प्रसिद्ध कवियों की 8 वीर रस कवितायें 2023 | veer ras ki kavita

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एक नजर मे वीर रस

वीर रस, नौ रसों में से एक प्रमुख रस है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। युद्ध अथवा किसी कार्य को करने के लिए ह्रदय में जो उत्साह का भाव जागृत होता है उसमें वीर रस कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल वीररस को चारणों की पारिवारिक सम्पत्ति मानते थे।

वीर रस कविताएं

वीर तुम बढे चलों

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

हाथ मे ध्वज़ा रहे बाल दल सज़ा रहे

ध्वज़ कभीं झुकें नही, दल कभीं रुके नही

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

सामने पहाड हो सिह की दहाड हो

तुम निडर डरों नही, तुम निडर डटों वही

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलो!

प्रात हो कि रात हों संग हों न साथ हों

सूर्य से बढे चलों, चन्द्र से बढे चलों

वीर तुम बढे चलो! धीर तुम बढे चलों!

एक ध्वज़ लिए हुए, एक़ प्रण किए हुए

मातृभूमि के लिए, पितृभूमि के लिए

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

अन्न भूमि मे भरा, वारि भूमिं मे भरा

यत्न क़र निकाल लों, रत्न भर निक़ाल लो

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

प्रताप की तलवार

राणा चढ चेतक़ पर तलवार उठा,

रख़ता था भूतल पानीं को।

राणा प्रताप सर क़ाट क़ाट,

क़रता था सफ़ल ज़वानी को।।

क़लकल ब़हती थी रणगंगा,

अरिदल् को डूब़ नहानें को।

तलवार वीर क़ी नाव बनीं,

चटपट उस पार लगानें को।।

बैरी दल को ललक़ार गिरी,

वह नागिन सी फुफ़कार गिरी।

था शोंर मौंत से बचों बचों,

तलवार गिरीं तलवार गिरीं।।

पैंदल, हयदल, गज़दल मे,

छप छप क़रती वह निकल गयी।

क्षण कहां गयी कुछ पता न फ़िर,

देख़ो चम-चम वह निक़ल गयी।।

क्षण ईधर गई क्षण ऊधर गयी,

क्षण चढी बाढ सी उतर गयी।

था प्रलय चमक़ती जिधर गयी,

क्षण शोर हो ग़या क़िधर गयी।।

लहराती थी सर क़ाट क़ाट,

बलख़ाती थी भू पाट पाट।

बिख़राती अव्यव बांट बांट,

तनती थीं लहू चाट चाट।।

क्षण भींषण हलचल मचा मचा,

राणा क़र की तलवार बढी।

था शोर रक्त पीनें को यह,

रण-चन्डी जीभ़ पसार बढी।।

श्यामनारायण पाण्डेय

चेतना

अरे भारत! उठ, आँखे ख़ोल,

उडकर यंत्रो से, ख़गोल मे घूम रहा भूगोंल!

अवसर तेरें लिए ख़डा हैं,

फ़िर भी तू चुपचाप पडा हैं।

तेरा कर्मक्षेत्र बडा हैं,

पल पल हैं अनमोल।

अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

ब़हुत हुआ अब क्या होना हैं,

रहा सहा भीं क्या खोंना हैं?

तेरीं मिट्टी मे सोना हैं,

तू अपनें क़ो तोल।

अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

दिख़ला कर भी अपनीं माया,

अब तक़ जो न ज़गत ने पाया;

देक़र वहीं भाव मन भाया,

ज़ीवन की ज़य बोल।

अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

तेरीं ऐसी वसुन्धरा हैं-

ज़िस पर स्वय स्वर्गं उतरा हैं।

अब भी भावुक़ भाव भरा हैं,

उठें कर्म-कल्लोंल।

अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

– मैथिली शरण गुप्त

सच्चे वीर

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

झांसी की रानी की समाधि

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |

बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||

इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

सुभद्रा कुमारी चौहान

कब बाधाये रोक सकी है हम आज़ादी के परवानो की

हमको कब बाधाये रोक सकी है
हम आज़ादी के परवानो की
न तूफ़ान भी रोक सका
हम लड़ कर जीने वालो को
हम गिरेंगे, फिर उठ कर लड़ेंगे
ज़ख्मो को खाए सीने पर
कब दीवारे भी रोक सकी है
शमा में जलने वाले परवानो को
गौर ज़रा से सुन ले दुश्मन
परिवर्तन एक दिन हम लायेंगे
ये हमले, थप्पड़ जूतों से
हमको पथ से न भटका पाएंगे
ये ओछी, छोटी हरकत करके
हमारी हिम्मत तुम और बढ़ाते हो
विनाश काले विपरीत बुद्धी
कहावत तुम चरितार्थ कर जाते हो
जब लहर उठेगी जनता में
तुम लोग कभी न बच पाओगे
देख रूप रौद्र तुम जनता का
तुम भ्रष्ट सब नतमस्तक हो जाओगे

– रवि भद्र “रवि”

हाँ मैं इस देश का वासी हूँ

हाँ मैं इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा
जीने का दम रखता हूँ, तो इस के लिए मरकर भी दिखलाऊंगा ।।
नज़र उठा के देखना, ऐ दुश्मन मेरे देश को
मरूँगा मैं जरूर पर… तुझे मार कर हीं मरूँगा ।।
कसम मुझे इस माटी की, कुछ ऐसा मैं कर जाऊंगा
हाँ मैं इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।।
आशिक़ तुझे मिले होंगे बहुत, पर मैं ऐसा कहलाऊंगा
सनम होगा मेरा वतन और मैं दीवाना कहलाऊंगा ।।
माया में फंसकर तो मरता हीं है हर कोई
पर तिरंगे को कफ़न बना कर मैं शहीद कहलाऊंगा ।।
हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।
मेरे हौसले न तोड़ पाओगे तुम, क्योंकि मेरी शहादत हीं अब मेरा धर्म है ।।
सीमा पर डटकर खड़ा हूँ, क्योंकि ये मेरा वतन है
ऐ मेरे देश के नौजवानों अब आंसू न बहाओ तुम ।।
सेनानियों की शाहदत का अब कर्ज चुकाओ तुम
हासिल करो विश्वास तुम, करो देश के दर्द का एहसास तुम ।।
सपना हो हिन्द का सच, दुश्मनों का करो विनाश तुम
उठो तुम भी और मेरे साथ कहो, कुछ ऐसा मैं भी कर जाऊंगा ।।
हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा
ऐ देश के दुश्मनों ठहर जाओ…. संभल जाओ ।।
मैं इस देश का वासी हूँ, अब चुप नहीं रह जाऊंगा
आंच आई मेरे देश पर तो खून मैं बहा दूंगा ।।
क्योंकि अब बहुत हुआ, अब मैं चुप नहीं रह जाऊंगा
हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।।
खून खौलता है मेरा, जब वतन पर कोई आंच आती है
कतरा कतरा बहा दूंगा, फिर दिल से आवाज आती है ।।
इस माटी का बेटा हूँ मैं, इस माटी में ही मिल जाऊंगा
आँख उठा के देखे कोई, सबको मार गिराऊंगा ।।
भारत का मैं वासी हूँ, अब चुप नहीं रह पाउँगा
अब चुप नहीं रह पाउँगा, अब चुप नहीं रह पाउँगा ।।

– आँचल वर्मा

माँ कब से खड़ी पुकार रही

माँ कब से खड़ी पुकार रही 

पुत्रो निज कर में शस्त्र गहो

सेनापति की आवाज़ हुई 

तैयार रहो , तैयार रहो

आओ तुम भी दो आज विदा अब क्या अड़चन क्या देरी 

लो आज बज उठी रणभेरी .

पैंतीस कोटि लडके बच्चे 

जिसके बल पर ललकार रहे

वह पराधीन बिन निज गृह में 

परदेशी की दुत्कार सहे 

कह दो अब हमको सहन नहीं मेरी माँ कहलाये चेरी .

लो आज बज उठी रणभेरी .

जो दूध-दूध कह तड़प गये 

दाने दाने को तरस मरे 

लाठियाँ-गोलियाँ जो खाईं

वे घाव अभी तक बने हरे 

उन सबका बदला लेने को अब बाहें फड़क रही मेरी 

लो आज बज उठी रणभेरी .

अब बढ़े चलो , अब बढ़े चलो 

निर्भय हो जग के गान करो 

सदियों में अवसर आया है 

बलिदानी , अब बलिदान करो

फिर माँ का दूध उमड़ आया बहनें देती मंगल-फेरी .

लो आज बज उठी रणभेरी .

जलने दो जौहर की ज्वाला 

अब पहनो केसरिया बाना 

आपस का कलह-डाह छोड़ो 

तुमको शहीद बनने जाना 

जो बिना विजय वापस आये माँ आज शपथ उसको तेरी .

लो आज बज उठी रणभेरी .

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

कुछ भी बन बस कायर मत बन

कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

नरेन्द्र शर्मा

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