

 

इसलिए इसको रिक्से में लादकर हम अस्पताल ले आए और डाक्टर साहब को दिखा कर यहां भर्ती करा दिया। आप ने हमें पटाखे खरीदने के लिए जो रुपए दिए थे वह हमारे पास थे ही उन्हीं पैसों में से हमने रिक्से का किराया दिया है और बाकी पैसे लेकर मनोज इसके लिए दवाईयां लाने गया है…।” रंजना ने अपनी बात खत्म की ही थी कि तभी दवाईयां लिए मनोज भी आ गया। 

 

माथुर साहब उनकी पत्नी, सहित दरोगा, सिपाही आदि सभी लोग आश्चर्य से रंजना की बातें सुनते रहे। “शाबास ! तुम दोनों ने बहुत अच्छा काम किया है बेटे… चलो अब हम तुम्हारे लिए ढेर सारे पटाखे और फुलझड़ियां खरीदेंगे…।” माथुर साहब ने कहा। 

 

“नहीं पापा… अब हम पटाखे नहीं खरीदेंगे.. मैंने और दीदी ने यह तय किया है कि हर वर्ष दीपावली पर हम जिन रुपयों के पटाखे फुलझड़ी छुड़ा कर धुये मे उडा देते हैं अब हर साल उन रुपयों से किसी गरीब की सहायता किया करेंगे. पैसे कम पड़ जाने के कारण में इस बूढ़ी दादी की एक दवाई नहीं ला पाया हू . पापा ! आप उसे मंगवा दीजिए प्लीज…।” मनोज ने कहा

 

शाबास बेटे ! अगर हमारे देश के सभी बच्चे तुम्हारी ही तरह समझदार हो जायें तो फिर क्या कहने… हर साल दीपावली पर जो लाखों रुपए धुंआ और बारूद के रूप में उड़ा दिए जाते हैं उन रुपयों से सैकड़ों गरीबों की किस्मत बदल सकती है ।” इन्सपेक्टर शुक्ला ने मनोज की पीठ थपथपाते हुए कहा और उसे गोद मे उठा लिया।

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चूर हुआ घमण्ड (moral stories in hindi for class 10)

 लंबू लोमड़ बडा आलसी था। वह पढ़ाई में बहुत कमजोर था और अक्सर परीक्षा में फेल हो जाया करता था। अपनी मां से झूठ बोल कर वह पैसे ले लिया करता और मित्रों के साथ घूमता।

 

एक दिन लंबू लोमड़ शाम के समय घूमने निकला। उसने सोचा कि पहले किसी होटल में चलकर नाश्ता कर लिया जाए। वह एक होटल में घुसा। होटल से निकल कर उसकी इच्छा सिनेमा देखने की हुई।

 

तभी उसने देखा कि उसके जूते गंदे हैं। क्यों न उन पर पालिश करवा ली जाए, यह सोचकर वह सामने की ओर बढ़ गया। वहीं पीपल के पेड़ के नीचे बेचू बन्दर मोची का काम करता था। उस समय उसके पास कोई ग्राहक भी नहीं था। लम्बू लोमड़ ने अपना दाहिना पांव उसके सामने कर दिया बेचू बन्दर ने पालिश की डिबिया खोली और मन लगा कर पालिश करने में जुट गया।

 

तभी बेचू बन्दर का बेटा, मामूली वेशभूषा में वहां आया। उसके हाथ मे पुस्तकें और कॉपियां थी। वह कॉलिज से सीधा ही चला आ रहा था। आते ही उसने  पुस्तकें एक किनारे रख दी और बड़े प्रसन्न मन से बेचू बन्दर से बोला, “बापू. अब तुम उठो। दिन भर काम करते-करते तुम थक गए होंगे।

 

जरा आराम कर  लो। बाबूजी के जूते मैं चमका देता हूँ।” अपने बेटे बीनू की बात सुनकर बेचू बन्दर गद्गद् हो गया। वह धीरे से उठा |

 

और घर की ओर चल दिया। यह सब देख कर तो लम्बू लोमड़ अचरज में पड गया। उसने पूछा-“क्यों भाई, क्या तुम कहीं नौकरी करते हो ? “जी नहीं, मैं पढता हूँ, बीनू बन्दर ने कहा।

 

 

“लेकिन उसके बाद भी तुम यह नीच काम करते हो, क्या तुम्हें शर्म नहीं आती। लम्बू लोमड़ ने पूछा।” काम करने में शर्म कैसी, बाबूजी हमें भगवान ने हाथ-पांव इसीलिए तो दिए हैं कि इससे कुछ काम किया जाए। मेरे बापू यही काम करके मुझे पढ़ा लिखा रहे हैं।

 

शाम को मैं उनकी मदद किया करता हूँ। बूढे हो गए हैं न, थक जाते हैं। उनकी हर तरह से मदद करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।” बीनू ने नम्रता से कहा।

 

“वह सब तो ठीक है, परन्तु जब तुम्हारा कोई सहपाठी या प्राध्यापक तुम्हें इस तरह बुट पालिश करते हुए देख लेता होगा तब? लम्ब ने फिर प्रश्न किया ‘मेरे काम का सब लोगो को पता है, बाबूजी, लोग चाहे जैसा भी सोचे परन्तु मैं यही मान कर चलता हूँ कि दुनिया में कोई काम छोटा नहीं होता दरअसल जो काम करता है,

 

वही बड़ा है। मुझे दिखावटी शान शौकत से घृणा है। पढ़ लिखकर मैं चाहता हूँ कि अपने बापू के इसी काम को तरीके से आगे बढ़ाऊं। बीनू ने कहा।  लम्यू लोमड़ यह सुनकर जैसे आसमान से धरती पर आ गिरा। उसका सारा घमण्ड चूर चूर हो गया। आज उसे जीवन का सही सबक मिल गया था। रास्ते चलते-चलते उसने तय कर लिया कि वह घर जाकर अपनी मां से माफी मांगेगा।

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अनोखा पुरस्कार (moral stories in hindi for class 10)

 रामू सातवीं कक्षा में पढ़ता है। उसका रहन-सहन बहुत अजीब लगता है। अपने से बड़े लोगों की बातों का उस पर कम ही असर होता। वह हमेशा अपनी धुन में ही मगन रहता। अपना काम अपनी इच्छा के अनुसार ही करता। पढ़ने-लिखने में साधारण लेकिन खेलकूद में ठीक ठाक है। 

 

खो-खो उसका प्यारा खेल है। साफ-सुथरा रहना उसे अच्छा नहीं लगता। विद्यालय में उसे कई बार हिदायते दी गई पर वह हर बार उन्हें अनसुनी कर देता। कपड़े सदैव उसके मैले ही रहते हैं। सफेद कमीज तो ऐसी लगती है जैसे बदरंगी है। दातुन करना उसे पसंद नहीं, इसलिए दांत पीले पड़ गए। नाखून काटने को वह बेकार का काम समझता है। 

 

उसके बड़े-बड़े नाखून गंदगी से भरे रहते। एक बार अध्यापक के पूछने पर उसने बताया कि वह आठ – दस दिनो में नहाता है। उसे रोज फुर्सत ही नहीं मिलती। घर में खेती और पशुओं का काम रहता है इसलिए वह स्नान के लिए समय नहीं निकाल पाता। 

 

सर्दी के दिनों में उसके शरीर की हालत तो कुछ और होती। हाथों और पैरो मे इतना मैल जम जाता कि वे कोयले की रंगत को भी मात दे रहें हों। बालों में प्रतिदिन तेल डालना वह आवश्यक नहीं मानता। पानी डाल कर कंघी करने से ही काम चल जाता है। हां, कभी-कभी बाल बिना संवारे भी रह जाते हैं।

 

अध्यापकों ने उसकी यह आदत बदलने के लिए कई प्रयास किए। कभी थोडी बहुत सफलता भी मिल जाती तो वह अधिक दिनों तक टिकती नहीं। कई बार उसके पिता को विद्यालय में बुला कर बताया गया। पिता ने पूरा आश्वासन दिया कि उनका बच्चा हमेशा साफ-सुथरा रहेगा, परन्तु सभी प्रयास बेकार गए। इस बार अध्यापकों में एक और प्रयास करने के लिए सोचा। 

 

उन्होने आपस में विचार कर एक ऐसी योजना बनाई कि रामू साफ-सुथरा रहने लगे। कुछ ही दिनों बाद विद्यालय में वार्षिक उत्सव का आयोजन होने जा रहा था। उसके लिए खेलकूद और विभिन्न प्रतियोगिताए चल रही थी।

 

निश्चित समय पर वार्षिक समारेह शुरू हुआ बच्चों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। अनेक बालक विजेता के रूप में पुरस्कार पाने के अधिकारी बन गए। समापन समारोह में इन्हें इनाम दिया जाना था।  समापन समारोह में पुरस्कार पाने वाले बालकों को मंच के पास बुला लिया गया।

 

कुछ बालक ऐसे भी थे जो, प्रतियोगिताओं में तो विजयी नहीं हुए फिर भी उन्हें पुरस्कार के लिए चुन लिया गया जैसे, विद्यालय की परीक्षा में सबसे अधिक अंक पाने वाले, अनुशासन में उत्तम, सफाई में श्रेष्ठ और किसी क्षेत्र विशेष में मुख्य रहने वाले छात्र। ऐसे ही कुछ विद्यार्थियों में रामू का नाम भी था।

 

परन्तु रामू समझ नहीं पा रहा था कि उसे किस बात के लिए सम्मानित किया जाएगा। फिर भी उसने मन ही मन संतोष किया कि शायद खो-खो में अच्छे प्रदर्शन के लिए उसे चुना गया हो। रामू के चुनाव पर अन्य बालकों में भी पुरस्कार का विषय जानने की उत्सुकता थी।

 

मापन समारोह में एक-एक बालक अध्यक्ष के सामने आ-आ कर अपना पुरस्कार लेकर अपने स्थान पर लौट आता। उस समय संयोजक प्रत्येक बालक की विशेषता का उल्लेख कर रहे थे। सभी दर्शक तालियां बजा-बजा कर पुरस्कार , पाने वाले एक-एक बालक का उत्साह बढ़ा रहे थे। 

 

ज्योंही रामू का नाम पुकारा गया, वह अध्यक्ष के सामने पहुंच ही रहा था कि उसके बारे में संयोजक द्वारा बताया जाने लगा कि रामू उनके विद्यालय का सबसे : अधिक साफ-सुथरा रखने वाला और आज्ञाकारी बालक है।

 

उसे साबुन की टिकिया । पुरस्कार में दी जा रही है! संयोजक की बात पूरी भी न हो पाई कि दर्शक, विशेष रूप से बालक जोर-जोर से वाह – वाह कहते हुए तालियों बजाने लगे। सारा वातावरण जोरदार हंसी-ठहाकों से गूंज उठा रामु तो बिना पुरस्कार लिए वहां से भाग छूटा। लोगों ने उसका बहुत अधिक आनंद लूटा।

 

दूसरे दिन विद्यालय में सबने देखा कि रामू बिल्कुल बदला हुआ है। साफ कपड़े, शरीर का मैल उतरा हुआ, चमकते हुए दांत, कटे हुए नाखून और सिर में तेल डाल कर संवारे हुए बाल अब रामू बिल्कुल स्वच्छ है। उस पुरस्कार ने रामू का जीवन ही बदल दिया। उस दिन से रामू साफ-सुथरा और सचमुच आज्ञाकारी बालक बन गया।

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