वैशाख पुर्णिमा व्रत कथा (2023) | vaisakh purnima vrat katha

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एक नजर मे वैशाख माह

वैशाख भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष का दूसरा माह है। इस माह को एक पवित्र माह के रूप में माना जाता है। जिनका संबंध देव अवतारों और धार्मिक परंपराओं से है। ऐसा माना जाता है कि इस माह के शुक्ल पक्ष को अक्षय तृतीया के दिन विष्णु अवतारों नर-नारायण, परशुराम, नृसिंह और ह्ययग्रीव के अवतार हुआ और शुक्ल पक्ष की नवमी को देवी सीता धरती से प्रकट हुई।

कुछ मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत भी वैशाख माह से हुई। इस माह की पवित्रता और दिव्यता के कारण ही कालान्तर में वैशाख माह की तिथियों का सम्बंध लोक परंपराओं में अनेक देव मंदिरों के पट खोलने और महोत्सवों के मनाने के साथ जोड़ दिया। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध मंदिर श्री केदारनाथ के कपाट वैशाख माह की अक्षय तृतीया को खुलते हैं।

वैशाख पुर्णिमा व्रत कथा (vaisakh purnima vrat katha)

द्वापर योग में एक समय की बात है मां यशोदा ने भगवान कृष्ण जी से कहा कि हे कृष्ण तुम सारे संसार के उत्पन्नकर्ता, पोषक हो आज तुम मुझे ऐसे व्रत के बारे में बताओ जिससे स्त्रियों को मृत्युलोक में विधवा होने का भय नहीं रहे तथा यह व्रत सभी मनुष्यों की मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा हे मां आपने मुझसे बहुत ही सुंदर सवाल किया है। मैं आपको विस्तार पूर्वक बताता हूं।

सौभाग्य की प्राप्ति के लिए स्त्रियों को 32 पूर्णमासियों का व्रत करना चाहिए। इस व्रत करने से स्त्रियों को सौभाग्य संपत्ति आदि की प्राप्ति होती और संतान की रक्षा होती है। यह व्रत अचल सौभाग्य को देने वाला एंव भगवान शिव के प्रति मनुष्य मात्र की भक्ति को बढ़ाने वाला वाला व्रत है। तब यशोदा जी कहती है कि हे कृष्ण सर्वप्रथम इस व्रत को मृत्युलोक में किसने किया था। इसके विषय में विस्तार पूर्वक मुझे बताओं।

तब श्री कृष्ण भगवान कहते है कि इस भूमंडल पर एक अत्यंत प्रसिद्ध राजा चंद्रहास्य था जिसके राज्य में कातिका नाम का एक सुंदर नगर बसा हुआ था | वहां पर धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी पत्नी अति सुशीला रूपवती स्त्री थी। दोनों ही उस नगरी में बड़े प्रेम के साथ निवास करते थे। घर में धन धान्य आदि की कोई कमी नहीं थी। उनको एक बड़ा दुख था। उनके यहां कोई संतान नहीं थी, इस दुख से वे अत्यंत दुखी रहा करते थे। एक समय एक योगी नगरी में आया था।

वह योगी उस ब्राह्मण के घर को छोड़कर के सभी के घर से भिक्षा लाकर भोजन किया करता था, रूपवती से वह भिक्षा नहीं लेता था। उस योगी ने रूपवती से भिक्षा नहीं ली और अन्य दूसरे घर से भिक्षा लेकर अन्न को गंगा के किनारे जाकर के बड़े प्रेम से खा रहा था। तब ही धनेश्वर ने योगी को ऐसा करते हुए देख लिया था। अपनी भिक्षा के अनादर से दुखी होकर धनेश्वर योगी से कहा कि हे महात्मन आप सभी घरों से भिक्षा लेते हैं, लेकिन मेरे घर से भिझा कभी नहीं लेते हो, इसका क्या कारण है।

तब योगी ने कहा कि मैं निसंतान के घर की भीख पतितों के अन्न के समान हो जाती है और जो पतितों का अन्न खाता है वह भी पतित यानि पापी हो जाता है। चूंकि तुम निसंतान हो तुम्हारे यहां कोई संतान नहीं है। अत: पतित हो जाने के भय से मै तुम्हारे घर की भिक्षा नहीं लेता हूं।

धनेश्वर यह बात सुनकर के अपने मन में बड़ा दुखी हुआ और हाथ जोड़कर के योगी के पैरों पर गिर पड़ा, तथा आतुर भाव से कहने लगा कि हे महाराज ऐसा है तो आप मुझे कोई पुत्र प्राप्ति का उपाय बताइए। आप सब कुछ जानने वाले हैं, आप मुझ पर अवश्य कृपा करें। धन की मेरे यहां कोई कमी नहीं है, लेकिन पुत्र यानि संतान न होने के कारण बहुत दुखी हो गया हूं। मेरे इस दुख का हरण कीजिये, आप सामर्थ्यवान है।

तब योगी जी यह सुनकर कहने लगे कि हे ब्राह्मण तुम चंडी देवी की आराधना करो, तब ब्राह्मण ने घर आकर अपनी पत्नी को पूरा वृतांत बताया और स्वयं वन में चला गया, वहां पर उसने चंडी की उपासना की और उपवास भी किया। चंडी ने सोलहवें दिन उसको सपने में दर्शन दिया और कहा कि हे धनेश्वर जा तेरे यहां पुत्र होगा। लेकिन उसकी सोलह वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाएगी। यदि तुम दोनों स्त्री पुरुष 32 पूर्णमासियों का व्रत श्रद्धापूर्वक और विधि पूर्वक करोगे तो वह दीर्घ आयु हो जाएगा।

जितनी तुम्हारी सामर्थ्य हो उतने आटे के दीए बनाकर शिव जी का पूजन करना, लेकिन पूर्णमासी को 32 दीपक हो जाना चाहिए और प्रात काल इस स्थान के समीप एक आम का वृक्ष दिखाई देगा, उस तुम चढ़ कर फल तोड़कर शीघ्र अपने घर चले जाना और अपनी पत्नी को सारा वृत्तांत बताना और रितु स्नान करने के बाद वह स्वच्छ होकर के और शंकर जी का ध्यान करके फल को खा लेगी। तब भगवान शंकर की कृपा से गर्भ ठहर जाएगा।

जब ब्राह्मण प्रातकाल उठा तो उसने उस स्थान के पास एक आम का वृक्ष देखा, जिस पर बहुत सुंदर आम का फल लगा हुआ था। उस ब्राह्मण ने आम के पेड पर चढ़कर फल को तोड़ने का प्रयत्न किया और असफल रहा। तब वह उसने भगवान गणेश की वंदना करने लगा। इस प्रकार भगवान गणेश जी की कृपा से धनेस्वर ने आम का फल तोड़ लिया और अपनी स्त्री को लाकर दे दिया। धनेवस्वर की स्त्री ने कहे अनुसार फल को खा लिया और वह गर्भवती हो गई। देवी जी की असीम कृपा से एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। उन्होंने उसका नाम देवीदास रखा। भवानी कृपा से वह बालक पढ़ने में बहुत ही होशियर था। दुर्गा जी के अज्ञानुसार उसकी माता ने 32 पूर्णमासी के व्रत रखना शुरू कर दिया था, जिससे बालक दीर्घ आयु वाला हो जाए। सोलहवा साल लगते ही देवीदास के पिता को बहुत ही चिंता हो गई थी, कहीं उनके पुत्र की मृत्यु इस साल न हो जाए।

इसलिए उन्होंने अपने मन में विचार किया कि यह दुर्घटना उनके सामने हो गई तो वे कैसे सहन कर पाएंगे। तो उन्होंने देवीदास के मामा को बुलवाया और उन्होंने कहा कि देवीदास एक वर्ष के लिए काशी में जाकर विद्या का अध्ययन करें और उसको वहाँ अकेला भी नहीं छोड़ना है। इसलिए साथ मे तुम चले जाओं और एक वर्ष के बाद इसको वापस लौटा के ले आना।

तब सारा प्रबंध करके उनके माता पिता ने देवीदास को एक घोड़े पर बैठाकर उसके मामा को उसके साथ ही भेज दिया। किंतु ये बात उसके मामा या और किसी को पता नहीं थी। धनेश्वर ने अपनी पत्नी के साथ माता भगवती के सामने मंगल कामना एवं दीर्घ आयु के लिए भगवती की आराधना पूर्णमासियों का व्रत करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने 32 पूर्णमासियों का व्रत पूरा किया। एक दिन मामा और भांजा रात्रि बिताने के लिए एक गांव में ठहरे थे वहां पर एक ब्राह्मण की सुंदर लड़की का विवाह होने वाला था।

जहां बारात रुकी हुई थी वहां पर ही देवीदास और उनके मामा ठहरे हुए थे। इसके बाद लड़की ने देवीदास देखा और मन ही मन अपना पति मान लिया और उससे ही विवाह करने के लिए कहती है लेकिन देवीदास ने उसे अपनी आयु के बारे में बताया। लेकिन इस लड़की ने कहा कि जो आयु आपकी होगी वही मेरी होगी। हे स्वामी आप उठिए और भोजन कर लीजिए। इसके बाद देवी दास और उसकी पत्नी दोनों ने भोजन किया।

सुबह देवीदास ने अपनी पत्नि को तीन नगों से जुड़ी एक अंगूठी और रुमाल दिया। मेरा मरण और जीवन देखने के लिए एक पुष्प वाटिका बना लो। जब मेरा प्राण अंत होगा तो ये फूल सुख जाएंगे। यदि फिर से हरे भरे हो जाए तो जान लेना की मैं जीवित हूं। देवीदास विद्या अध्ययन के लिए काशी चला गया।

कुछ समय बीत जाने के बाद सर्प देवीदास के पास आता है और देवीदास को ड़सने का प्रयत्न करता है। लेकिन व्रत राज के प्रभाव से देवीदास को काट नहीं पाया क्योंकि उसकी माता ने पहले ही 32 पूर्णमासी के व्रत पूरे कर चुके थे। इसके बाद काल स्वयं वहां आया और उसके शरीर से उसके प्राणों को निकालने का प्रयत्न करने लगा। जिससे वह मूर्क्षित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भगवान की कृपा से माता पार्वती से साथ शंकर जी वहां पर गए।

माता पार्वती ने शंकर जी से कहा कि इसकी माता ने पहली 32 पूर्णमासी का व्रत किया है और आप उसके प्राणदान दें। इस प्रकार शिवजी उसको प्राण दान देते है। और काल को भी पीछे हटना पड़ा। देवीदास स्वस्थ होकर पुन बैठ गया। उधर उसकी स्त्री उसके काल की प्रतिक्षा किया करती थी। जब उसने देखा की पुष्प वाटिका में पुष्प और पत्ते नहीं रहे तो उसको अत्यंत आश्चर्य हुआ। लेकिन जब वाटिका हरी भरी हो गई तो वह जान गई की उसके पति को कुछ नहीं हुआ है। यह देखकर के वह बहुत प्रसन्न मन से अपने पिता से कहने लगी कि पिता जी मेरे पति जीवत है। आप उनको खोजो।

सोलहवां साल बीत जाने पर देवीदास अपने मामा के साथ काशी से वापस चल दिया। उधर उनके ससुर घर से उनको खोजने के लिए जाने वाले ही थे। लेकिन वे मामा भांजे वहां पहुंच गए। ससुर उनके अपने घर में ले गया और नगर निवासी वहा पर एकत्रित हो गए और उन्होंने निश्चय किया कि इस कन्या का विवाह इस ही बालक के साथ हुआ था। कन्या ने भी लड़के को पहचान लिया था। कुछ दिन बाद देवीदास अपनी पत्नी और मामा के साथ बहुत से उपहार लेकर अपने नगर की ओर चल देता है।

जब वह गांव के निकट आ गया तो वहां के लोगों ने उसे देखकर उनके माता पिता को पहले ही खबर देदी। तुम्हारा पुत्र देवीदास अपनी पत्नी और मामा के साथ आ रहा है। ऐसा सुनकर उनके माता पिता बहुत ही खुश हुए थे। पुत्र और पुत्रवधू की आने की खुशी में धनेश्वर ने बहुत बड़ा उत्सव मनाया। तब भगवान श्री कृष्ण जी कहते है कि धनेश्वर 32 पूर्णमासी के प्रभाव से पुत्रवान हुआ था। जो व्यक्ति या स्त्री इस व्रत को करते है जन्म जन्मांतर के पापों से छूटकारा प्राप्त कर लेते हैं।

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