वर्षा ऋतु तू ऋतुओ की रानी है (poem in hindi on nature)
वर्षा ऋतु तू ऋतुओ की रानी है ।
तेरे न आने से हाहाकार मच जाता ।।
तेरे बिना जीवन संकट में पड़ जाता ।
चहु और त्राहि त्राहि मच जाती ।।
तेरे बिना सब नदी नाले और तालाब सुख जाते ।
सब प्राणियों का जीवन तुझ से है ।।
तेरे बिना जल, अन्न, जीवन असंभव है ।
वर्षा ऋतु तू सबसे सुहावनी और जीवनदायनी है ।।
तेरे आने से सुखा बीज भी अंकुरित हो उठता है ।
तेरे आने से बागानों के फुल खिल उठते है ।।
वर्षा तू जब आती है धरा की प्यास भूझ जाती है ।
धरती पुत्र के मुंह पर मुस्कान आ जाती है ।।
तेरे आने से जीवन की रेलगाड़ी दौड़ने लग जाती है ।
वर्षा ऋतु तू ऋतुओ की रानी है ।।
–नरेंद्र वर्मा
उमड़-घुमड़ भर आए बदरा (poem in hindi on nature)
उमड़-घुमड़ भर आए बदरा आसमान में छाए ।
छप-छप टप-टप बरसते मेघा ।।
घनन घनन घन गरजते बादल ।
बिजली चमकती जाए ।।
घनघोर अंधेरा सब और छाया ।
मेघा ऐसे जमकर बरसे ।।
सूखी नदियां कल-कल करती बहने लगी ।
सुख की बगिया फूलों की सुगंध से महक उठी ।।
चारों और हरियाली ही हरियाली छाई ।
किसानों के चेहरे चमक उठे ।।
उमड़-घुमड़ भर आए बदरा आसमान में छाए ।
सर सर टप टप बरसते मेघा ।।
धरती मां भी झूम उठी ।
सब और ठंडी हवा चलने लगी ।।
उमड़-घुमड़ भर आए बदरा आसमान में छाए ।।
–नरेंद्र वर्मा
पहाडों क्या तुम्हारे हाथ नहीं होते (poem in hindi on nature)
पहाडों क्या तुम्हारे हाथ नहीं होते
इच्छाएं नहीं होतीं चोटी से ढकेलने की
बलाते हो दूर से सिर भी चढाते हो
फिर उतरने क्यों नहीं कहते
पछताते हम ही उतरते हैं
कि उतरे क्यों
उतारे जाने का डर तो नहीं
नहीं ऐसा नहीं करोगे
यही सोचते खुश उदास होते
हम उतर आते हैं पर उतर पाते हैं
–कुमार मुकुल
प्रेम में पहाड़ (poem in hindi on nature)
पहाड़ सिर्फ़ नदियों के प्रेमी नहीं
पिता भी होते हैं
पहाड़ों का स्वभाव है पिता होना
मैंने नहीं सोचा कभी
किसी पूर्वज का तारा हो जाना
मैंने माना, वे शायद पहाड़ हो जाते होंगे
पृथ्वी पर सबसे पहले जन्म किसका हुआ?
नदियों का!
पहाड़ों ने सदियों
अपनी कोख में पाला है नदियों को
और कहलाए हैं सबसे पहले माँ
पिता हो जाना
पहाड़ों नें, माँ हो जाने के बाद ही जाना
वे जानते हैं
प्रेमी हो जाना आसान नहीं
इसलिए वे हो जाते हैं तपस्वी
और जटाओं में बाँधते हैं
नदियों की चिंताएँ सारी
पहाड़ सिर्फ़ नदियों के प्रेमी नहीं
…कि उनका मौन
नदियों की कलकल में हमेशा बहता रहता है
–सौरभ अनंत
शिमला (poem in hindi on nature)
देवदार के पुराने पेड़ किसी बिजूके की तरह दिखते हैं—राह छेंकते हुए से। वे सचमुच पर्वत-बिजूका हैं। उनकी जड़-पकड़ में पहाड़ की देह बिंधी होती है।
चीड़ की देह किसी चित्ते की तरह होती है। उनकी शाखाओं-उपशाखाओं पर गछी हुई पत्तियाँ उर्ध्वमुखी गुच्छे की तरह होती हैं, मानो किसी गुदाज़ हाथ वाले शिशु ने मुट्ठी बाँधकर किलकारते हुए हाथ ऊपर किया हो।
ओक के पेड़ ऐतिहासिक स्मारक की तरह खड़े और फैले हुए मिलते हैं। कहीं-कहीं मैपल ट्री भी मिलते हैं। मैपल की पत्तियाँ रेड़ की पत्तियों का लघु रूप होती हैं।
पहाड़ पर फूल बहुत चटख होते हैं। पहाड़ हमेशा उदास-से लगते हैं। हर चढ़ते क़दम की प्रतिक्रिया में पहाड़ हर क्षण कहीं न कहीं उतरते-से दीखते हैं।
जहाँ सिर्फ़ घास होती है वहाँ दूर से पहाड़ किसी सोए हुए विकराल भालू की तरह लगते हैं और जहाँ पेड़ गछे होते हैं वहाँ ऊन से लदे हुए भेड़ों के सुस्ताते हुए अपार झुंड की मानिंद।
पहाड़ पर हर चीज़ छोटी और निकट है और हर चीज के लिए लंबा रास्ता है। लघुता में लय है। और यही लय पहाड़ की तोड़ है। झुकने में ही गुरुत्व बन पाएगा, पहाड़ की चढ़ाई यही बताती है।
शाम को पहाड़ी शहर क्रिसमस ट्री की तरह दिखते हैं। पहाड़ी घर, पहाड़ पर किए गए जड़ाऊ काम की तरह हैं।
पहाड़ की तमाम चोटियाँ साथ में चिलम पीती हैं।
पहाड़ का सीना हरदम धुएँ से भरा रहता है।
– अखिलेश सिंह
जंगल का आत्मकथ्य (poem in hindi on nature)
इन दिनों मैं किताब नहीं पढ़ रही हूँ
इन दिनों मैं पढ़ रही हूँ जंगल
कहानियों में पता लगा रही हूँ पलाश के मुरझा जाने का कारण
जंगल अपने आत्मकथ्य में लिखता है
उसकी प्रेमिका का हाथ पकड़कर पतझर ले गया उस ओर
जिस ओर लगी थी बड़ी भयानक आग
पृष्ठ संख्या 2020 पर एक जगह जंगल लिखता है
पानी की तलाश में भटकता हुआ प्यासा हिरन
उन्हें और स्वादिष्ट लगता है
जब जंगल की आग में भूनकर
बित्ता भर रह जाती है उसकी देह
हिरन क्या जाने ज़रूरी विमर्श क्या है
हिरन की प्यास, हिरन की मौत या हिरन का गोश्त
बीच में कहीं जान-माल की हानि का उल्लेख करते हुए लिखा है
नुक़सान का क्या है वही पुरानी जड़ी-बूटियों का जल कर राख हो जाना
नई पौध के लिए फल ने कौवों और कोयलों की आँख से बचा रखा था जो कुछ वह सब बाँस के जलते
कोपलों के साथ
पट-पट कर शोक गीत गाते हुए विदा ले रहे हैं अब
कैसी तो प्रजातियाँ थी गहरे हरे कुएँ में धँसी
जिनकी देह में ‘एक सभ्यता’ की अंतिम पंक्तियाँ लिखने भर की हिचकी बाक़ी है
बच्चों के लिए लिखते हुए जंगल बड़बड़ाने लगता है
जंगल में आग लगी दौड़ो-दौड़ो
भागता वही है जिसके पैर के घावों में जंगल की मिट्टी का का लेप लगा हो
बच्चों को गाते हुए भीड़ में रेलगाड़ी बनाकर भागना अच्छा लगता है
बच्चे अभी भी इस गीत को खेलते हुए गाना नहीं भूलते
बच्चे क्या जाने ज़रूरी विमर्श
जंगल की आग, जंगल की दौड़ या जंगल की मौत
पृष्ठ संख्या 2021 के अंत में जंगल ने अपने आत्मकथ्य को व्यवस्थित करते हुए लिखा है
कि ख़रगोश, उल्लुओं, बाघों और चींटीख़ोर की ख़त्म होती प्रजातियों पर कवियों को लिखनी होगी कविताएँ
कहानियों में जंगल के चरित्र-चित्रण पर कुछ काम किया जा सकता है
बीज, मिट्टी, फल-फूल, हवा और पानी का अपना भी सृष्टि-विमर्श होता है
अंतिम पृष्ठ पर बस यही लिखा था
कि जब कभी लौटकर आना चाहे जंगल के बाशिंदे अपनी जगह
तो उन्हें निराश मत होने देना
यह लैपटॉप की स्क्रीन पर लगी आग नहीं है
यहाँ सचमुच जंगल में आग लगी है दौड़ो-दौड़ो!
–पूनम वासम
ओस की बूंद कहती है (poem in hindi on nature)
ओस-बूंद कहती है; लिख दूं
नव-गुलाब पर मन की बात।
कवि कहता है : मैं भी लिख दूं
प्रिय शब्दों में मन की बात॥
ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलीन।
पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥
–केदारनाथ अग्रवाल
कोई पार नदी के गाता (poem in hindi on nature)
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर,
आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई
उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता,
सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!
–हरिवंश राय बच्चन
मेघदूत के प्रति (poem in hindi on nature)
“मेघ” जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
‘मेघ-चर’ द्वारा बुलाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ’ प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,
प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला
किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कंठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भांति करता-
‘जा प्रिया के पास ले
संदेश मेरा,बंधु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शंभु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता’
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
रूप कहता मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर,
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,
क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर ना आता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित,
कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-
‘इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!’
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
–हरिवंश राय बच्चन
आज मुझसे बोल, बादल! (poem in hindi on nature)
आज मुझसे बोल, बादल!
तम भरा तू, तम भरा मैं,
ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
भेद यह मत देख दो पल-
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
–हरिवंश राय बच्चन
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर (poem in hindi on nature)
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर ! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
राग अमर ! अम्बर में भर निज रोर !
अरे वर्ष के हर्ष !
बरस तू बरस-बरस रसधार !
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार !
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल !
धँसता दलदल
हँसता है नद खल्-खल्
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से- इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
–सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
उत्साह (poem in hindi on nature)
बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ललित ललित, काले घुंघराले,
बाल कल्पना के से पाले,
विद्युत छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो
बादल गरजो!
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो –
बादल, गरजो!
–सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
मैं नीर भरी दुख की बदली (poem in hindi on nature)
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हंसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारणीं मचली!
मेरा पग पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय बयार पली।
मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
–महादेवी वर्मा
वन वन, उपवन (poem in hindi on nature)
वन वन उपवन
छाया उन्मन उन्मन गुंजन,
नव वय के अलियों का गुंजन!
रुपहले, सुनहले आम्र बौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध अंध हो ठौर ठौर
उड़ पांति पांति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन!
वन के विटपों की डाल डाल
कोमल कलियों से लाल लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पंदन, करते गुंजन!
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय श्वास,
जीवन मधु संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन!
–सुमित्रानंदन पंत
झरना (poem in hindi on nature)
मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।
कठिन गिरि कहां विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी
कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।
प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना
कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना
बह चला, जैसे दृगजल ढरना
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा
प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाईं में
बह चला झरना।
तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में।।
–जयशंकर प्रसाद
हरी हुई सब भूमि (poem in hindi on nature)
बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि
बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण गण झुमि
करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग
बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सो
खोल खोल छाता चले लोग सड़क के बीच
कीचड़ में जूते फंसे जैसे अघ में नीच।
–भारतेंदु हरिश्चंद्र
शरद (poem in hindi on nature)
सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी
बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली
शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते
झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली
बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती
मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!
साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया
हार का प्रतीक – दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!
किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है
प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!
-अज्ञेय
शरद चाँदनी! (poem in hindi on nature)
शरद चाँदनी!
विहँस उठी मौन अतल
नीलिमा उदासिनी!
आकुल सौरभ समीर
छल छल चल सरसि नीर,
हृदय प्रणय से अधीर,
जीवन उन्मादिनी!
अश्रु सजल तारक दल,
अपलक दृग गिनते पल,
छेड़ रही प्राण विकल
विरह वेणु वादिनी!
जगीं कुसुम कलि थर् थर्
जगे रोम सिहर सिहर,
शशि असि सी प्रेयसि स्मृति
जगी हृदय ह्लादिनी!
शरद चाँदनी!
-सुमित्रानंदन पंत
दिवस शरद के (poem in hindi on nature)
मुग्ध कमल की तरह
पाँखुरी-पलकें खोले,
कन्धों पर अलियों की व्याकुल
अलकें तोले,
तरल ताल से
दिवस शरद के पास बुलाते
मेरे सपने में रस पीने की
प्यास जगाते !
-केदारनाथ अग्रवाल
प्रकृति की लीला न्यारी (poem in hindi on nature)
प्रकृति की लीला न्यारी,
कहीं बरसता पानी, बहती नदियां,
कहीं उफनता समंद्र है,
तो कहीं शांत सरोवर है।
प्रकृति का रूप अनोखा कभी,
कभी चलती साए-साए हवा,
तो कभी मौन हो जाती,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी गगन नीला, लाल, पीला हो जाता है,
तो कभी काले-सफेद बादलों से घिर जाता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी सूरज रोशनी से जग रोशन करता है,
तो कभी अंधियारी रात में चाँद तारे टिम टिमाते है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी सुखी धरा धूल उड़ती है,
तो कभी हरियाली की चादर ओढ़ लेती है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कहीं सूरज एक कोने में छुपता है,
तो दूसरे कोने से निकलकर चोंका देता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
–नरेंद्र वर्मा