तुलसीदास |
भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास को राम चरित मानस’ के कारण अमर पद प्राप्त है। भगवान राम को समाज के सम्मुख रखकर उन्होने जिन आदशों की स्थापना की है। वे समय के परवाह में कदापि नष्ट नहीं हो सकते।
तुलसीदास का जन्म दिन और स्थान
परन्त आधुनिक विद्वान इनका जन्म संवत् 1589 भाद्रपद शुक्ला 11, मंगलवार के दिन मानते हैं। तुलसीदास जिला बान्दा के राजापुर गांव के निवासी थे।
तुलसीदास के माता पिता का नाम
उनके पिता आत्माराम दुबे बाह्मण थे और उनकी माता का नाम हुलसी था। माता के नाम का संकेत तुलसी साहित्य के अन्तर्गत भी मिलता है। यथा :-
रामहिं प्रिय पावन तुलसी सी।
तुलसी दास हित हिय हुलसी सी॥
कहते हैं, जन्म के समय तुलसीदास ने राम नाम का उच्चारण किया था। इसलिए इन्हें ‘रामबोला’ के नाम से भी जाना जाता है। रामबोला के जन्म के तीन दिन पश्चात् इनकी माता का देहान्त हो गया था।
तुलसीदास को दासी चुनिया इनके पिता के पास ले गई। किन्तु पिता ने अमंगल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण उसे लेने से इन्कार कर दिया। लगभग पांच वर्ष उपरांत चुनिया भी सर्पदंश से परलोक सिधार गईं।
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तुलसीदास के गुरु और शिक्षा
परिणामस्वरूप, बालक तुलसीदास का बचपन बड़े संकट में बीता। वे द्वार-द्वार भीख मांगने लगे। सौभाग्यवश बालक तुलसीदास को साधु नरहरिदास मिल गये जिन्होंने इनका पालन-पोषण किया और दीक्षा भी दी।
गुरु नरहरि दास अपने शिष्य तुलसीदास को काशी ले आए जहां उन्होंने सनातन नामक विद्वान से पुराण, इतिहास और काव्य-कला का अध्ययन किया। उनका अध्ययन काल पन्द्रह वर्ष बताया जाता है।
तुलसीदास का विवाह
विद्याध्ययन के पश्चात् तुलसीदास घर लौटे। उनका विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से सम्पन्न हो गया। गोस्वामी तुलसीदास का पत्नी प्रेम प्रसिद्ध है।
कहते हैं कि पत्नी के अपने मायके चले जाने के कारण तुलसीदास प्रेम विह्वल होकर घोर वर्षा में भी उसके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे। रत्नावली बड़ी लज्जित हुई और उन्हें फटकारते हुए बोली :-
लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक्-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहाँ मैं नाथ ॥
अस्थि चर्म इह देह मम, ता में ऐसी प्रीति।
होती जो श्रीराम महं, होति न भव भीति॥
सन्यासी बनने का कारण
पत्नी के फटकार भरे शब्दों को सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके जीवन में परिवर्तन आ गया वे ‘श्री राम महं’ प्रीति का मंत्र लेकर संन्यासी बन कर निकल पड़े।
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तुलसीदास की यात्राएं और सत्संग
उन्होंने उत्तर में मान सरोवर और दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वरम् तक की यात्रा की थी। चित्रकूट इनका सर्वप्रिय स्थान था। काशी, प्रयाग और अयोध्या तो इनके स्थायी स्थान थे ही।
विद्वानों का ऐसा मानना है कि तुलसीदास ने पच्चीस वर्ष तक सतत् यात्रा की और अनेक भक्तों एवं महात्माओं के सत्संग का आनन्द-लाभ उठाया।
तुलसीदास की मुलाकात
भक्त सूरदास ने विशेष रूप से इनसे भेंट की थी। कवि केशव दास, अबुर्रहीम खानखाना और मीराबाई से इनकी भेंट होने की बात भी प्रचलित है।
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तुलसीदास की रचनाएँ
हिन्दी के हस्तलिखित खोज विवरणों के अनुसार तुलसी कृत उनतालीस रचनाएं मानी जाती हैं। इनमें से –
- राम लला
- नहछू रामाज्ञा प्रश्न
- जानकी मंगल
- राम चरित मानस
- पार्वती मंगल
- गीतावली
- कृष्ण गीतावली
- विनय पत्रिका
- बरवै रामायण
- दोहावली
कवितावली और हनुमान वाहुक इनकी प्रामाणिक रचनाएं हैं।
तुलसीदास ने प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार की उत्कृष्ट रचनाएं की। राम चरित मानस हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है।
राम लला नहछू और दोनों मंगल खण्ड काव्य तथा गीतावली, कृष्ण गीतावली और विनय पत्रिका हिन्दी के सर्वोत्तम गीतिकाव्यों में से हैं।
गोस्वामी तुलसीदास का दोनों साहित्यिक भाषाओं- अवधी और ब्रज पर एक साथ जितना अधिकार था, ऐसा हिन्दी साहित्य में न किसी को पहले मिला और न बाद में।
प्रसिद्ध रचना रामचरितमानस
उन्होंने रामचरितमानस में आदर्श समाज व्यवस्था, राजा, प्रजा, ऊंच-नीच आदि संबंधों का विशद विवेचन किया है। उन्होंने विभिन्न मत-मतान्तरों के समन्वय पर बल दिया। वे हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने वाले प्रतिनिधि कवि हैं।
उनके राम चरित मानस के संबंध में अबुर्रहीम खानखाना का निम्नलिखित दोहा बड़ा प्रसिद्ध है :
राम चरित मानस विमल, संतन जीवन प्रान।
हिन्दुवन को वेद सम, जमनहिं प्रगट कुरान॥
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तुलसीदास की मृत्यु और स्थान
राम चरित मानस की रचना के पश्चात् भक्त तुलसीदास आत्म साधना में लग गये। उन्होंने संवत् 1680 में काशी में परलोक गमन किया। इस संबंध में एक दोहा प्रसिद्ध है :
संवत् सोरह सौ अस्सी, अस्सी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो, शरीर॥
गोस्वामी तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त, पण्डित, समाज सुधारक, लोक नायक, भविष्य द्रष्टा और स्रष्टा थे। उनकी रचनाओं में संसार का आधारभूत सिद्धांत मर्यादा, माधुर्य और समन्वय रहा है।
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