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एक नजर में शरद पूर्णिमा
शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा व रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। ज्योतिष के अनुसार, पूरे वर्ष में केवल इसी दिन चन्द्रमाँ सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
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पहली शरद पूर्णिमा कथा (sharad purnima vrat katha)
मथुरा नगरी में सुभद्रा नाम की ब्राम्हणी रहती थी वह शरद पूर्णिमा का व्रत रखती थी भगवान जी उससे प्रसन्न हुए एवं वरदान देते हुए कहा, इसकी विधि विधान सभी को बताइए। तब वह एक साहूकार को यह व्रत की विधि बताती है साहूकार ध्यान से सुनने लगता है ,सुभद्रा बोली मै शरद पूनो का व्रत करती हूँ यह उशी का फल है साहूकार ने पूछा इसकी विधि क्या है सुभद्रा बोली एक लकड़ी के पटा पर एक लोटा पवित्र जल भरकर रखे एक रोली से स्वास्तिक चिन्ह लोटे पर बनाइए इसके बाद पीतल के गिलास में गेहू के दाने भरकर रख दे ।
गिलास पर दक्षिणा रखे इसके बाद स्वयं तिलक लगावे इसके बाद ढाई पाव शक्कर ढाई पाव खोवा दोनों को मिलाकर छ: पड़े बनावे इसके बाद पूजन कर एक पेड़ा प्रभु को चढ़ावे दूसरा पेड़ा स्वयं (पतिदेव) ग्रहण करें। तीसरा पैदा अपने मानदान को दें जैसे भांजे , भानज, नन्द, बहिन आदि को दिया जाएगा चौथा पेड़ा अपनी सहेली से बदलें यदि सहेली न बदले तो मन्दिर में चढ़ावे जो सहेली छ: माह व्रत रखे उसे ही पेड़ा दें, पाचवा पेड़ा घर के सदस्यों को बाटे । छटवा पेड़ा के छ: भाग बनाइये । तुलसी को चढ़ाएं, गौ माता को खिलाएं, अहीर को दे, गर्भवती स्त्री को दे, राहगीर बालक को दे, कुवारी कन्या को खिलाएं
इस प्रकार छ: पेड़ा वितरित करे । लोटे में रखे जल को चंद्रोदय के समय चंद्रमा को जल चढ़ावे । घर जाकर साहूकार ने पत्नी को व्रत रखने के लिए कहा जब उसकी पत्नि ने व्रत की विधि पूछी तो साहूकार ने व्रत की विधि समझाई तब उसने व्रत रखना आरुम्भ कर दिया जिसका कहा जब उसकी पत्नि ने व्रत को विधि पूछो व्रत को विधि समझाई तब व्रत शुरू कर दिया जिसका फल यह मिला साहूकार के यहाँ दो कन्याओं का जन्म हुआ। बड़ी का नाम सावित्री और छोटी का नाम चन्द्रमुखी दोनों पूजन कार्यों में बहुत रूचि रखती थीं एवं प्रतिदिन पूजन करती थीं।
यह देखकर कुछ समय बाद दोनों का ब्याह सम्पन्न घराने में कर दिया गया। दोनों बहिनें शरद पूनों का व्रत रखती थीं। सावित्री विधि विधान से व्रत रखती थी। अतः उसे सुन्दर संतान की प्राप्ति हुई इसके विपरीत चन्द्रमुखी अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण यह फल हुआ उसके पुत्र कुछ दिन जीवित रहकर स्वर्ग सिधार जाते थे। इस कारण चन्द्रमुखी दुखी रहती थी आखिर एक दिन चन्द्रमुखी एक ज्योतिषी से इसका कारण पूछती है तब ज्योतिषी ने कहा तुम अधूरा व्रत रखती हो इस कारण तुम्हारी संतान स्वर्ग को प्राप्त करती है। अत: तुम बड़ी बहन सावित्री से विधि विधान पूछकर व्रत रखो क्योंकि सावित्री विधि विधान से पूजा करती है एवं श्रद्धा से करती है।
प्रत्येक वर्ष की तरह शरद पूनों फिर आई चन्द्रमुखी फिर अधूरा व्रत करती उसका पुत्र फिर मृत्यु को प्राप्त हुआ चन्द्रमुखी ने अपने मृत पुत्र को पटा पर लिटा दिया जिस पर वह पूजा करती थी। संयोग से प्रभु इच्छा से उसकी बड़ी बहन सावित्री उसी दिन घर पर आयी।
उसने तुरंत प्रभु का नाम लेकर मृत बालक के सिर पर हाथ फेरा तो वह जीवित हो उठा। चन्द्रमुखी खुशी से नाच उठी। तब उसे शरद पूनों व्रत का महत्व समझ में आया। उसने तुरंत प्रभु से क्षमा मांगी बारंबार प्रभु के चरण स्पर्श किये और कहा ऐसी भूल अब कभी न होगी। साथ ही सभी पड़ौस में सगे संबंधियों का यह व्रत करने की सलाह दी व व्रत की विधि विस्तार पूर्वक समझाने लगी। अतः इस व्रत के करने से प्रत्येक स्त्री व पुरुष सभी की मनोकामना पूरी हो जाती है। जय हो लक्ष्मीनारायण की जय हो चन्द्रदेव की से-चन्द्रमुखी की इच्छा पूर्ण हुई वैसे सबकी इच्छा पूरी करें।
पहली शरद पूर्णिमा कथा (sharad purnima vrat katha)
शरद पूर्णिमा व्रत से जुड़ी एक पौराणिक कथा है। किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उनकी दो बेटियां थीं, जो हर महीने में आने वाली पूर्णिमा का व्रत रखा करती थीं। दरअसल इन दोनों बेटियों में बड़ी बेटी पूर्णिमा का व्रत तो पूरे विधि-विधान से करती थी। लेकिन छोटी बेटी व्रत के नियमों का सही ढंग से पालन नहीं करती थी। ये बस व्रत के नाम पर खाना पूर्ति करती थी।