वट सावित्री व्रत कथा (2023) | vat Savitri vrat katha

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एक नजर में वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।

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वट सावित्री व्रत कथा (vat Savitri vrat katha)

भद्र देश में अश्वपति नाम का एक राजा रहता था। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान पाने के लिए राजा प्रतिदिन मंत्रों के उच्चारण के साथ एक लाख आहुतियां देता था। ये सिलिसिला अठारह वर्षों तक जारी रहा। एक दिन उनके इस यज्ञ और तप से प्रसन्न होकर सावित्री देवी प्रकट हुईं और उन्हें संतान के रूप में एक रूपवान, गुणवान और तेजस्वी कन्या होने का वरदान दिया। सावित्री देवी के वरदान से राजा को पुत्री हुई, जिस वजह से उन्होंने अपनी बेटी का नाम भी सावित्री रखा।

सावित्री बड़ी ही रूपवान थी। महल के आंगन में खेलते खेलते कब वो बड़ी हो गई, राजा को इसका पता ही नहीं चला। सावित्री की शादी की उम्र होने पर राजा को बहुत चिंता सताने लगी। राजा को अपनी रूपवान कन्या के लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा था। इस वजह से उन्होंने अपनी पुत्री से खुद अपने लिए वर तलाशने के लिए कहा।

अपने पिता की बात सुनकर सावित्री ने खुद ही अपने लिए वर ढूंढना शुरू कर दिया। एक दिन सावित्री तपोवन में जा पहुंची। वहां उसने सत्यवान नाम के सुंदर युवक को देखा। सत्यवान एक राजकुमार था, जो साल्व देश के राजा द्युमत्सेन का एकलौता पुत्र था। जब सावित्री ने उसके जंगल में रहने की वजह पूछी, तो सत्यावान के पिता राजा द्युमत्सेन ने बताया कि वे अंधे हो गए हैं और इसी वजह से उनसे उनका राज्य छीन लिया गया है। अब वह अपने परिवार के साथ इसी जंगल में रहते हैं।

सावित्री ने राजकुमार सत्यवान और उसके पिता राजा द्युमत्सेन के बारे में अपने पिता को बताया और इच्छा जाहिर की कि वो राजकुमार सत्यवान से शादी करना चाहती है।

राजा अश्वपति बेटी को दिए वचन को पूरा करने के लिए तपोवन जंगल गए। वहां पहुंचकर राजा ने द्युमत्सेन से मुलाकात की और उन्हें उनके पुत्र सत्यवान के लिए अपनी बेटी सावित्री से विवाह का प्रस्ताव दिया।

राजा अश्वपति की बात सुनकर, राजा द्युमत्सेन ने बड़े ही निराश मन से कहा – “हे राजन, मुझे आपका प्रस्ताव मंजूर है। मेरा पुत्र सत्यवान गुणवान, धर्मात्मा और बलवान है, लेकिन ऋषिराज नारद ने मुझे बताया है कि यह अल्पआयु का है, जिसकी अगले वर्ष अमावस्या के दिन मृत्यु हो जाएगी। इसलिए, मैं आपसे और आपकी पुत्री से विनती करता हूं कि आप किसी और युवक से अपनी पुत्री की शादी करवाएं।”

राजा द्युमत्सेन की यह बात सुनकर राजा अश्वपति और उनकी बेटी सावित्री काफी निराश हुए, लेकिन सावित्री ने कहा कि – “एक आर्य समाज की स्त्री होने के नाते, वो अपने मन में सिर्फ एक ही युवक को पति के रूप में देख सकती हैं। राजकुमार सत्यवान के अलावा अब वो किसी अन्य युवक से विवाह नहीं कर सकती हैं।”

सावित्री की जिद के सामने राजा अश्वपति और राजा द्युमत्सेन को झुकना पड़ा। अगले ही दिन राजकुमारी सावित्री और राजकुमार सत्यवान का विवाह बड़े ही धूमधाम से कर दिया गया।

सावित्री रूपवान तो थी, लेकिन वह सर्वगुण संपन्न भी थी। ससुराल पहुंचते ही वो तन-मन से अपनी पति सत्यवान और सास-ससुर की सेवा करने लगी। देखते ही देखते एक वर्ष निकल गया और सत्यवान की मृत्यु का दिन करीब आ गया। जैसे-जैसे दिन कट रहे थे, सावित्री का मन उदास रहने लगा। उन्होंने नारद से पूछा कि क्या वो अपने पति की उम्र को बढ़ा नहीं सकती हैं, तो इस पर नारद ने उन्हें अमावस्या के तीन दिन पहले देवी सावित्री का उपवास करने और वट के पेड़ की पूजा करने का निर्देश दिया।

नारद के बताए अनुसार, सावित्री ने सत्यवान की मृत्यु वाले दिन यानी अमावस्या से तीन दिन पहले देवी सावित्री के नाम का उपवास किया और वट के पेड़ की पूजा की। साथ ही अपने पितरों का पूजन भी किया। देखते-देखते ये तीन दिन भी निकल गए और अमावस्या यानी सत्यवान की मृत्यु का दिन आ गया।

हर रोज की तरह अमावस्या के दिन भी सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया और सावित्री भी उसके साथ गई। लकड़ी काटते समय सत्यवान ने सावित्री को बताया कि अचानक उनके सिर में तेज दर्द हो रहा है। सत्यवान की यह बात सुनते ही सावित्री समझ गई, यही उसके पति के जीवन के आखिरी पल हैं। वो जमीन पर एक वट के पेड़ के नीचे बैठ गई और सत्यवान का सिर अपने गोद में रखकर सहलाने लगी। अगले कुछ ही क्षण में सावित्री के सामने यमराज खड़े थे और वे सत्यवान के प्राण को अपने साथ लेकर जाने लगे। सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे जाने लगी।

यमराज ने पहले तो सावित्री को बहुत मनाया कि वो जो भी कर रहे हैं, वो पहले ही लिखा गया है। वो बस अपना कर्म कर रहे हैं, लेकिन सावित्री ने यमराज की बात नहीं सुनी और वह उनके पीछे-पीछे चलती रही। सावित्री की इस निष्ठा और पति के लिए उसका त्याग देखकर यमराज काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने सावित्री को वरदान मांगने के लिए कहा।

यमराज की बात सुनकर सावित्री ने कहा – “हे यमराज, मेरे सास-ससुर अंधे हैं, आप उनकी आंखों की रोशनी वापस करने का वरदान दीजिए।”

यमराज ने कहा – “ठीक है, ऐसा ही होगा। जाओ अब घर जाओ। तुम्हारे सास-ससुर अब अंधे नहीं रहे।”

ऐसा कहने के बाद यमराज फिर आगे बढ़े, लेकिन सावित्री फिर से उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने सावित्री को वापस जाने के लिए कहा, लेकिन सावित्री ने मना कर दिया। उसने यमराज से कहा कि वह बस अपने कर्तव और पत्नीव्रत का पालन कर रही है। इसलिए, जहां-जहां उसके पति जाएंगे, वह उनके पीछे-पीछे चलेगी।

सावित्री की इस बात को सुनकर यमराज फिर से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने सावित्री को एक और वरदान मांगने के लिए कहा।

सावित्री ने कहा – “मेरे ससुर द्युमत्सेन साल्व देश के राजा थे, लेकिन किसी ने उनसे उनका राज्य छीन लिया है। कृपया करके आप उन्हें उनका राज्य वापस मिलने का वरदान दें।”

यमराज ने सावित्री के इस वरदान को भी पूरा कर दिया और कहा – “जाओ, अपने सुसर के राज्य में जाओ, अब वे जंगल में नहीं, अपने महल में सोते हैं।”

यमराज ने इतना कहा और फिर से सत्यवान के प्राण को लेकर आगे बढ़ चलें, लेकिन अब भी सावित्री उनके पीछे-पीछे चली आ रही थी।

यमराज यह देखकर काफी हैरान हुए। उन्होंने सावित्री से इसकी वजह पूछी, तो सावित्री ने बताया कि एक पत्नी का फर्ज है कि वो वहीं रहेगी जहां उसका पति रहेगा। अगर उसे ससुर के महल में उसके पति नहीं होगे, तो उस महल में उसके जाने का कोई अर्थ नहीं है।

सावित्री की इस बात को सुनकर यमराज काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने सावित्री से कहा – “हे पुत्री, तुम न सिर्फ रूपवान और गुणवान हो, बल्कि एक पतिव्रता भी हो। मैं तुम्हारे इन्हीं गुणों से काफी प्रसन्न हूं। तुम मुझसे तीसरा वरदान भी मांग सकती हो।”

यमराज की इस बात को सुनते ही, सावित्री ने कहा – “हे यमराज, आप मुझे 100 संतानों की मां बनने का वरदान दें।”

सावित्री के इस वरदान को सुनते ही यमराज ने कहा – “हे पुत्री, अब घर जाओ। मैं तुम्हारे इस तीसरे वरदान को भी पूरा करता हूं। तुम 100 साहसी और पराक्रमी संतानों को जन्म दोगी।”

यमराज के इस वरदान को सुनकर सावित्री ने कहा – “हे यमराज, मैं एक हिन्दू नारी हूं और आर्य कुल की जन्मी हूं। इसलिए, मेरे जीवन में सिर्फ एक ही पति होंगे और वो सत्यवान हैं। इसलिए, आपको अपने वरदान के अनुसार मेरे पति सत्यवान को फिर से जीवित करना होगा।”

सावित्री की इस बात को सुनकर यमराज और भी ज्यादा प्रभावित हुए और उन्होंने सत्यवान के प्राण को वापस छोड़ने का वरदान दिया और सावित्री से कहा – “हे पुत्री, तुम अब वापस उसी वट के पेड़ के नीचे जाओ, जहां पर तुम्हारे पति का शरीर पड़ा था। मैंने सत्यवान के प्राण को छोड़ा दिय और तुम दोनों को 100 संतानों के साथ ही अखंड सैभाग्यवती होने का वरदान भी दिया है।”

यमराज की बातों को सुनकर सावित्री ने उनसे विदा ली और वापस उस वट के पेड़ के पास पहुंची जहां पर उसके पति का शरीर पड़ा था। जब वह सत्यवान के करीब पहुंची, तो उसने देखा उसका पति वापस से जिंदा हो गया था। दोनों जल्दी-जल्दी जंगल से बाहर निकले और राजा द्युमत्सेन के साल्व देश पहुंचे। वहां पहुंचकर सावित्री ने देखा कि अब उसके ससुर को उनका राज्य फिर से मिल गया है और उनकी आंखों की रोशनी भी वापस आ गई है।

तभी से हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन वट सावित्री व्रत को मनाया जाने लगा। इस दिन पूरे विधि-विधान से वट के पेड़ की पूजा-अर्चना की जाती है और सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं।

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