गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां (2023) | gautam buddha story in hindi

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गौतम बुद्ध का परिचय

इनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। 29 वर्ष की आयुु में सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में राजपाठ का मोह त्यागकर वन की ओर चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए। आईये जानते है गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां। (gautam buddha story in hindi)


  1. gautam buddha story in hindi – बुद्ध की सीख

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भगवान बुद्ध सदविचारों का प्रचार करने के बाद राजग्रह लौटे लेकिन नगर में सन्नाटा था। उनके अनुयायी ने उन्हें बताया भगवन एक राक्षसी को बच्चों का मांस खाने की लत लग गयी है। नगर के अनेक बच्चे गायब हो गये है। इससे नागरिकों ने या तो नगर छोड दिया हैं या वे अपने घरों में दुबके बैठे है।

भगवान बुद्ध को यह भी पता चला कि उस राक्षसी के कईं बच्चे है। एक दिन बुद्ध राक्षसी की अनुपस्थिति में खेल के बहाने उसके छोटे बच्चे ओ अपने साथ ले आये। राक्षसी जब घर लौटी तो अपने बच्चे को गायब पाकर बैचेन हो उठी, सबसे छोटा होने के कारण उसका उस बालक से अधिक लगाव था।। बैचेनी में ही उसने अपनी रात काटी सुबह जोर-जोर से उसका नाम पुकार कर उसे ढूंढने लगी।

विछोह के दर्द से वह तडप रही थी। । अचानक उसे सामने से बुद्ध गुजरते हुए दिखाई दिये। उसने सोचा कि बुद्ध सच्चे संत हैं जरूर अतंर्यामी होंगे। वह उनके पैरों में गिरकर बोली – भगवन मेरा बच्चा कहां हैं यह बताईये। उसे कोई हिसंक पशु न खा पाये ऐसा आशीर्वाद दिजिए।

बुद्ध ने कहा- इस नगर के अनेक बच्चो को तुमने खा लिया, कितनी ही इकलौती संतानों को भी तुमने नही बक्शा है। क्या तुमने कभी सोचा कि उनके माता पिता कैसे जिन्दा रह रहे होंगे? बुद्ध के वचन सुनकर वह पश्ताप की अग्नि में जलने लगी। उसने संकल्प किया कि अब वह हिंसा नही करेगी। भगवान बुद्ध ने उसे समझाया कि वास्तविक सुख दूसरों को दुख देने या दूसरों का रक्त बहाने में नहीं अपितु उन्हें सुख देने में है। उन्होंने उसका बच्चा उसे वापस कर दिया।

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2. gautam buddha story in hindi – मारने वाले से बचाने वाले का अधिक अधिकार

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एक दिन राजकुमार सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई देवदत्त के साथ बाग में घुमने के लिए गये। जहां सिद्धार्थ कोमल हृदय का बालक था वहीं देवदत्त झगडालु व कठोर स्वभाव का था। सिद्धार्थ की सभी प्रशंसा करते थे। देवदत्त की प्रशंसा कोई नहीं करता था।

इसलिए देवदत्त मन ही मन सिद्धार्थ से जलता था। जहाँ वे दोनां घुम रहे थे, उनसे थोडी ही दूरी पर एक हंस उड रहा था। उस हंस को देखकर सिद्धार्थ बहुत प्रसन्न हो रहा था। तभी देवदत्त ने कमान पर तीर चढाया और हंस की ओर छोड दिया। तीर सीधा जाकर हंस को लगा। वह घायल हो गया और छटपटा कर नीचे गिर पडा।

सिद्धार्थ ने दौडकर उस घायल हंस को उठाया। उसने हंस के घायल शरीर से बह रहे लहु को साफ किया। और उसे पानी पिलाया, तभी देवदत्त वहां आ पहुंचा। उसने क्रोध से सिद्धार्थ की ओर देखा और बोला- इस हंस को चुपचाप मुझे दे दो सिद्धार्थ इसे मैंने तीर मारकर नीचे गिराया है। नहीं! सिद्धार्थ ने हंस की पीठ सहलाते हुए उत्तर दिया- मैं इस हंस को तुम्हे नही दे सकता।

तुम निर्दयी हो तुमने इस निर्दोष हंस पर तीर चलाया है। यदि मैं इसे न बचाता तो इस बेचारे की जान चली जाती । देखो सिद्धार्थ! देवदत्त उसे घुरकर बोला यह हंस मेरा है। इसे मैंने तीर मारकर नीचे गिराया है। इसे चुपचाप मुझे देदो। यदि नहीं दोगे तो मैं राज दरबार में जाकर तुम्हारी शिकायत करूंगा।

सिद्धार्थ ने उसे हंस देने से साफ-साफ़ मना कर दिया। देवदत्त राजा शुद्धोदन के दरबार में जा पहुचा। और सिद्धार्थ की शिकायत की। शुद्धोदन ने उसकी शिकायत को ध्यानपूर्वक सुना फिर सिद्धार्थ को बुलावा भेजा। कुछ ही देर में सिद्धार्थ हंस को लेकर राज दरबार में उपस्थित हो गया। राज दरबार के उचे सिंहासन पर राजा शुद्धोदन बैठे थे आसपास के नीचे आसनो पर राज्यमंत्री, तथा अन्य पदाधिकारी बैठे थे।

कई सैनिक हथियार लिए द्वार के निकट खडे थे। शुद्धोदन के संकेत करने पर देवदत सिर झुकाकर बोला- महाराज! जो हंस इस समय सिद्धार्थ के पास हैं वह मेरा हैं, इसे मैंने तीर मारकर प्रथ्वी पर गिराया था। सिद्धार्थ ने इसे उठाकर इस पर अपना अधिकार कर लिया है। यह हंस मेरा हैं कृपया इसे मुझे दिलाया जाये। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ की ओर देखा और बोलने की ओर संकेत दिया।

सिद्धार्थ ने सिर झुकाकर शांत स्वर में कहा- महाराज! यह हंस निर्दोष हैं यह बिना किसी को कोई कष्ट दिये उडा जा रहा था, देवदत्त ने इसे तीर मारकर घायल कर दिया। मैंने इसका उपचार किया है। इसके प्राण बचाये है। मैं समझता हूं कि प्राण लेने वाले से अधिक प्राण बचाने वाले का अधिकार होता है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि यह हंस मेरे पास ही रहने दिया जाये। मैं इसे बिलकुल स्वस्थ करके आकाश में उडा देना चाहता हूं।

शुद्धोदन ने अपने सभा-सदों से विचारविमर्श किया। वे सभी एक ही स्वर में बोले महाराज! राजकुमार सिद्धार्थ का कहना बिलकुल ठीक है। जीवन लेने वाले से बचाने वाले का अधिक अधिकार होता है। अतः हंस राजकुमार सिद्धार्थ के पास ही रहने देना चाहिए। राजा शुद्धोदन ने सभासदों की बात मान ली । उन्होंने सिद्धार्थ से कहा- इस हंस पर तुम्हारा अधिकार हैं, तुम इसे ले जा सकते हो।

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3. gautam buddha story in hindi  – महात्मा बुद्ध की सीख

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एक स्त्री का एक ही बेटा था, वह भी मर गया तो रोती-बिलखती वह महात्मा बुध्दके पास पहुंची और उनके पैरों में गिरकर बोली, ‘महत्माजि, आप किसी तरह मेरे लाल को जीवित कर दें।’

महत्मा बुद्ध ने उसके प्रति सहानुभूति जताते हुए कहा, ‘तुम शोक न करो। बुद्ध ने उस महिला को सत्य बताने के लिए सराहना देते हुए कहा, में तुम्हारे बेटे को जीवित कर दूंगा लेकिन एक शर्त है की तुम किसी ऐसे घर से भिक्षा के रूप में कुछ भी मांग लाओ जहाँ किसी यक्ति की कभी मृत्यु न हुई हो। उस स्त्री को कुछ तसल्ली हुई और दौड़कर गाँव पहुंची।

अब वह ऐसा घर खोजने लगी जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो। बहुत बहुत ढूंढा लेकिन ऐसा कोई घर उसे नहीं मिला। वह निराश होकर महात्मा बुध्द के पास आई और वस्तुस्थिति से अवगत कराया। तब बुध्द बोले, ‘यह संसार-चक्र है। यहाँ जो आता है। उसे एक दिन अवश्य ही जाना पड़ता है। तुम्हें इस दुःख को धैर्यता से सहन करना चाहिए।

तब महिला हो को बुद्ध के वचन समझ आये और उस महिला ने फिर बुद्ध से संन्यास लिया और मोक्ष की राह पर चलने लगी।

4. gautam buddha story in hindi  – ऐसा सभी के साथ होता है

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एक दिन सिद्धार्थ ने अपने सारथी छंदक को नगर भ्रमण के लिए चलने को कहा, छंदक ने तुरंत राजकुमार के प्रिय घोडे कंथक को तैयार किया। उस पर राजकुमार को सवार कराकर वह नगर-भ्रमण के लिए चल पडा।

राजा शुद्धोधन ने ऐसा प्रंबध कराया था कि राजकुमार को मार्ग में काई करूणाजनक दृष्य दिखाई न दे, ताकि उसके मन में विरक्ति की भावना उत्पन्न न हो। जिस मार्ग से उन्हें जाना था, उसे स्वच्छ करके सजाया गया था। उस मार्ग पर दोनों ओर सुन्दर-सुन्दर लडकेलडकियां खडे थे। जब सिद्धार्थ उनके पास से गुजरते तो वे उन पर फूल बरसाते।

कहीं दुख या कष्ट का नाम भी दिखाई नही दे रहा था। राजकुमार सिद्धार्थ भी उस समय प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। एका-एक उनकी दृष्टि कहीं दूर उठ गई। एक झुकी हुई कमर वाला वृद्ध व्यक्ति उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उसका मुंह झुर्रियों से भरा हुआ था आंखे अन्दर को धंसी हुइ थी। हाथ-पैर कांप रहे थे। वह लाठी का सहारा लेकर बडी मुश्किल से चल पा रहा था।

जरा उधर देखों छंदक सिद्धार्थ ने उस वृद्ध की ओर संकेत करते हुए कहा- उस आदमी की ओर जिसकी कमर झुकी हुई है। मुझे बताओं की उसे क्या हो गया है ? वह इतना असुंदर क्यों है ? वह ठीक से चल क्यो नही पा रहा? राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया – वह व्यक्ति बुढा हो गया है। उसकी आयु अधिक हो गयी है। अधिक आयु हो जाने पर व्यक्ति ऐसा ही हो जाता है।

तो क्या आयु अधिक हो जाने पर मैं और यशोधरा भी ऐसे ही हो जायेंगे ? सिद्धार्थ ने चिंतित स्वर में पूछा- हम भी बुढे हो जायेंगे ? हम भी असुंदर हो जायेंगे ? हम भी ठीक से नहीं चल पायेंगे ? सच यही हैं राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया – ऐसा सभी के साथ होता है। बुढा हो जाने पर मनुष्य की यही दषा होती है। शरीर इसी प्रकार कमजोर और असुंदर हो जाता है।

सिद्धार्थ की सारी प्रसन्नता छू मन्तर हो गयी। उन्होंने छंदक को महल लौट चलने की आज्ञा दी। जब सिद्धार्थ अपने महल पहुंचे तो उन्होंने यशोधरा को अपनी प्रतिक्षा करते हुए पाया। उन्हें उदास देखकर यशोधरा ने पूछा- क्या बात है। स्वामी! क्या आप थक गये है ?

नहीं यषोधरा! सिद्धार्थ ने एक लंबी सास लेकर उत्तर दिया- मैं थका हुआ नहीं हू। बात यह हैं कि आज मैंने एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो बहुत कमजोर था। उसका पूरा शरीर कांप रहा था, उसकी आंखें झुकी हुई थी, और वह असुंदर हो गया था। छंदक कहता है, वह बुढ हो । चुका है, बुढा हो जने पर ऐसा ही होता है, यह देखकर मेरा मन उदास हो गया। इस प्रकार तो मेरी दषा भी आगे चलकर ऐसी ही हो जायेगी।

आप व्यर्थ ही दुखी हो रहे है। यशोधरा ने कहा- छोडिए इस बात को! आप अपने मनोरंजन कक्ष में जाईये पिताजी ने आपके मनोरंज के लिए ख़ास नर्तकी और गायिका को बुलाया है। आप वहां जाकर मनोरंजन कीजिये आपकी सारी उदासी दूर हो जायेगी। यशोधरा की बात मानकर सिद्धार्थ मनोरंजन कक्ष में चले गये। वहां नर्तकी और गायिका ने अपनी कला का भरपूर प्रदर्शन किया।

उन्होंने सिद्धार्थ की उदासी को दूर करने का पूरा-पूरा प्रयास किया, लेकिन सिद्धार्थ की उदासी दूर न हुई। उनकी आंखों के सामने रह-रह कर वही वृद्ध व्यक्ति घुम रहा था। जिसे उसने मार्ग में देखा था। वह बार-बार यह सोच रहा था कि क्या बुढा होने से बचने का कोई उपाय नही है? कुछ दिनों बाद अचानक सिद्धार्थ ने पुनः भ्रमण की इच्छा व्यक्त की इस बार छंदक एक रथ सजाकर ले आया।

रथ पर सवार होकर सिद्धार्थ पुनः नगर की ओर भ्रमण की ओर चल पडे। इस बार छंदक पूरा प्रयास कर रहा था कि राजकुमार को कोई करूणाजनक दृष्य दिखाई न दे, लेकिन जो होना होता हैं, वह होकर ही रहता है। मार्ग में सिद्धार्थ को एक रोगी व्यक्ति दिखाई दिया, वह रोग के कारण कराह रहा था

सिद्धार्थ ने तत्काल रथ रूकवाया और छंदक से पूछा – इसे क्या हो गया है। यह इस प्रकार कराह क्यो रहा है ? राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया- इसे रोग ने घेर रखा है। यह रोग के कष्ट को सहन नहीं कर पा रहा। इसी कारण कराह रहा है। परन्तु इसे रोग ने क्यों घेर लिया ? सिद्धार्थ ने आश्चर्य से पूछा।

छंदक ने उत्तर दिया- रोग तो बडे-बडे स्वस्थ व्यक्तियों को भी घेर लेता है। उन्हें भी रूला देता है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। अपने जीवन काल में कोई न कोई रोग लगभग प्रत्येक व्यक्ति को हो जाता है। ओह! सिद्धार्थ बडबडाये- तो रोग भी मनुष्य को कष्ट पहुंचाते है। । इनसे भी मनुष्य नही बच सकता, मैं भी नहीं बच सकूँगा, जब मुझे भी कोई रोग हो जायेगा तो मै इसी तरह दर्द से कराहूंगा।

छंदक ने रथ को आगे बडाया, थोडा आगे चलने पर सिद्धार्थ को एक शव यात्रा जाती हुई दिखाई दी। उन्होंने पुनः छंदक से प्रश्न किया- यह कैसा दृष्य है ? चार व्यक्ति अपने कंधों पर किसे लेकर जा रहे हैं ? इनके पीछे कुछ लोग रोते हुए क्यो जा रहे है ? राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया- यह व्यक्ति मर गया है, यह चारों इसके संबधी है, ये इसके शव को उठाकर शमशान मै ले जार रहे है, जो पीछे-पीछे रोते हुए जा रहे है, वे इसके कुटंब के लोग है। शमशान में इस मृतक शरीर को जला दिया जायेगा।

यह व्यक्ति मर क्यो गया ? सिद्धार्थ ने अगला प्रश्न किया। छंदक ने कहा- मृत्यु इस संसार का एक अटल सत्य है, मृत्यु ने आज तक किसी को नही छोडा। कोई भी व्यक्ति किसी भी समय मर सकता है

यह सुनकर सिद्धार्थ का दिमाग घुम गया। वह ठण्डी सांस लेकर सोचने लगे – क्या इसी को जीवन कहते है ? जिसमें मनुष्य को तरहतरह के रोग घेर लेते है, जिसमे कभी भी मृत्यु का आगमन हो सकता है। मनुष्य जब बूढा हो जाता है। तो वह दूर्बल और असहाय हो जाता है उसके शरीर को जलाकर भस्म कर दिया जाता है। क्या जीवन के इन भयानक दुखों से छुटकारा नही मिल सकता ?

इसका कोई तो उपाय होगा? सिद्धार्थ मन ही मन ऐसा सोच रहे थे कि तभी उन्हें एक संन्यासी दिखाई दिया, उसने भगवा वेष धारण कर रखा था। साधना और तपस्या के करण उसका मुख मण्डल चमक रहा था। उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे। सिद्धार्थ को वह संसार का सबसे प्रसन्न व्यक्ति दिखाई दिया।

उन्होंने पूछा- छंदक यह स्वस्थ और तेजस्वी व्यक्ति कौन है ? छंदक ने उत्तर दिया- यह एक सन्यासी है। इसने संसार के सभी सुख त्याग रखें है। इसने संयम द्वारा अपनी इंद्रियो को वश में कर रखा है। यह अपने ईश्वर की तपस्या साधना करता है। इसलिए यह स्वस्थ निरोग व सुंदर है। तपस्या के कारण ही इसका मुखमण्डल चमक रहा है।

सिद्धार्थ को जैसे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गये।

वह एकदम शांत हो गये। उस संन्यासी के दर्शन मात्र से ही। उसके मन का सारा क्लेष दूर हो गया। उसने मन ही मन सोचा – रोग, बुढापा तथा जन्म – मरण के कष्ठ से छुटकारा पाने का उपाय संयम, त्याग तथा तपस्या है। जीवन का सार सत्य की खोज करना है। संसार के सभी सुख नकली है।, मैं अब इन झुठे सुखों में नही फंसूगा मैं उस तेजस्वी संन्यासी की तरह बनूंगा।

रथ अपने पूरे वेग से दौडता रहा, और उससे भी अधिक वेग से दौडता रहा सिद्धार्थ का मन। उसे बार-बार उस संन्यासी का ध्यान आता था। । उनके मन में विरक्ती की भावना बढती ही जा रही थी। जब सिद्धार्थ राजमहल में लौटे तो उन्हें एक शुभ समाचार मिला, यशोधरा ने स्वस्थ व सुंदर पुत्र को जन्म दिया था।

दास-दासियों ने सिद्धार्थ को घेर लिया और उन्हें बधाईयां देने लगी ‘उन्हें यह आशा थी कि सिद्धार्थ से उन्हें पुरस्कार मिलेगा लेकिन । सिद्धार्थ पर इस शुभ सूचना का कोई प्रभाव दिखाई न दिया। चारों ओर हर्ष का सागर लहरा रहा था। पूरे राजमहल में बाधाईयों के स्वर गूंज रहे थे। वहां राजा शुद्धोधन व रानी प्रजावति तो प्रसन्नता से पागल हुए जा रहे थे। वे बधाई देने वाले को मुंह मांगा पुरस्कार दे रहे थे।

कपिलवस्तु में नये राजकुमार के जन्म लेने के उपलक्ष्य में नाच गाने व उत्सव होने लगे। लेकिन सिद्धार्थ को उनमें कोई रूचि न थी। वह उदास, अपने भवन में घूम रहे थे। उनके मन में संघर्ष चल रहा था, वे किसी भी उत्सव में सम्मिलित नही हुए। अपने नवजात पुत्र से भी मिलकर सिद्धार्थ को प्रसन्नता न हुई। उनका मन सब कुछ त्यागकर शान्ति व सत्य की खोज करना चाहता था।

एक रात आषाढ़ की पूर्णिमा का चन्द्रमा प्रथ्वी पर अपनी शीतल चांदनी बिखेर रहा था, राजभवन मे यशोधरा अपने पुत्र को छाती से लिपटाये सुख की निद्रा सो रही थी, दासीयां भी अपना कार्य समाप्त करके गहरी निद्रा का आनन्द ले रही थी। सिद्धार्थ अपने बिस्तर से एकाएक उठ खडे हुए। और भवन से बाहर चले गये।

भवन से बाहर निकलकर वह सहसा ठिठके उनके मन मे एक बार यशोधरा व राहुल को देखने की इच्छा उत्पन्न हुई वह वापस जाने के लिए मुडे, परन्तु जिस प्रकार कोई सर्प अपनी केंचुली का उतार कर उसकी ओर नही देखता वैसे ही सिद्धार्थ ने भी अपने मोह को एक ही झटके से त्याग दिया। धीरे-धीरे चलते हुए सिद्धार्थ वहां जा पहुंचे जहां उनका सारथी छंदक सो रहा था। सिद्धार्थ ने उसे जगाया।

छंदक ने चोंक कर अपनी आंखे खोली व निकट बंधे कंथक घोडे ने भी हिनहिना कर सिद्धार्थ की ओर देखा राजकुमार! छंदक ने नम्रता से आष्चर्य से कहा- आप और यहां ? वह भी रात के इस समय, सबकुछ ठीक तो हैं न ? छंदक! सिद्धार्थ ने आदेश दिया- तुरन्त रथ तैयार करों मैं इसी समय राजभवन से बाहर जाना चाहता हूं।

छंदक ने ध्यानपूर्वक सिद्धार्थ की ओर देखा वह कुछ पूछना चाहता था।, परन्तु पूछने का साहस न कर सका, रथ को तैयार करके वह सिद्धार्थ के निकट ले आया। सिद्धार्थ रथ पर सवार हुए तथा छंदक को नगर से बाहर वन की ओर चलने के लिए कहा। चारों और गहरा अंधकार था, वहां सन्नाटा छाया हुआ था।

जंगली जीव-जंतुओं की आवाजे कभी-कभी सन्नाटे को भंग कर देती, वातावरण बहुत डरावना हो जाता। घने जंगल के निकट स्द्धिार्थ ने छंदक को रथ रोकने का आदेश दिया। रथ रूकते ही सिद्धार्थ नीचे उतर आये। सामने ही यमुना नदि अपने पूरे वेग से बह रही थी। उस समय वे अनुप्रिय नामक स्थान के निकट खडे थे। सिद्धार्थ ने अपनी राजसी वेशभूषा उतार दी।

साथ ही उन्होंने एक-एक करके अपने आभूषण भी उतार दिये। अपने वस्त्र व आभुषण उन्होंने छंदक को दे दिये। तथा लौट जाने का आदेश दिया। छंदक सिद्धार्थ के पैरों में गिरकर फुट-फूट कर रोने लगा वह हाथ जोडकर कहने लगा-यह आप क्या कर रहे हैं राजकुमार। जब आपके माताजी व पिताजी को आपके संन्यासी बन जाने की बात का पता चलेगा तो उन पर दुखों का पहाड़ टूट पडेगा। रानी यशोधरा पर क्या बितेगी? आप अपना निर्णय बदल लिजिए। मेरे साथ राजमहल लौट चलिए।

नहीं छंदक! सिद्धार्थ ने सुंदर व सुंगधित बालों को काटकर कहा मैं अब नहीं लौटूंगा। मैंने सोच विचार करके ही यह निर्णय लिया है। मैं सत्य व ज्ञान का मार्ग खोजना चाहता हूं। जिससे मानव शान्ति पा सके। तुम आंसू पोछ लो और राजभवन लौट जाओ। छंदक को सिद्धार्थ की आज्ञा का पालन करना पडा। उसने सिद्धार्थ क चरण स्पर्श किये उनके कीमती वस्त्रों व आभुषणों को रथ में रखा और कपिलवस्तु की और चल पडा।

जिस समय छंदक राजभवन मे लौटा सुबह का प्रकाश चारों और फैल चुका था। राजा शुद्धोधन बाग में भ्रमण कर रहे थे। जब उन्होंने सिद्धार्थ का खाली रथ देखा तो उनके माथे पर बल पड गये।

उन्होंने क्रोध से छंदकी ओर देखा और पूछा तुम बिना बतायें सिद्धार्थ का कहां ले गये थे, वह इस समय कहां है ? छंदक ने रोते हुए वह पूरी बात बता दी। फिर रथ से सिद्धार्थ के कीमती वस्त्र व आभूषण लाकर उन्हें सौंप दिये।

शुद्धोधन उन वस्त्र आभूषणों को छाती से लिपटाकर फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने कहा विद्वान पंडितो व ज्योतिषियों की भविष्यवाणी ‘आज सच हो गई। मेरा बेटा संसार के सभी सुखों को ठुकरा कर । संन्यासी बनने चला गया। रानी प्रजावति को जब इस बात की सुचना मिली तो वह पछाड़ खा कर गिर पडी। जब यशोधरा तो पता चला तो वह भी इस बात को सहन न कर सकी। वह विलाप करने लगी। हैं स्वामी तुम बिना कहे ही घर छोडकर चले गये मुझसे कम से कम एक बार मिल तो लेते।

क्या मैं इस योग्य भी

गये मुझसे कम से कम एक बार मिल तो लेते। क्या मैं इस योग्य भी नही थी। क्या तुम्हे अपने छोटे से पूत्र का भी धन नही आया। कम से कम उससे तो मिलकर जाते। इसके बाद यशोधरा ने भी राजसी वेशभूषा उतार फैंकी केवल सुहाग चिन्हों को छोडकर उसने सभी

आभूषणों का त्याग कर दिया। वह साधारण भोजन करती तथा प्रथ्वी पर सोती उसकी यह दशा देखकर प्रजावति बहुत दुखी होती। वह यशोधरा को छाती से लगाकर रो पडती। और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कहती। यह तेरे खेलने खाने की आयु हैं बहू वे यशोधरा से कहती- परन्तु तुने तो सिद्धार्थ की तरह ही संसार के सभी सुख छोड दिये।

क्या यह ठीक है ? इस तरह रहने से क्या तुम बिमार नही पड जाओगी ? तब राहुल की देखभाल कौन करेगा ? माताजी यशोधरा उत्तर देती – मेरे पति अब संन्यासी बन चुके है। वे प्रथ्वी पर शयन करेंगे तथा जंगली फूल फलों का भोजन करेंगे ऐसे मैं भला राजभवन में सुख के साथ कैंसे रह सकती हूं। आप कृपया दुखी न हो राहुल मे ही इसके पिताजी की छवी को देखें। इससे आपको शांति मिलेगी।

प्रजावती राहुल को छाती से लिपटाकर रो पड़ी। सिद्धार्थ के चले जाने के बाद कपिलवस्तु का हर व्यक्ति उदास हो गया। राजमहल में तो दुख का साम्राज्य ही स्थापित हो गया ऐसे में केवल नन्हे राहुल की लिकारीयां ही राजमहल में गूंजती तथा सबका मन बहलाती।

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5. gautam buddha story in hindi  – आप क्या लेना पसंद करेंगे ? उदासी या मुस्कान

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एक बार गौतम बुद्ध किसी गाँव से गुजर रहे थे। उस गाँव के लोगों को गौतम बुद्ध के बारे में गलत धारणा थी जिस कारण वे बुद्ध को अपना दुश्मन मानते थे। जब गौतम बुद्ध गाँव में आये तो गाँव वालों ने बुद्ध को भला बुरा कहा और बदुआएं देने लगे।

गौतम बुद्ध गाँव वालों की बातें शांति से सुनते रहे और जब गाँव वाले बोलते बोलते थक गए तो बुद्ध ने कहा – ‘अगर आप सभी की बातें समाप्त हो गयी हो तो मैं प्रस्थान करूँ।’ बुद्ध की बात सुनकर गाँव वालों को आश्चर्य हुआ। ‘उनमें से एक व्यक्ति ने कहा – ‘हमने तुम्हारी तारीफ नहीं की है। हम तुम्हे बदुआएं दे रहे है। क्या तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता?’

बुद्ध ने कहा – ‘जाओ मैं आपकी गालियाँ नहीं लेता। आपके द्वारा गालियाँ देने से क्या होता है, जब तक मैं गालियाँ स्वीकार नहीं करता इसका कोई परिणाम नहीं होगा। कुछ दिन पहले एक व्यक्ति ने मुझे कुछ उपहार दिया था लेकिन मैंने उस उपहार को लेने से मना कर । दिया तो वह व्यक्ति उपहार को वापस ले गया। जब मैं लूंगा ही नहीं तो कोई मुझे कैसे दे पाएगा।’

बुद्ध ने बड़ी विनम्रता से पूछा – ‘अगर मैंने उपहार नहीं लिया तो उपहार देने वाले व्यक्ति ने क्या किया होगा।’ भीड़ में से किसी ने कहा – ‘उस उपहार को व्यक्ति ने अपने पास रख दिया होगा।’

बुद्ध ने कहा – ‘मुझे आप सब पर बड़ी दया आती है क्योंकि मैं आपकी इन गालियों को लेने में असमर्थ हूँ और इसलिए आपकी यह गालियाँ आपके पास ही रह गयी है।’

6. gautam buddha story in hindi  – बुद्ध और अनुयायी

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भगवान् बुद्ध क एक अनुयायी ने कहा , ‘प्रभु ! मुझे आपसे एक निवेदन करना है। बुद्धः बताओ क्या कहना है ?

‘ अनुयायी: मेरे वस्त्र पुराने हो चुके हैं। अब ये पहनने लायक नहीं रहे। कृपया मुझे नए वस्त्र देने का कष्ट करें! बुद्ध ने अनुयायी के वस्त्र देखे, वे सचमुच बिलकुल जीर्ण हो चुके थे और जगह जगह से घिस चुके थे, इसलिए उन्होंने एक अन्य अनुयायी को नए वस्त्र देने का आदेश दे दिए।

कुछ दिनों बाद बुद्ध अनुयायी के घर पहुंचे। बुद्ध : क्या तुम अपने नए वस्त्रों में आराम से हो ? तुम्हे और कुछ तो नहीं चाहिए? अनुयायी: धन्यवाद प्रभु। मैं इन वस्त्रों में बिलकुल आराम से हूँ और मुझे और कुछ नहीं चाहिए। बुद्धः अब जबकि तुम्हारे पास नए वस्त्र हैं तो तुमने पुराने वस्त्रों का क्या किया ?

अनुयायी: मैं अब उसे ओढने के लिए प्रयोग कर रहा हूँ ? बुद्धः तो तुमने अपनी पुरानी ओढ़नी का क्या किया ? अनुयायी: जी मैंने उसे खिड़की पर परदे की जगह लगा दिया है। बुद्धः तो क्या तुमने पुराने परदे फेंक दिए ? अनुयायी: जी नहीं , मैंने उसके चार टुकड़े किये और उनका प्रयोग रसोई में गरम पतीलों को आग से उतारने के लिए कर रहा हूँ.

बुद्धः तो फिर रौइ के पुराने कपड़ों का क्या किया ? अनुयायी: अब मैं उन्हें पोछा लगाने के लिए प्रयोग करूँगा। बुद्धः तो तुम्हारा पुराना पोछा क्या हुआ ? अनुयायी: प्रभु वो अब इतना तार-तार हो चुका था कि उसका कुछ नहीं किया जा सकता था, इसलिए मैंने उसका एक-एक धागा अलग कर दिए की बत्तियां त्यार कर ली, उन्ही में से एक आपके कक्ष में कल प्रकाशित था। बुद्ध अनुयायी से प्रसन्न हो गए वे प्रसन्न थे कि वे वस्तुओं को बर्बाद नहीं करता और उसमे समझ है की उनका प्रयोग किस तरह से किया जा सकता है।

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7. gautam buddha story in hindi  – डाकू अंगुलिमाल और महात्मा बुद्ध

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बहुत पुरानी बात है मगध राज्य में एक सोनापुर नाम का गाँव था। उस गाँव के लोग शाम होते ही अपने घरों में आ जाते थे। और सुबह होने से पहले कोई कोई भी घर के बाहर कदम भी नहीं रखता था। इसका कारण डाकू अंगुलीमाल था।

डाकू अंगुलीमाल मगध के जंगलों की गुफा में रहता था। वह लोगों को लूटता था और जान से भी मार देता था। लोगों को डराने के लिए वह जिसे भी मारता उसकी एक ऊँगली काट लेता और उन उँगलियों की माला बनाकर पहनता। इसलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा। गाँव के सभी लोग परेशान थे कैसे इस डाकू के आतंक से छुटकारा मिले।

एक दिन गौतम बुद्ध उस गाँव में आये। गाँव के लोग उनकी आवभगत करने लगे। गौतम बुद्ध ने देखा कि गाँव के लोगों में किसी बात को लेकर देहशत फैली है!

तब गौतम बुद्ध ने गाँव वालों से इसका कारण पूछा- ये सुनते ही गाँव ‘ वालों ने अंगुलिमाल के आतंक का पूरा किस्सा उन्हें सुनाया। अगले ही दिन गौतम बुद्ध जंगल की तरफ निकल गये, गाँव वालों ने उन्हें बहुत रोका पर वो नहीं माने। बुद्ध को आते देख अंगुलिमाल हाथों में तलवार लेकर खड़ा हो गया, पर बुद्ध उसकी गुफा के सामने से निकल गए उन्होंने पलटकर भी नहीं देखा।

अंगुलिमाल उनके पीछे दौड़ा, पर दिव्य प्रभाव के कारण वो बुद्ध को पकड़ नहीं पा रहा था। थक हार कर उसने कहा- ‘रुको’ बुद्ध रुक गए और मुस्कुराकर बोले- मैं तो कबका रुक गया पर तुम कब ये हिंसा रोकोगे।

अंगुलिमाल ने कहा- सन्यासी तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता। सारा मगध मुझसे डरता है। तुम्हारे पास जो भी माल है निकाल दो वरना, जान से हाथ धो बैठोगे। मैं इस राज्य का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हूँ। बुद्ध जरा भी नहीं घबराये और बोले- मैं ये कैसे मान लूँ कि तुम ही इस राज्य के सबसे शक्तिशाली इन्सान हो। तुम्हे ये साबित करके दिखाना होगा।

अंगुलिमाल बोला बताओ- ‘कैसे साबित करना होगा?’ बुद्ध ने कहा- ‘तुम उस पेड़ से दस पत्तियां तोड़ कर लाओ।’ अंगुलिमाल ने कहा- बस इतनी सी बात, ‘मैं तो पूरा पेड़ उखाड़ सकता हूँ । अंगुलिमाल ने दस पत्तियां तोड़कर ला दीं। बुद्ध ने कहा- ‘अब इन पत्तियों को वापस पेड़ पर जाकर लगा दो।’

अंगुलिमाल ने हैरान होकर कहा- ‘टूटे हुए पत्ते कहीं वापस लगते हैं। क्या?’ तो बुद्ध बोले – ‘जब तुम इतनी छोटी सी चीज़ को वापस नहीं जोड़ सकते तो तुम सबसे शक्तिशाली कैसे हुए?’  यदि तुम किसी चीज़ को जोड़ नहीं सकते तो कम से कम उसे तोड़ो मत, यदि किसी को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मृत्यु देने का भी तुम्हे कोई अधिकार नहीं है।

ये सुनकर अंगुलीमाल को अपनी गलती का एहसास हो गया। और वह बुद्ध का शिष्य बन गया। और उसी गाँव में रहकर लोगों की सेवा करने लगा। आगे चलकर यही अंगुलिमाल बहुत बड़ा सन्यासी बना और अहिंसका नाम से प्रसिद्ध हुआ।

8. gautam buddha story in hindi  – अछूत व्यक्ति

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एक दिन गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एकदम शांत बैठे हुए थे। उन्हें इस प्रकार बैठे हुए देख उनके शिष्य चिंतित हुए कि कहीं वे अस्वस्थ तो नहीं हैं। एक शिष्य ने उनसे पूछा कि- ‘आज वह मौन क्यों बैठे हैं। क्या शिष्यों से कोई गलती हो गई है ?’

इसी बीच एक अन्य शिष्य ने पूछा कि क्या वह अस्वस्थ हैं ? पर बुद्ध मौन रहे। तभी कुछ दूर खड़ा व्यक्ति जोर से चिल्लाया, ‘आज मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई है ?’ बुद्ध आँखें बंद करके ध्यान मग्न हो गए। वह व्यक्ति फिर से चिल्लाया, ‘मुझे प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं मिली ?’ इस बीच एक उदार शिष्य ने उसका पक्ष लेते हुए कहा कि उसे सभा में आने की अनुमति प्रदान की जाये।

बुद्ध ने आखें खोली और बोले, ‘नहीं वह अछूत है, उसे आज्ञा नहीं दी जा सकती। यह सुन शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ।’ बुद्ध उनके मन का भाव समझ गए और बोले, ‘हाँ वह अछूत है।’ इस पर कई शिष्य बोले कि- हमारे धर्म में तो जात-पांत का कोई भेद ही नहीं, फिर वह अछूत कैसे हो गया ?

तब बुद्ध ने समझाया, ‘आज वह क्रोधित हो कर आया है। क्रोध से जीवन की एकाग्रता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति प्रायः मानसिक हिंसा कर बैठता है। इसलिए वह जबतक क्रोध में रहता है तब तक अछूत होता है। इसलिए उसे कुछ समय एकांत में ही खड़े रहना चाहिए।’ क्रोधित शिष्य भी बुद्ध की बातें सुन रहा था, पश्चाताप की अग्नि में तपकर वह समझ चुका था की अहिंसा ही महान कर्तव्य व परम धर्म वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और कभी क्रोध न करने की शपथ ली।

आशय यह कि क्रोध के कारण व्यक्ति अनर्थ कर बैठता है और बाद में उसे पश्चाताप होता है। इसलिए हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। असल मायने में क्रोधित व्यक्ति अछूत हो जाता है और उसे अकेला ही छोड़ देना चाहिए। क्रोध करने से तन, मन, धन तीनों की हानि होती है।

क्रोध से ज्यादा हानिकारक कोई और वस्तु नहीं है। बुद्ध ने कहा भी है क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के समान है. इसमें आप ही जलते हैं।

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9. gautam buddha story in hindi  – रेत का घर

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एक गाँव में नदी के किनारे कुछ बच्चे खेलते हुए रेत के घर बना रहे। थे।किसी का पैर किसी के घर को लग जाता और वो बिखर जाता इस बात पर झगड़ा हो जाता। थोड़ी बहुत बचकानी उम्र वाली मारपीट भी हो जाती। फिर वह बदले की भावना से सामने वाले के घर के ऊपर बैठ जाता और उसे मिटा देता और फिर से अपना घर बनाने में तल्लीन हो जाया करता। यही बच्चो का काम था।

‘महात्मा बुध चुपचाप एक और खड़े ये सारा तमाशा अपने शिष्यों के साथ देख रहे थे। बच्चे अपने आप में ही मशगूल थे तो किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। इतने में एक स्त्री आकर बच्चो को कहती है। साँझ हो गयी है तुम सब की माएं तुम्हारा रास्ता देख रही है। बच्चो ने चौंकते हुए देखा दिन बीत गया है साँझ हो गयी है और अँधेरा होने को इसके बाद वो अपने ही बनाये घरों पर उछले कूदे सब मटियामेट कर दिया और किसी ने नहीं देखा कौन किसका घर तोड़ रहा है।

सब बच्चे भागते हुए अपने घरों की और चल दिए। महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा तुम मानव जीवन की कल्पना इन बच्चो की इस क्रीडा से कर सकते हो क्योंकि तुम्हारे बनाये शहर,राजधानियां सब ऐसे ही रह जाती है और तुम्हे एक दिन यह सब छोड़कर जाना ही होती है, तुम यहाँ जिंदगी की भागदौड़ में सब भूल जाते हो और खुद से कभी मिल नहीं पाते जबकि जाना तो सबका तय ही है इसलिए कभी भी अधिक लम्बा सोच कर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए वर्तमान में जीना चाहिए।

10. gautam buddha story in hindi  तीन गांठें

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भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे।

एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। । ‘ करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठे लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे। तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, ‘मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?’

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, ‘गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।’

‘सत्य है!’, बुद्ध ने कहा , ‘ अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ।’ यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, ‘तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ? ‘नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा।’, एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ‘ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा ?’ शिष्य बोला , ‘इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हें कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।’

रात बीत गई, सब लोग चले गए पर शौरपुच्छ बेसुध कार्य-निमग्न रहा। बुद्ध उसके पास पहुंचे और बोले-शौरपुच्छ! तुमने प्रसाद पाया या नहीं?

शौरपुच्छ का गला रुंध गया। भाव-विभोर होकर उसने तथागत को साष्टांग प्रणाम किया। बुद्ध ने कहा-वत्स परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता, वह तो निष्ठा का भूखा है। लोगों की निष्ठाओं में ही वह रमण किया करता है और तुमने स्वयं यह जान लिया।

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