परिचय
जन्म | 1440 वाराणसी |
मृत्यु | 1518 मघर |
धर्म | सर्वोच्च ईश्वर (किसी भी धर्म को नहीं मानते थे) |
अन्य नाम | कबीरदास, कबीर परमेश्वर, कबीर साहेब |
समय के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for time in hindi)
कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर
तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।
अर्थ- कबीर कहते है की ऐ मनुष्य तुम भ्रम में क्यों भटक रहे हो? तुम गहरी नीन्द में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे सिरहाने में मौत खड़ा है जैसे अंधेरे में चोर छिपकर रहता है।
कागा काय छिपाय के, कियो हंस का भेश
चलो हंस घर आपने, लेहु धनी का देश।
अर्थ- कौये ने अपने शरीर को छिपा कर हंस का वेश धारण कर लिया है। ऐ हंसो-अपने घर चलो। परमात्मा के स्थान का शरण लो। वही तुम्हारा मोक्ष होगा ।
काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये
कहै कबीर मैं क्या करुॅ, कोयी नहीं पतियाये।
अर्थ- मृत्यु जीव को ग्रस लेता है-खा जाता है। यह बात मैंने बहुत समझाकर कही है। कबीर कहते है की अब मैं क्या करु-कोई भी मेरी बात पर विश्वास नहीं करता है।
काल छिछाना है खड़ा, जग पियारे मीत
हरि सनेही बाहिरा, क्यों सोबय निहचिंत।
अर्थ- मृत्यु रुपी बाज तुम पर झपटने के लिये खड़ा है। प्यारे मित्रों जागों। परम प्रिय स्नेही भगवान बाहर है। तुम क्यों निश्चिंत सोये हो । भगवान की भक्ति बिना तुम निश्चिंत मत सोओ।
काल हमारे संग है, कश जीवन की आस
दस दिन नाम संभार ले,जब लगि पिंजर सांश।
अर्थ- मृत्यु सदा हमारे साथ है। इस जीवन की कोई आशा नहीं है। केवल दस दिन प्रभु का नाम सुमिरन करलो जब तक इस शरीर में सांस बचा है।
काल काल सब कोई कहै, काल ना चिन्है कोयी
जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।
अर्थ- मृत्यु मृत्यु सब कोई कहते है पर इस मृत्यु को कोई नहीं पहचानता है। जिसके मन में मृत्यु के बारे में जैसी कल्पना है-वही मृत्यु कहलाता है।
कुशल जो पूछो असल की, आशा लागी होये
नाम बिहुना जग मुआ, कुशल कहाॅ ते होये।
अर्थ- यदि तुम वास्तव में कुशल पूछते हो तो जब तक संसार में आशक्ति है प्रभु के नाम सुमिरण और भक्ति के बिना कुशल कैसे संभव है।
काल फिरै सिर उपरै, हाथौं धरी कमान
कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।
अर्थ- मृत्यु हाथों में तीर धनुष लेकर सबों के सिर पर चक्कर लगा रही है। समस्त घमंड अभिमान छोड़ कर प्रभु के नाम को पकड़ो-ग्रहण करो-तुम्हारी मुक्ति होगी।
जाता है सो जान दे, तेरी दासी ना जाये
दरिया केरे नाव ज्यों, घना मिलेंगे आये।
अर्थ- जो जा रहा है उसे जाने दो-तेरा क्या जा राहा है? जैसे नदी में नाव जा रही है तो फिर बहुत से लोग तुम्हें मिल जायेंगे। आवा गमन-मृत्यु जन्म की चिंता नहीं करनी है।
चहुॅ दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।
अर्थ- चारों दिशाओं में वीर हाथों में हथियार लेकर खड़े थे। सब लोग अपने शरीर पर गर्व कर रहे थे परंतु मृत्यु एक ही चोट में शरीर को मार कर ले गये।
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गुरु जहाज हम पाबना,गुरु मुख पारि पराय
गुरु जहाज जाने बिना, रोबै घट खराय।
अर्थ- कबीर कहते है की मैंने गुरु रुपी जहाज को प्राप्त कर लिया है। जिसे यह जहाज मिल गया है वह निश्चय इस भव सागर को पार कर जायेगा। जिसे यह गुरु रुपी जहाज नहीं मिला वह किनारे खड़ा रोता रहेगा। गुरु के बिना मोक्ष संभव नहीं है।
चाकी चली गुपाल की, सब जग पीसा झार
रुरा सब्द कबीर का, डारा पात उखार।
अर्थ- परमात्मा के चलती चक्की में संसार के सभी लोग पिस रहे है। लेकिन कबीर का प्रवचन बहुत ताकतवर है। जो भ्रम और माया के पाट पर्दा को ही उघार देता है और मोह माया से लोगो की रक्षा हो जाती है।
बेटा जाय क्या हुआ, कहा बजाबै थाल
आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल।
अर्थ- पुत्र के जन्म से क्या हुआ? थाली पीट कर खुशी क्यों मना रहे हो? इस जगत में आना जाना लगा ही रहता है जैसे की एक नाली का कीड़ा पंक्ति बद्ध हो कर आजा जाता रहता है।
घड़ी जो बाजै राज दर, सुनता हैं सब कोये
आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाॅ ते होये।
अर्थ- राज दरवार में घड़ी का घंटा बज रहा है। सभी लोग उसे सुन रहे है। लोगो की आयु कम हो रही है। यौवन भी खिसक रहा है-तब जीवन का कल्याण कैसे होगा।
चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोये
दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।
अर्थ- चलती चक्की को देखकर कबीर रोने लगे। चक्की के दो पथ्थरों के बीच कोई भी पिसने से नहीं बच पाया। संसार के जन्म मरण रुपी दो चक्को के बीच कोई भी जीवित नहीं रह सकता है।
काल फिरै सिर उपरै, हाथौं धरी कमान
कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।
अर्थ- मृत्यु हाथों में तीर धनुष लेकर सबों के सिर पर चक्कर लगा रही है। समस्त घमंड अभिमान छोड़ कर प्रभु के नाम को पकड़ो-ग्रहण करो-तुम्हारी मुक्ति होगी।
अनुभव के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Experience in hindi)
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव
आतम द्रिष्टि कहां लिखै , जित देखो तित पीव।
अर्थ- कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है । वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है । आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है । हम तो जहाॅ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।
निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय
अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।
अर्थ- अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है ।
ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार
सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।
अर्थ- एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिये। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रृंगार करेगी।
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
अर्थ- परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात
दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।
अर्थ- परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक
जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।
अर्थ- हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
अर्थ- ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद
चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
अर्थ- जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
अर्थ- परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।
ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान
त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।
अर्थ- गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।
वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि
बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।
अर्थ- वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूँ।
अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल
आंखों से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।
अर्थ- वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है । वह अपने आॅखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है । अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है ।
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अर्थ- अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
पैसे के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for money in hindi)
कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार
ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।
अर्थ- कबीर कहते है की पशु अपने पास पैसा रुपया नही रखता है और न ही जूते पहनता है। वह दूसरे दिन प्रातः। काल के लिये भी कुछ नहीं बचा कर रखता है। फिर भी उसे सृजन हार प्रभु नहीं मिलते है। वाहय त्याग के साथ विवेक भी आवश्यक है।
कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट
सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।
अर्थ- कबीर कहते है की समस्त माया मोह पापिनी है। वे अनेक फंदा जाल लेकर बाजार में बैठी है। समस्त संसार इस फांस में पड़ा है पर कबीर इसे काट चुके है।
कबीर माया बेसबा, दोनु की ऐक जात
आबत को आदर करै, जात ना पुछ बात।
अर्थ- कबीर कहते है की माया और वेश्याकी एक जाति है। आने वालो का वह आदर करती है, पर जाने वालों से बात तक नहीं पूछती है।
कबीर माया मोहिनी, जैसे मीठी खांर
सदगुरु की कृपा भैयी, नाटेर करती भार।
अर्थ- कबीर कहते है की समस्त माया और भ्रम चीनी के मिठास की तरह आकर्षक होती है। प्रभु की कृपा है की उसने मुझे बरबाद होने से बचा लिया।
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।
अर्थ- कबीर कहते है की माया डाकू के समान है जो सबको खा जाता है। इसके दांत उखार दो। यह संतो के निकट जाने से ही संभव होगा। संतो की संगति से माया दूर होते
कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम
मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी नाम।
अर्थ- कबीर कहते है की माया पापिनी है। यह हमें परमात्मा से दूर कर देती है। यक मुंह को भ्रष्ट कर के हरि का नाम नहीं कहने देती है।
कबीर या संसार की, झुठी माया मोह
तिहि घर जिता बाघबना, तिहि घर तेता दोह।
अर्थ- कबीर कहते है की यह संसार का माया मोह झूठा है। जिस घर में जितना धन संपदा एवं रंग रैलियाँ है-वहाँ उतना ही अधिक दुख और तकलीफ है।
गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम
पूत पिता को मारसी ये माया को काम।
अर्थ- यदि शिष्य के पास पैसा हो तो वह गुरु को भी जहर दे सकता है। पुत्र पिता की हत्या कर सकता है। यही माया की करनी है।
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खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार
ऐक खबाबै साधु को, ऐक मिलाबै छार।
अर्थ- खाने और खर्च करनक में बहुत अंतर है। इसे मन में विचार कर देखो। एक आदमी संतों को खिलाता है और दुसरा उसे राख में फेंक देता है। संत को खिलाकर परोपकार करता है और मांस मदिरा पर खर्च कर के धन का नाश करता है।
मन तो माया उपजय, माया तिरगुन रुप
पांच तत्व के मेल मे, बंधय सकल स्वरुप।
अर्थ- माया मन में उतपन्न होता है। इसके तीन रुप हैसतोगुण, रजोगुण,तमोगुण। यह पांच तत्वों इंद्रियों के मेल से संपूर्ण विश्व को आसक्त कर लिया है।
माया गया जीव सब,ठारी रहै कर जोरि
जिन सिरजय जल बूंद सो, तासो बैठा तोरि।
अर्थ- प्रत्येक प्राणी माया के सम्मुख हाथ जोड़ कर खरे है। पर सृजन हार परमात्मा जिस ने जल के एक बूंद से सबों की सृष्टि की है उस से हमने अपना सब संबंध तोड़ लिया
माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये
एक मिलाबै हरि को, ऐक नरक लै जाये।
अर्थ- माया चार किस्म की होती है। एक तातकालिक आनंद देती है। दूसरा खा कर घोंट जाती है। एक हरि से संबंध बनाती है और एक सीधे नरक ले जाती है।
माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार
सपने पायो राज धन, जात ना लागे बार।
अर्थ- माया मोह का सुख चार दिनों का है। रे मूर्ख-तुम इस में तम पड़ो। जिस प्रकार स्वपन में प्राप्त राज्य धन को जाते दिन नहीं लगते है।
माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो हरि नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
अर्थ- माया जमा करने से कोई लाभ नहीं। इससे अंत समय में कोई काम नहीं होता है। केवल हरि नाम का संग्रह करी तो तुम्हारी मुक्ति सज संवर जायेगी।
माया दासी संत की, साकट की सिर ताज
साकट की सिर मानिनि, संतो सहेली लाज।
अर्थ- माया संतों की दासी और संसारीयों के सिर का ताज होती है। यह संसारी लोगों को खूब नचाती है लेकिन संतो के मित्र और लाज बचाने वाली होती है।
आंधी आयी ज्ञान की, ढाहि भरम की भीति
माया टाटी उर गयी, लागी हरि सो प्रीति।
अर्थ- जब ज्ञान की आंधी आती है तो भ्रम की दीवाल ढह जाती है। माया रुपी पर्दा उड़ जाती है और प्रभु से प्रेम का संबंध जुड़ जाता है।
बुद्धि के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Intelligence in hindi)
जिनमे जितनी बुद्धि है, तितनो देत बताय
वाको बुरा ना मानिये, और कहां से लाय।
अर्थ- जिसे जितना ज्ञान एंव बुद्धि है उतना वह बता देते हैं। तुम्हें उनका बुरा नहीं मानना चाहिये। उससे अधिक वे कहाँ से लावें। यहाँ संतो के ज्ञान प्राप्ति के संबंध कहा गया है।
कोई निन्दोई कोई बंदोई सिंघी स्वान रु स्यार
हरख विशाद ना केहरि,कुंजर गज्जन हार।
अर्थ- किसी की निन्दा एंव प्रशंसा से ज्ञानी व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता सियार या कुत्तों के भौंकने से सिंह पर कोई असर नहीं होता कारण वह तो हाथी को भी मार सकता है।
दुखिया मुआ दुख करि सुखिया सुख को झूर
दास आनंदित हरि का दुख सुख डारा दूर।
अर्थ- दुखी प्राणी दुख मे मरता रहता है एंव सुखी व्यक्ति अपने सुख में जलता रहता है पर ईश्वर भक्त हमेशा दुखसुख त्याग कर आनन्द में रहता है।
पाया कहे तो बाबरे,खोया कहे तो कूर
पाया खोया कुछ नहीं,ज्यों का त्यों भरपूर।
अर्थ- जो व्यक्ति कहता है कि उसने पा लिया वह अज्ञानी है और जो कहता है कि उसने खो दिया वह मूढ़ और अविवेकी है ईश्वर तत्व में पाना और खोना नहीं है कारण वह सर्वदा सभी चीजों में पूर्णत्व के साथ उपस्थित है।
हिंदु कहूँ तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहि
पंच तत्व का पूतला गैबी खेले माहि।
अर्थ- मैं न तो हिन्दु हूँ अथवा नहीं मुसलमान। इस पाँच तत्व के शरीर में बसने वाली आत्मा न तो हिन्दुहै और न हीं मुसलमान।
हिन्दू तो तीरथ चले मक्का मुसलमान
दास कबीर दोउ छोरि के हक्का करि रहि जान।
अर्थ- हिन्दू तीर्थ करने जाते हैं।मुसलमान मक्का जाते हैं। कबीर दास दोनो छोड़कर परमात्माके निवास आत्मा में बसते हैं।
अति का भला ना बोलना,अति की भली ना चूप
अति का भला ना बरसना, अति की भली ना धूप।
अर्थ- अधिक बोलना अथवा अधिक चुप रहना अच्छा नहीं होता जैसे की अधिक बरसना या अधिक धूप रहना अच्छा नहीं होता।
आबत सब जग देखिया, जात ना देखी कोई
आबत जात लखई सोई जाको गुरुमत होई।
अर्थ- बालक के जन्म को सब देखते हैं पर किसी की मत्य के बाद उसकी क्या दशा हुई-कोई नहीं जानता। आने-जाने के इस रहस्य को वही समझ पाता है जिसने गुरु से आत्म तत्व कर ज्ञान प्राप्त किया हो।
हिन्दू तुरक के बीच में मेरा नाम कबीर
जीव मुक्तवन कारने अबिकत धरा सरीर।
अर्थ- हिन्दू और मुस्लिम के बीच मेरा नाम कबीर है। मैंने अज्ञानी लोगों को अधर्म और पाप से मुक्त करने हेतु शरीर धारन किया है।
मांगन मरन समान है तोहि दयी मैं सीख
कहे कबीर समुझाइ के मति मांगे कोइ भीख।
अर्थ- कबीर शिक्षा देते हैं कि माँगना मृत्यु के समान है। कबीर समझाकर कहते है की कोई भी व्यक्ति भीख नहीं माँगे। यहाँ कबीर कर्मशील बनने की शिक्षा देते है।
तन का बैरी काई नहीं जो मन सीतल होय
तु आपा का डारि दे दया करे सब कोय।
अर्थ- यदि आप अपने मन को शांत एंव शीतल रखें तो कोई भी आपका दुश्मन नहीं होगा यदि आप अपनी प्रतिष्ठा एंव घमंड को दूर रखें तो सारा संसार आपको प्रेम करेगा।
तरुबर पात सो यूँ कहे सुनो पात एक बात
या घर यही रीति है एक आबत एक जात।
अर्थ- वृक्ष पत्तों से एक बात सुनने का आग्रह करता है की यहाँ संसार में एक आने और जाने का रिवाज है। जीवन एंव मृत्यु का यह चक्र अविरल चलता रहता है।
कबीर गर्व ना कीजिये उंचा देखि आवास
काल परौ भुयी लेटना उपर जमसी घास।
अर्थ- कबीर अपने उँचें गृह आवास को देखकर घमंड नहीं करने की सलाह देते हैं। संभव है कल्ह तुम्हें जमीन पर लेटना होगा जिस पर घास उगेंगे
चिउटी चावल ले चली बीच मे मिलि गयी दाल
कहे कबीर दौउ ना मिलै एक लै दूजी दाल।
अर्थ- चींटी चावल का दाना लेकर चली तो बीच में उसे दाल मिला पर वह दोनों नहीं पा सकती है। उसे एक छोड़ना पड़ेगा। प्रभु भक्तिके लिये उसे संसारिक माया-मोह छोड़ना होगा।
तन का बैरी कोई नहीं जो मन सीतल होये
तु आपा को डारी दे, दया करै सब कोई।
अर्थ- यदि तुम्हारा मन शांत,निर्मल एंव पवित्र है तो तुम्हारा कोई शत्रु नही है। यदि तुमने अपने मान-समान-अभिमान का परित्याग कर दिया है तो सारा संसार तुमसे प्रेम करेगा।
पाहन ही का देहरा पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा क्यों करि माने सेव।
अर्थ- पथ्थर के बने मंदिर में भगवान भी पथ्थर के हीं हैं। पूजारी अंधे की तरह विवेकहीन है तो ईश्वर उसकी पूजा से कैसे प्रसन्न होंगे।
मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर
तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।
अर्थ- शरीर मन के अनसार क्रियाशील है। अतः पहले मन पर नियंत्रन करें जो व्यक्ति अपने मन और शरीर दोनो का नियंत्रन कर लेता है वह शीघ्र ही एक अन्न के दाने से सुमेरु पर्वत के समान वैभवशील हो सकता है।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
कहे कबीर गुरु पाइये,मन ही के परतीत।
अर्थ- यदि मन से उत्साह पूर्वक जीत अनुभव करते हैं तो अवश्य आप की जीत होगी। यदि आप हदय से गरु की खोज करेंगे तो निश्चय ही आपको सदगुरु मिलकर रहेंगे।
जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर
सहजय हीरा नीपजय, जो मन आबै ठौर।
अर्थ- समुद्र मे जिस तरह असंख्य लहरें उठती है उसी प्रकार मन विचारों कर अनगिनत तरंगे आती-जाती है। यदि अपने मन को सहज, सरल और शांत कर लिया जाये तो सत्य का ज्ञान संभव है।
चिउटी चावल ले चली बीच मे मिलि गयी दाल
कहे कबीर दौउ ना मिलै एक लै दूजी दाल।
अर्थ- चींटी चावल का दाना लेकर चली तो बीच में उसे दाल मिला पर वह दोनों नहीं पा सकती है। उसे एक छोडना पड़ेगा। प्रभु भक्तिके लिये उसे संसारिक माया-मोह छोड़ना होगा।
जहां काम तहां नाम नहीं,जहां नाम नहि काम
दोनो कबहु ना मिलैय रवि रजनी एक ठाम।
अर्थ- जहाँ काम, वसाना, इच्छा हो वहाँ प्रभु नहीं रहते और जहाँ प्रभु रहते है वहाँ काम, वासना, इच्छा नहीं रह सकते। । इन दोनों का मिलन असंभव है जैसे सुर्य एंव रात्रि का मिलन नहीं हो सकता।
क्रोध के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Anger in hindi)
यह जग कोठी काठ की, चहुं दिश लागी आग
भीतर रहै सो जलि मुझे, साधू उबरै भाग।
अर्थ- यह संसार काठ के महल की भांति है जिसके चतुर्दिक आगलगी है। इसके अंदर का प्राणी जल मरता है पर साधु बचकर भाग जाता है। यहाँ क्रोध आग का परिचायक है। साधु समस्त क्रोध-विकार से वंचित है।
दसो दिशा से क्रोध की उठि अपरबल आग
शीतल संगत साध की तहां उबरिये भाग।
अर्थ- सम्पूर्ण संसार क्रोध की अग्नि से चतुर्दिक जल रहा है। यह आग अत्यंत प्रवल है। लेकिन संत साधु की संगति शीतल होती है जहाँ हम भाग कर बच सकते हैं।
छात्रों के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for students in hindi)
उलटे सुलटे बचन के, सीस ना मानै दुख
कहै कबीर संसार मे, सो कहिये गुरु मुख।
अर्थ- गुरु के सही गलत कथन से शिष्य कभी दुखी नहीं होता है। कबीर कहते है की वही शिष्य सच्चा गुरु मुख कहलाता है।
कबीर कुत्ता हरि का, मोतिया मेरा नाव
डोरी लागी प्रेम की, जित बैंचे तित जाव।
अर्थ- कबीर कहते है की वे हरि का कुत्ता है। उनका नाम मोतिया है। उन के गले में प्रेम की रस्सी बांधी गई है। उन्हें जिधर खींचा जाता है। वे उधर ही जाते है।
कबीर गुरु और साधु कु, शीश नबाबै जाये
कहै कबीर सो सेवका, महा परम पद पाये।
अर्थ- कबीर का कथन है की जो नित्य नियमतः गुरु और संत के चरणों में सिर झुकाता है वही गुरु का सच्चा सेवक महान पद प्राप्त कर सकता है।
कहै कबीर गरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर
जाका चित जासो बसै, सो तिहि सदा हजूर।
अर्थ- कबीर के कहते है की जिसके हृदय में गुरु के प्रति प्रेम रहता है। वह न तो कभी दूर न ही निकट होता है।। जिसका मन चित्त जहाँ लगा रहता है। वह सर्वदा गुरु के समझ ही हाजिर रहता है।
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल
लोक वेद दोनो गये, आगे सिर पर काल।
अर्थ- जो गुरु के आदेशों को नहीं मानता है और मनमाने ठंग से चलता है उसके दोनों लोक परलोक व्यर्थ हो जाते है। और भविश्य में काल मौत उसके सिर मंडराता रहता है।
गुरु आज्ञा लै आबही, गुरु आज्ञा लै जाये
कहै कबीर सो संत प्रिया, बहु बिध अमृत पाये।
अर्थ- जो गुरु की आज्ञा से ही कहीं आता जाता है वह संतो का प्रिय होता है। उसे अनेक प्रकार से अमृत की प्राप्ति होती है।
गुरुमुख गुरु आज्ञा चलै, छाड़ी देयी सब काम
कहै कबीर गुरुदेव को, तुरत करै प्रनाम।
अर्थ- गुरु का सच्चा शिष्य उनके आज्ञा के अनुसार ही सब काम को छोड़ कर चलता है। कबीर कहते है की वह गुरुदेव देखकर तुरंत झुक कर प्रणाम करता है।
आस करै बैकुंठ की, दुरमति तीनो काल
सुक्र कही बलि ना करै, तातो गयो पताल।
अर्थ- स्वर्ग की आशा में उसकी दुष्ट बुद्धि से उसके तीनों समय नष्ट हो गये। उसे गुरु शुक्राचार्य के आदेशों की। अवहेलना के कारण नरक लोक जाना पड़ा।
अनराते सुख सोबना, राते निन्द ना आये
ज्यों जाल छुटि माछरि, तलफत रैन बिहाये।
अर्थ- प्रभु प्रेम से बिमुख नीन्द में सोते है परन्तु उन्हें रात में निश्चिन्तता की नीन्द नहीं आती है। जल से बाहर मछली जिस तरह तड़पती रहती है उसी तरह उनकी रात भी तड़पती हुई बीतती है।
चतुर विवेकी धीर मत, छिमावान, बुद्धिवान
आज्ञावान परमत लिया, मुदित प्रफुलित जान।
अर्थ- एक भक्त समझदार, विवेकी,स्थिर विचार,क्षमाशील,बुद्धिमान,आज्ञाकारी,ज्ञानी एंव मन से सदा खुस रहने वाला होता है। ये सब भक्तके लक्षण है।
तु तु करु तो निकट हैं, दुर दुर करु तो जाये
ज्यों हरि राखै त्यों रहे, जो देबै सो खाये।
अर्थ- यदि प्रभु बुलाते है तो मैं निकट आ जाता हूँ। वे यदि दूर कहते है तो मैं बहुत दूर चला जाता हूँ। प्रभु को जिस प्रकार रखना होता है मैं वैसे ही रहता हूँ। वे जो भी खाने को देते है मैं वही खा कर रहता हूँ। मैं प्रभु पर पूरी तरह निर्भर हूँ।
फल करन सेवा करै, निश दिन जाँचै हरि
कहै कबीर सेवक नहीं, चाहै चैगुन भरी।
अर्थ- जो सेवक इच्छा पुर्ति के लिये सेवा करता है ईश्वर प्रतिदिन उसकी भक्ति की परीक्षा लेता है। कबीर कहते है की वह सेवक नहीं है। वह तो अपनी सेवा के बदले चार गुणा कीमत वसुलना चाहता है।
भोग मोक्ष मांगो नहि, भक्ति दान हरि देव
और नहि कछु चाहिये, निश दिन तेरी सेव।
अर्थ- प्रभु मैं आप से किसी प्रकार भोग या मोक्ष नही चाहता हूँ। मुझे आप भक्ति का दान देने की कृपा करें। मुझे अन्य किसी चीज की इच्छा नहीं है। केवल प्रतिदिन मैं आपकी सेवा करता रहूँ।
येह मन ताको दिजिये, सांचा सेवक होये
सिर उपर आरा सहै, तौ ना दूजा होये।
अर्थ- यह मन उन्हें अर्पित करों जो प्रभु का सच्चा सेवक हो। अगर उसके सिर पर आरा भी चले तब भी वह तुम्हें छोड़कर किसी अन्य की शरण में नहीं जाये।
माधव को भावै नहीं,सो हमसो जनि होये
सदगुरु लाजय आपना, साधु ना मानये कोये।
अर्थ- हे प्रभु मैं कोई ऐसा काम नहीं करूँ जो आपको अच्छा नहीं लगता हो। इस से प्रभु मेरे कारण लज्जित होते है और मुझे भी कोई संत नहीं मान सकता है।
साहिब के दरबार मे, कामी की नाहि
बंदा मौज ना पावही, चूक चाकरी माहि।
अर्थ- ईश्वर के दरवार में किसी चीज की कोई कमी नहीं है। यदि मुझे उनकी कृपा नहीं प्राप्त हो रही है तो मेरी सेवा में कोई कमी या खोट है।
सब कुछ हरि के पास है, पाइये आपने भाग
सेवक मन सौंपै रहै, रहे चरन मे लाग।
अर्थ- भगवान के पास सब कुछ है। हम उनसे अपने हिस्से का पा सकते है। भक्त सेवक अपना मन पुर्णरुपेन समर्पित कर उनके चरणों में आसक्ति रखें।
सतगुरु शब्द उलांघ कर, जो संवक कहु जाये
जहाँ जाये तहाँ काल है, कहै कबीर समुझाये।
अर्थ- प्रभु के वचतन को अनसुना कर यदि कोई भक्त सेवक कहीं अन्यत्र जाता है तो वह जहाँ जायेगा-मृत्यु उसका पीछा करेगा। कबीर इस तथ्य को समझा कर कहते है
सेवक के बल बहुत है, सबको करत अधीन
देव दनुज नर नाग सब, जेते जगत प्रवीन।
अर्थ- प्रभु का सेवक बहुत शक्ति शाली होता है। वह सबको अपने अधीन कर लेता है। देवता, आदमी, राक्षस,सांप इस विश्व के समस्त प्राणी उसके नियंत्रन मे हो जाते है।
सेवक फल मांगे नहीं, सेब करे दिन रात
कहै कबीर ता दास पर, काल करै नहि घात।
अर्थ- प्रभु का सेवक कुछ भी फल नहीं मांगता है। वह केवल दिन रात सेवा करता है। कबीर का कहना है की उस दास पर मृत्यु या काल भी चोट या नुक्सान नहीं कर सकता है।
वीरता के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Valor in hindi)
सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये
जैसे बाती दीप की कटि उजियारा होये।
अर्थ- सिर अंहकार का प्रतीक है। सिर बचाने से सिर चला जाता है-परमात्मा दूर हो जाता हैं। सिर कटाने से सिर हो। जाता है। प्रभु मिल जाते हैं जैसे दीपक की बत्ती का सिर काटने से प्रकाश बढ़ जाता है।
साधु सब ही सूरमा, अपनी अपनी ठौर
जिन ये पांचो चुरीया, सो माथे का मौर।
अर्थ- सभी संत वीर हैं-अपनी-अपनी जगह में वे श्रेष्ठ हैं। जिन्होंने काम,क्रोध,लोभ,मोह एंव भय को जीत लिया है वे संतों में सचमुच महान हैं।
सूरा के मैदान मे, कायर का क्या काम
सूरा सो सूरा मिलै तब पूरा संग्राम।
अर्थ- वीरों के युद्ध क्षेत्र में कायरों का क्या काम। जब वीर का मिलन होता है तो संग्राम पूरा होता है। जब एक साधक को ज्ञानी गुरु मिलते हैं तभी पूर्ण विजय मिलती है।
सूरा सोई जानिये, पांव ना पीछे पेख
आगे चलि पीछा फिरै, ताका मुख नहि देख।
अर्थ- साधना के राह में वह व्यक्ति सूरवीर है जो अपना कदम पीछे नहीं लौटाता है। जो इस राह में आगे चल कर पीछे मुड़ जाता है उसे कभी भी नहीं देखना चाहिये।
आगि आंच सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रस महा कठिन व्यवहार।
अर्थ- आग की लपट सहना और तलवार की धार की मार सहना सरल है किंतु प्रेम रस का निवहि अत्यंत कठिन व्यवहार है।
सूरा सोई जानिये, लड़ा पांच के संग
हरि नाम राता रहै, चढ़े सबाया रंग।
अर्थ- सूरवीर उसे जानो जो पाँच बिषय-विकारों के साथ लड़ता है। वह सर्वदा हरि के नाम में निमग्न रहता है और प्रभु की भक्ति में पूरी तरह रंग गया है।
आ प स्वार्थी मेदनी, भक्ति स्वार्थी दास
कबिरा नाम स्वार्थी, डारी तन की आस।
अर्थ- पृथ्वी जल के लिये इच्छा-स्वार्थ कड़ती है और भक्ति प्रभु के लिये आत्म समर्पण चाहती है। कबीर शरीर के लिये समस्त आशाओं को त्याग कर प्रभु नामक सूमिरण हेतु इच्छा रखते हैं।
उँचा तरुवर गगन फल, पंछी मुआ झुर
बहुत सयाने पचि गये, फल निरमल पैय दूर।
अर्थ- वृक्ष बहुत उँचा है और फल आसमान में लगा है-पक्षी बिना खाये मर गई। अनेक समझदार और चतुर व्यक्ति भी उस निर्मल पवित्र फल को खाये बिना मर गये। प्रभु की। भक्ति कठिन साधना के बिना संभव नहीं है।
हरि का गुन अति कठिन है, उँचा बहुत अकथ्थ
सिर काटि पगतर धरै, तब जा पहुँचैय हथ्थ।
अर्थ- प्रभु के गुण दुर्लभ,कठिन, अवर्णनीय और अनंत हैं। जो सम्पूर्ण आत्म त्याग कर प्रभु के पैर पर समर्पण करेगा वही प्रभु के निकट जाकर उनके गुणों को समझ सकता है।
अब तो जूझै ही बनै, मुरि चलै घर दूर
सिर सहिब को सौपते, सोंच ना किजैये सूर।
अर्थ- अब तो प्रभु प्राप्ति के युद्ध में जूझना ही उचित होगामुड़ कर जाने से घर बहुत दूर है। तुम अपने सिर-सर्वस्व का त्याग प्रभु को समर्पित करो। एक वीर का यही कत्र्तव्य है।
लालच के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for greed in hindi)
कबीर औधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि
तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।
अर्थ- कबीर के अनुसार लोगों की उल्टी खोपड़ी धन से कभी संतुष्ट नहीं होती तथा हमेशा सोचती है कि तीनों। लोकों की संमति कब उनके घर आ जायेगी।
जब मन लागा लोभ से, गया विषय मे भोय
कहै। कबीर विचारि के, केहि प्रकार धन होय।
अर्थ- जब लोगों का मन लोभी हो जाता है तो उसका मन बिषय भोग में रत हो जाता है और वह सब भूल जाता है। और इसी चिंता में लगा रहता है कि किस प्रकार धन प्राप्त हो।
बहत जतन करि कीजिये, सब फल जाय
नशाय कबीर संचय सूम धन, अंत चोर ले जाय।
अर्थ- अनेक प्रयत्न से लोग धन जमा करते है पर वह सब अंत में नाश हो जाता है। कबीर का मत है कि कंजूस व्यक्ति धन बहुत जमा करता है पर अंततः सभी चोर ले जाता है।
ज्ञानी
छारि अठारह नाव पढ़ि छाव पढ़ी खोया मूल
कबीर मूल जाने बिना,ज्यों पंछी चनदूल।
अर्थ- जिसने चार वेद अठारह पुरान,नौ व्याकरण और छह धर्म शास्त्र पढ़ा हो उसने मूल तत्व खो दिया है। कबीर मतानुसार बिना मूल तत्व जाने वह केवल चण्डूल पक्षी की तरह मीठे मीठे बोलना जानता है।
कबीर पढ़ना दूर करु, अति पढ़ना संसार
पीर ना उपजय जीव की, क्यों पाबै निरधार।
अर्थ- कबीर अधिक पढ़ना छोड़ देने कहते हैं। अधिक पढ़ना सांसारिक लोगों का काम है। जब तक जीवों के प्रति हृदय में करुणा नहीं उत्पन्न होता, निराधार प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पंडित कवि अनेक
हरि रटा निद्री जिता, कोटि मध्य ऐक।
अर्थ- ज्ञानी और ज्ञाता बहुतों मिले। पंडित और कवि भी अनेक मिले। किंतु हरि का प्रेमी और इन्द्रियजीत करोड़ों मे भी एक ही मिलते हैं।
पंडित पढ़ते वेद को, पुस्तक हस्ति लाद
भक्ति ना जाने हरि की, सबे परीक्षा बाद।
अर्थ- पंडित वेदों को पढ़ते है। हाथी पर लादने लायक ढेर सारी पुस्तकें पढ़ जाते हैं। किंतु यदि वे हरि की भक्ति नहीं जानते हैं तो उनका पढ़ना व्यर्थ है और उनकी परीक्षा बेकार चली जाती है।
पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर तप जु जगत का, घड़ी ना परती सान।
अर्थ- पढ़ते विचारते लोग रोगी हो जाते है। मन में अभिमान भी बहुत बढ़ जाता है। किंतु मन के भीतर सांसारिक बिषयों का ताप एक क्षण को भी शांति नहीं देता।
पढ़ि पढ़ि और समुझाबै, खोजि ना आप शरीर
आपहि संसय मे परे, यूँ कहि दास कबीर।
अर्थ- पढ़ते-पढ़ते और समझाते भी लोग अपने शरीर को मन को नहीं जान पाता हैं। वे स्वयं भ्रम में पड़े रहते हैं। अधिक पढ़ना व्यर्थ है। अपने अन्तरात्मा को पहचाने।
पढ़ि गुणि ब्राहमन भये, किरती भई संसार
बस्तु की तो समझ नहीं, ज्यों खर चंदन भार।
अर्थ- पढ़ लिख कर ब्राहमण हो गये और संसार में उसकी कीर्ति भी हो गई किंतु उसे वास्तविकता और सरलता की समझ नहीं हो सकी जैसे गधा को चंदन का महत्व नहीं। मालूम रहता है। पढ़ना और गदहे पर चंदन का बोझ लादने के समान है।
ब्राहमिन गुरु है जगत का, संतन का गुरु नाहि
अरुझि परुझि के मरि गये, चारों वेदो माहि।
अर्थ- ब्राहमण दुनिया का गुरु हो सकता है पर संतो का गुरु नहीं हो सकता ब्राहमण चारों वेदों में उलझ-पुलझ कर मर जाता हैं पर उन्हें परमात्मा के सत्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है।
चतुराई पोपट पढ़ी, परि सो पिंजर माहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझेये नाहि।
अर्थ- चालाकी और चतुराई व्यर्थ है। जिस प्रकार तोता पढकर भी पिंजड़े में बंद रहता है। पढाक पढता भी है और उपदेश भी करता है परंतु स्वयं कुछ भी नहीं समझता।
कबीर पढना दूर करु, पोथी देह बहाइ
बाबन अक्षर सोधि के, हरि नाम लौ लाइ।
अर्थ- कबीर का मत है कि पढ़ना छोड़कर पुस्तकों को पानी मे प्रवाहित कर दो। बावन अक्षरों का शोधन करके केवल हरि पर लौ लगाओ और परमात्मा पर ही ध्यान केंद्रित करों।
कलि का ब्राहमिन मसखरा ताहि ना दीजय दान
कुटुम्ब सहित नरकै चला, साथ लिया यजमान।
अर्थ- कलियुग का ब्राहमण जोकर सदश्य है। उसे कोई दान-दक्षिणा मत दें। वह स्वयं तो अपने परिवार के साथ नरक जायेगा ही अपने यजमान को भी साथ नरक लेता जायेगा-क्योकि वह पाखंडी होता है।
पढ़ि पढ़ि जो पत्थर भया, लिखि लिखि भया जु चोर
जिस पढ़ने साहिब मिले, सो पढ़ना कछु और।
अर्थ- आदमी पढ़ते-पढ़ते पथ्थर जैसा जड़ और लिखतेलिखते चोर हो गया है। जिस पढ़ाई से प्रभु का दर्शन सम्भव होता है-वह पढ़ाई कुछ भिन्न प्रकार का है। हमें सत्संग ज्ञान की पढ़ाई पढ़नी चाहिये।
ब्राहमन से गदहा भला, आन देब ते कुत्ता
मुलना से मुर्गा भला, सहर जगाबे सुत्ता।
अर्थ- ब्राम्हण से गधा अच्छा है जो परिश्रम से घास चरता है। पथ्थर के देवता से कुत्ता अच्छा है जो घर का पहरा देकर रक्षा करता है। एक मौलवी से मुर्गा अच्छा है जो सोये शहर को जगाता है।
हरि गुन गाबै हरशि के, हृदय कपट ना जाय
आपन तो समुझय नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय।
अर्थ- अपने हृदय के छल कपट को नहीं जान पाते हैं। खुद तो कुछ भी नहीं समझ पाते है परन्तु दूसरों के समक्ष अपना ज्ञान बघारते है।
पढ़ि पढ़ाबै कछु नहीं, ब्राहमन भक्ति ना जान
व्याहै श्राधै कारनै, बैठा सुन्दा तान।
अर्थ- ब्राहमण पढ़ते पढ़ाते कुछ भी नहीं हैं और भक्ति के विषय में कुछ नहीं जानते हैं पर शादी व्याह या श्राद्धकर्म कराने में लोभ वश मुँह फाड़ कर बैठे रहते हैं।
पढ़ि गुणि पाठक भये, समुझाये संसार
आपन तो समुझे नहीं, बृथा गया अवतार।
अर्थ- पढ़ते और विचारते विद्वान तो हो गये तथा संपूर्णसंसार को समझाने लगे किंतु स्वयं को कुछ भी समझ नहीं आया और उनका जन्म व्यर्थ चला गया।
कबीर ब्राहमन की कथा, सो चोरन की नाव
सब मिलि बैठिया, भावै तहं ले जाइ।
अर्थ- कबीर के अनुसार अविवेकी ब्राम्हण की कथा चोरों की नाव की भांति है। पता नहीं अधर्म और भ्रम उन्हें कहाँ ले जायेगा?
नहि कागद नहि लेखनी, नहि अक्षर है सोय
बाांचहि पुस्तक छोरिके, पंडित कहिय सोय।
अर्थ- बिना कागज,कलम या अक्षर ज्ञान के पुस्तक छोड़कर जो संत आत्म-चिंतन और मनन करता है उसे हीं पंडित कहना उचित है।
पढ़ते गुनते जनम गया, आशा लगि हेत
बोया बिजहि कुमति ने, गया जु निरमल खेत।
अर्थ- पढ़ते विचारते जन्म बीत गया किंतु संसारिक आसक्ति लगी रही। प्रारम्भ से कुमति के बीजारोपण ने मनुष्य शरीर रुपी निर्मल खेत को भी बेकार कर दिया।
पढ़ना लिखना चातुरी, यह तो काम सहल्ल
काम दहन मन बसिकरन गगन चढ़न मुस्कल्ल।
अर्थ- पढ़ना लिखना चतुराई का आसान काम है किंतु इच्छाओं और वासना का दमन और मन का नियंत्रण आकाश पर चढ़ने की भांति कठिन है।
पढे गुणै सिखै सुनै, मिटी ना संसै सूल
कहै कबीर कासो कहूँ, ये ही दुख का मूल।
अर्थ- सुनने,चिंतन,सीखने और पढ़ने से मन का भ्रम नहीं मिटा। कबीर किस से कहें कि समस्त दुखों का मूल कारण यही है।
प्यार के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for love in hindi)
आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
अर्थ- अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।
कहाँ भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।
अर्थ- शरीर बिछुड़ने और दूर में वसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है। मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है।
नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि
चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि।
अर्थ- प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है। सबों से इसको निभाना नहीं हो पाता है। जैसे मोम के घोड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है।
प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।
अर्थ- प्रेम कभी भी पुरानी नहीं होती यदि अच्छी तरह प्रेम की गई हो जैसे सौ वर्षों तक भी वर्षा में रहने पर भी पथ्थर से आग अलग नहीं होता।
प्रेम पंथ मे पग धरै, देत ना शीश डराय
सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।
अर्थ- प्रेम के राह में पैर रखने वाले को अपने सिर काटने का डर नहीं होता। उसे स्वप्न में भी भ्रम नहीं होता और उसके पुनर्जन्म का अंत हो जाता है।
प्रेम पियाला सो पिये शीश दक्षिना देय
लोभी शीश ना दे सके, नाम प्रेम का लेय।
अर्थ- प्रेम का प्याला केवल वही पी सकता है जो अपने सिर का वलिदान करने को तत्पर हो। एक लोभी-लालची अपने सिर का वलिदान कभी नहीं दे सकता भले वह कितना भी प्रेम-प्रेम चिल्लाता हो।
प्रेम ना बारी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहि रुचै,शीश देयी ले जाय।
अर्थ- प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और न हीं बाजार में विकता है। राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानि सर्वस्व त्याग कर प्रेम प्राप्त कर । सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है।
प्रीति बहुत संसार मे, नाना बिधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिय, हरि नाम से जो होय।
अर्थ- संसार में अपने प्रकार के प्रेम होते हैं। बहुत सारी चीजों से प्रेम किया जाता है। पर सर्वोत्तम प्रेम वह है जो हरि के नाम से किया जाये।
प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
जा मारग हरि जी मिलै, प्रेम कहाये सोई।
अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम बोलते-कहते हैं परंतु प्रेम को कोई नहीं जानता है। जिस मार्ग पर प्रभु का दर्शन हो जाये वही सच्चा प्रेम का मार्ग है।
प्रेरेम भक्ति मे रचि रहै, मोक्ष मुक्ति फल पाय
सब्द माहि जब मिली रहै, नहि आबै नहि जाय।
अर्थ- जो प्रेम और भक्ति में रच-बस गया है उसे मुक्ति और मोझ का फल प्राप्त होता है। जो सद्गुरु के शब्दों-उपदेशों से घुल मिल गया हो उसका पुनः जन्म या मरण नहीं होता है।
प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।
अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम कहते है किंतु प्रेम को शायद हीं कोई जानता है। यदि कोई व्यक्ति आठो पहर प्रेम में भीन्गा रहे तो उसका प्रेम सच्चा कहा जायेगा।
हम तुम्हरो सुमिरन करै, तुम हम चितबौ नाहि
सुमिरन मन की प्रीति है, सो मन तुम ही माहि।
अर्थ- हम ईश्वर का सुमिरण करते हैं परंतु प्रभु मेरी तरफ कभी नहीं देखते है। सुमिरण मन का प्रेम है और मेरा मन सर्वदा तुम्हारे ही पास रहता है।
सौ जोजन साजन बसै, मानो हृदय मजहार
कपट सनेही आंगनै, जानो समुन्दर पार।
अर्थ- वह हृदय के पास हीं बैठा है। किंतु एक झूठा-कपटी प्रेमी अगर आंगन में भी बसा है तो मानो वह समुद्र के उसपार बसा है।
साजन सनेही बहुत हैं, सुख मे मिलै अनेक
बिपति परै दुख बाटिये, सो लाखन मे ऐक।
अर्थ- सुख मे अनेक सज्जन एंव स्नेही बहुतायत से मिलते हैं पर विपत्ति में दुख वाटने वाला लाखों में एक ही मिलते है।
यह तो घर है प्रेम का, उंचा अधिक ऐकांत
सीस काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।
अर्थ- यह घर प्रेम का है। बहुत उँचा और एकांत है। जो अपना शीश काट कर पैरों के नीचे रखने को तैयार हो तभी कोई संत इस घर में प्रवेश कर सकता है। प्रेम के लिये सर्वाधिक त्याग की आवश्यकता है।
सही हेतु है तासु का, जाको हरि से टेक टेक
निबाहै देह भरि, रहै सबद मिलि ऐक।
अर्थ- ईश्वर से प्रेम ही वास्तविक प्रेम है। हमे अपने शक्तिभर इस प्रेम का निर्वाह करना चाहिये और गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करना चाहिये।
हरि रसायन प्रेम रस, पीबत अधिक रसाल
कबीर पिबन दुरलभ है, मांगे शीश कलाल।
अर्थ- हरि नाम की दवा प्रेम रस के साथ पीने में अत्यंत । मधुर है। कबीर कहते हैं कि इसे पीना अत्यंत दुर्लभ है क्यों कि यह सिर रुपी अंहकार का त्याग मांगता है।
सबै रसायन हम किया, प्रेम समान ना कोये
रंचक तन मे संचरै, सब तन कंचन होये।
अर्थ- समस्त दवाओं-साधनों का कबीर ने उपयोग किया परंतु प्रेम रुपी दवा के बराबर कुछ भी नहीं है। प्रेम रुपी साधन का अल्प उपयोग भी हृदय में जिस रस का संचार करता है उससे सम्पूर्ण शरीर स्वण समान उपयोगी हो जाता है।
यह तट वह तट ऐक है, ऐक प्रान दुइ गात
अपने जीये से जानिये, मेरे जीये की बात।
अर्थ- प्रेम की धनिष्टता होने पर प्रेमी और प्रिय दोनों एक हो जाते हैं। वस्तुतः वे एक प्राण और दो शरीर हो जाते हैं। अपने हृदय की अवस्था जानकर अपने प्रेमी के हृदय की स्थिति जान जाते हैं।
प्रेरेम बिना धीरज नहि, विरह बिना वैराग
ज्ञान बिना जावै नहि, मन मनसा का दाग।
अर्थ- धीरज से प्रभु का प्रेम प्राप्त हो सकता है। प्रभु से विरह की अनुभूति हीं बैराग्य को जन्म देता है। प्रभु के ज्ञान बिना मन से इच्छाओं और मनोरथों को नहीं मिठाया जा सकता है।
प्रेरेम छिपाय ना छिौ, जा घट परगट होय
जो पाऐ मुख बोलै नहीं, नयन देत है रोय।
अर्थ- हृदय का प्रेम किसी भी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता । वह मुहँ से नहीं बोलता है पर उसकी आँखे प्रेम की विह्वलता के कारण रोने लगता है।