चिड़िया की बच्ची (Story In Hindi For Class 7th)
धन की कमी नहीं है और कोई व्यसन छू नहीं गया है। सुंदर अभिरुचि के आदमी हैं। फूल-पौधे, रकाबियों से हौज़ों में लगे फव्वारों में उछलता हुआ पानी उन्हें बहुत अच्छा लगता है। समय भी उनके पास काफ़ी है।
शाम को जब दिन की गरमी ढल जाती है और आसमान कई रंग का हो जाता है तब कोठी के बाहर चबूतरे पर तख्त डलवाकर मसनद के सहारे वह गलीचे पर बैठते हैं और प्रकृति की छटा निहारते हैं।
इनमें मानो उनके मन को तृप्ति मिलती है। मित्र हुए तो उनसे विनोद-चर्चा करते हैं, नहीं तो पास रखे हुए फर्शी हुक्के की सटक को मुँह में दिए खयाल ही खयाल में संध्या को स्वप्न की भाँति गुज़ार देते हैं।
आज कुछ-कुछ बादल थे। घटा गहरी नहीं थी। धूप का प्रकाश उनमें से छन-छनकर आ रहा था। माधवदास मसनद के सहारे बैठे थे। उन्हें जिंदगी में क्या स्वाद नहीं मिला है? पर जी भरकर भी कुछ खाली सा रहता है।
उस दिन संध्या समय उनके देखते-देखते सामने की गुलाब की डाली पर एक चिड़िया आन बैठी। चिड़िया बहुत सुंदर थी। उसकी गरदन लाल थी और गुलाबी होते-होते किनारों पर जरा-जरा नीली पड़ गई थी।
पंख ऊपर से चमकदार स्याह थे। उसका नन्हा सा सिर तो बहुत प्यारा लगता था और शरीर पर चित्र-विचित्र चित्रकारी थी। चिड़िया को मानो माधवदास की सत्ता का कुछ पता नहीं था और मानो तनिक देर का आराम भी उसे नहीं चाहिए था।
कभी पर हिलाती थी, कभी फुदकती थी। वह खूब खुश मालूम होती थी। अपनी नन्ही सी चोंच से प्यारी-प्यारी आवाज़ निकाल रही थी।
माधवदास को वह चिड़िया बड़ी मनमानी लगी। उसकी स्वच्छंदता बड़ी प्यारी जान पड़ती थी। कुछ देर तक वह उस चिड़िया का इस डाल से उस डाल थिरकना देखते रहे। इस समय वह अपना बहुत-कुछ भूल गए।
उन्होंने उस चिड़िया से कहा, “आओ, तुम बड़ी अच्छी आईं। यह बगीचा तुम लोगों के बिना सूना लगता है। सुनो चिड़िया तुम खुशी से यह समझो कि यह बगीचा मैंने तुम्हारे लिए ही बनवाया है। तुम बेखटके यहाँ आया करो।”
चिड़िया पहले तो असावधान रही। फिर जानकर कि बात उससे की जा रही है, वह एकाएक तो घबराई। फिर संकोच को जीतकर बोली, “मुझे मालूम नहीं था कि यह बगीचा आपका है। मैं अभी चली जाती हूँ।
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पलभर साँस लेने मैं यहाँ टिक गई थी।” माधवदास ने कहा, “हाँ, बगीचा तो मेरा है। यह संगमरमर की कोठी भी मेरी है। लेकिन, इस सबको तुम अपना भी समझ सकती हो। सब कुछ तुम्हारा है। तुम कैसी भोली हो, कैसी प्यारी हो। जाओ नहीं, बैठो। मेरा मन तुमसे बहुत खुश होता है।”
चिड़िया बहुत-कुछ सकुचा गई। उसे बोध हुआ कि यह उससे गलती तो नहीं हुई कि वह यहाँ बैठ गई है। उसका थिरकना रुक गया। भयभीत-सी वह बोली, “मैं थककर यहाँ बैठ गई थी। मैं अभी चली जाऊँगी। बगीचा आपका है। मुझे माफ़ करें!”
माधवदास ने कहा, “मेरी भोली चिड़िया, तुम्हें देखकर मेरा चित्त प्रफुल्लित हुआ है। मेरा महल भी सूना है। वहाँ कोई भी चहचहाता नहीं है। तुम्हें देखकर मेरी रागनियों का जी बहलेगा। तुम कैसी प्यारी हो, यहाँ ही तुम क्यों न रहो?”
चिड़िया बोली, “मैं माँ के पास जा रही हूँ, सूरज की धूप खाने और हवा से खेलने और फूलों से बात करने मैं ज़रा घर से उड़ आई थी, अब साँझ हो गई है और माँ के पास जा रही हूँ। अभी-अभी मैं चली जा रही हूँ। आप सोच न करें।”
माधवदास ने कहा, “प्यारी चिड़िया, पगली मत बनो। देखो, तुम्हारे चारों तरफ़ कैसी बहार है। देखो, वह पानी खेल रहा है, उधर गुलाब हँस रहा है। भीतर महल में चलो, जाने क्या-क्या न पाओगी! मेरा दिल वीरान है।
वहाँ कब हँसी सुनने को मिलती है? मेरे पास बहुत सा सोना-मोती है। सोने का एक बहुत सुंदर घर मैं तुम्हें बना दूंगा, मोतियों की झालर उसमें लटकेगी। तुम मुझे खुश रखना। और तुम्हें क्या चाहिए! माँ के पास बताओ क्या है? तुम यहाँ ही सुख से रहो, मेरी भोली गुड़िया।”
चिड़िया इन बातों से बहुत डर गई। वह बोली, “मैं भटककर तनिक आराम के लिए इस डाली पर रुक गई थी। अब भूलकर भी ऐसी गलती नहीं होगी। मैं अभी यहाँ से उड़ी जा रही हूँ। तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं।
मेरी माँ के घोंसले के बाहर बहुतेरी सुनहरी धूप बिखरी रहती है। मुझे और क्या करना है? दो दाने माँ ला देती है और जब मैं पर खोलने बाहर जाती हूँ तो माँ मेरी बाट देखती रहती है। मुझे तुम और कुछ मत समझो, मैं अपनी माँ की हूँ।”माधवदास ने कहा, “भोली चिड़िया, तुम कहाँ रहती हो? तुम मुझे नहीं जानती हो?”
चिडिया, “मैं माँ को जानती हूँ, भाई को जानती हूँ, सूरज को और उसकी धूप को जानती हूँ। घास, पानी और फूलों को जानती हूँ। महामान्य, तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानती।”
माधवदास, “तुम भोली हो चिड़िया! तुमने मुझे नहीं जाना, तब तुमने कुछ नहीं जाना। मैं ही तो हूँ सेठ माधवदास। मेरे पास क्या नहीं है! जो माँगो, मैं वही दे सकता हूँ।”
चिड़िया, “पर मेरी तो छोटी सी जात है। आपके पास सब कुछ है। तब मुझे जाने दीजिए।”
माधवदास, “चिड़िया, तू निरी अनजान है। मुझे खुश करेगी तो तुझे मालामाल कर सकता हूँ।” ।
चिड़िया, “तुम सेठ हो। मैं नहीं जानती, सेठ क्या। होता है। पर सेठ कोई बड़ी बात होती होगी। मैं अनसमझ ठहरी। माँ मुझे बहुत प्यार करती है। वह मेरी राह देखती। होगी। मैं मालामाल होकर क्या होऊँगी, मैं नहीं जानती। मालामाल किसे कहते हैं? क्या मुझे वह तुम्हारा मालामाल होना चाहिए?”
सेठ, “अरी चिड़िया तुझे बुद्धि नहीं है। तू सोना नहीं जानती, सोना? उसी की जगत को तृष्णा है। वह सोना मेरे पास ढेर का ढेर है।
तेरा घर समूचा सोने का होगा। ऐसा पिंजरा बनवाऊँगा कि कहीं दुनिया में न होगा, ऐसा कि तू देखती रह जाए। तू उसके भीतर थिरक-फुदककर मुझे खश करियो। तेरा भाग्य खुल जाएगा। तेरे पानी पीने की कटोरी भी सोने की होगी।”
चिड़िया, “वह सोना क्या चीज़ होती है?” सेठ, “तू क्या जानेगी, तू चिड़िया जो है। सोने का मूल्य सीखने के लिए तुझे बहुत सीखना है। बस, यह जान ले कि सेठ माधवदास तुझसे बात कर रहा है।
जिससे मैं बात तक कर लेता हूँ उसकी किस्मत खुल जाती है। तू अभी जग का हाल नहीं जानती। मेरी कोठियों पर कोठियाँ हैं, बगीचों पर बगीचे हैं।
दास-दासियों की संख्या नहीं है। पर तुझसे मेरा चित्त प्रसन्न हुआ है। ऐसा वरदान कब किसी को मिलता है? री चिड़िया! तू इस बात को समझती क्यों नहीं?”
चिड़िया, “सेठ, मैं नादान हूँ। मैं कुछ समझती नहीं। पर, मुझे देर हो रही है। माँ मेरी बाट देखती होगी।”
सेठ, “ठहर-ठहर, इस अपने पास के फूल को तूने देखा? यह एक है। ऐसे अनगिनती फूल हैं। ऐसे अनगिनती फूल मेरे बगीचों में हैं। वे भाँति-भाँति के रंग के हैं। तरह-तरह की उनकी खुशबू हैं। चिड़िया, तैंने मेरा चित्त प्रसन्न किया है और वे सब फूल तेरे लिए खिला करेंगे।
वहाँ घोंसले में तेरी माँ है, पर माँ क्या है? इस बहार के सामने तेरी माँ क्या है? वहाँ तेरे घोंसले में कुछ भी तो नहीं है। तू अपने को नहीं देखती? कैसी सुंदर तेरी गरदन। कैसी रंगीन देह! तू अपने मूल्य को क्यों नहीं देखती? मैं तुझे सोने से मढ़कर तेरे मूल्य को चमका दूँगा। तैंने मेरे चित्त को प्रसन्न किया है। तू मत जा, यहीं रह।”
चिड़िया, “सेठ, मैं अपने को नहीं जानती। इतना जानती हूँ कि माँ मेरी माँ है और मुझे यहाँ देर हो रही है। सेठ, मुझे रात मत करो, रात में अँधेरा बहुत हो जाता है और मैं राह भूल जाऊँगी।”
सेठ ने कहा, “अच्छा, चिड़िया जाती हो तो जाओ। पर, इस बगीचे को अपना ही समझो। तुम बड़ी सुंदर हो।”
यह कहने के साथ ही सेठ ने एक बटन दबा दिया। उसके दबने से दूर कोठी के अंदर आवाज़ हुई जिसे सुनकर एक दास झटपट भागकर बाहर आया। यह सब छनभर में हो गया और चिड़िया कुछ भी नहीं समझी।
सेठ कहते रहे, “तुम अभी माँ के पास जाओ। माँ बाट देखती होगी। पर, कल आओगी न? कल आना, परसों आना, रोज़ आना।” यह कहते-कहते दास को सेठ ने इशारा कर दिया और वह चिड़िया को पकड़ने के जतन में चला।
सेठ कहते रहे, “सच तुम बड़ी सुंदर लगती हो! तुम्हारे भाई-बहिन हैं? कितने भाई-बहिन हैं?”चिड़िया, “दो बहिन, एक भाई। पर मुझे देर हो रही है।” “हाँ हाँ जाना। अभी तो उजेला है। दो बहन, एक भाई है? बड़ी अच्छी बात है।
” पर चिड़िया के मन के भीतर जाने क्यों चैन नहीं था। वह चौकन्नी हो-हो चारों ओर देखती थी। उसने कहा, “सेठ मुझे देर हो रही है।” सेठ ने कहा, “देर अभी कहाँ? अभी उजेला है, मेरी प्यारी चिड़िया! तुम अपने घर का इतने और हाल सुनाओ। भय मत करो।”
चिड़िया ने कहा, “सेठ मुझे डर लगता है। माँ मेरी दूर है। रात हो जाएगी तो राह नहीं सूझेगी।”
इतने में चिड़िया को बोध हुआ कि जैसे एक कठोर स्पर्श उसके देह को छू गया। वह चीख देकर चिचियाई और एकदम उड़ी। नौकर के फैले हुए पंजे में वह आकर भी नहीं आ सकी। तब वह उड़ती हुई एक साँस में माँ के पास गई
और माँ की गोद में गिरकर सुबकने लगी, “ओ माँ, ओ माँ!” चिड़िया की बच्ची माँ ने बच्ची को छाती से चिपटाकर पूछा, “क्या है मेरी बच्ची, क्या है?”
पर, बच्ची काँप-काँपकर माँ की छाती से और चिपक गई, बोली कुछ नहीं, बस सुबकती रही, “ओ माँ, ओ माँ!”
बड़ी देर में उसे ढाढ़स बँधा और तब वह पलक मीच उस छाती में ही चिपककर सोई। जैसे अब पलक न खोलेगी।
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सबसे सुंदर लड़की (Hindi Story For Class 7th)
समुद्र के किनारे एक गाँव था। उसमें एक कलाकार रहता था। वह दिनभर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता। रंग-बिरंगी कौड़ियाँ, नाना रूप के सुंदर-सुंदर शंख, चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र-जाल में भर देता। उनसे वह तरह-तरह के खिलौने, तरह-तरह की मालाएँ तैयार करता और पास के बड़े नगर में बेच आता।
उसका एक बेटा था, नाम था उसका हर्ष। उम्र अभी ग्यारह की भी नहीं थी, पर समुद्र की लहरों में ऐसे घुस जाता, जैसे तालाब में बत्तख।
एक बार ऐसा हुआ कि कलाकार के एक रिश्तेदार का मित्र कुछ दिन के लिए वहाँ छुट्टी मनाने आया। उसके साथ उसकी बेटी मंजरी भी थी। होगी कोई नौ-दस वर्ष की, पर थी बहुत सुंदर, बिलकुल गुड़िया जैसी।
हर्ष बड़े गर्व के साथ उसका हाथ पकड़कर उसे लहरों के पास ले जाता। एक दिन मंजरी ने चिल्लाकर कहा, “तुम्हें डर नहीं लगता?”
हर्ष ने जवाब दिया, “डर क्यों लगेगा, लहरें तो हमारे साथ खेलने आती हैं।”और तभी एक बहुत बड़ी लहर दौड़ती हुई हर्ष की ओर आई, जैसे उसे निगल जाएगी। मंजरी चीख उठी, पर हर्ष तो उछलकर लहर पर सवार हो गया और किनारे पर आ गया।
मंजरी डरती थी, पर मन ही मन यह भी चाहती थी कि वह भी समुद्र की लहरों पर तैर सके। उसे यह तब और भी ज़रूरी लगता था, जब वह वहाँ की दूसरी लडकियों
को ऐसा करते देखती-विशेषकर कनक को, जो हर्ष के हाथ में हाथ डालकर तूफ़ानी लहरों पर दूर निकल जाती।
वह बेचारी थी बड़ी गरीब। पिता एक दिन नाव लेकर गए, तो लौटे ही नहीं। माँ मछलियाँ पकड़कर किसी तरह दो बच्चों को पालती थी। कनक छोटे-छोटे शंखों की मालाएँ बनाकर बेचती। मंजरी को वह लड़की ज़रा भी नहीं भाती। हर्ष के साथ उसकी दोस्ती तो उसे कतई पसंद नहीं थी।
एक दिन हर्ष ने देखा कि कई दिन से उसके पिता एक सुंदर-सा खिलौना बनाने में लगे हैं। वह एक पक्षी था, जो रंग-बिरंगी सीपियों से बना था। वह देर तक देखता रहा. फिर पछा. “बाबा. यह किसके लिए बनाया है?”
कलाकार ने उत्तर दिया, “यह सबसे सुंदर लड़की के लिए है। मंजरी सुंदर है न? दो दिन बाद उसका जन्मदिन है। उस दिन तुम इस पक्षी को उसे भेंट में देना।”
हर्ष की खुशी का पार नहीं था। बोला, “हाँ-हाँ बाबा, मैं यह पक्षी मंजरी को दूंगा।” और वह दौड़कर मंजरी के पास गया, उसे समुद्र किनारे ले गया और बातें करने लगा। फिर बोला,”दो दिन बाद तुम्हारा जन्मदिन है”
“हाँ, पर तुम्हें किसने बताया?” “बाबा ने। हाँ, उस दिन तुम क्या करोगी?”
“सबेरे उठकर नहा-धोकर सबको प्रणाम करूँगी। घर पर तो सहेलियों को दावत देती हूँ। वे नाचती-गाती हैं।”
और इसी तरह बातें करते-करते वे न जाने nकब उठे और दूर तक समुद्र में चले गए। सामने एक छोटी-सी चट्टान थी। हर्ष ने कहा, “आओ, छोटी चट्टान तक चलें।”
मंजरी काफी निडर हो चली थी। बोली, “चलो।” तभी हर्ष ने देखा-कनक बड़ी चट्टान पर बैठी है। कनक ने चिल्लाकर कहा, “हर्ष, यहाँ आ जाओ।” हर्ष ने जवाब दिया, “मंजरी वहाँ नहीं आ सकती, तुम्हीं इधर आ जाओ।” अब मंजरी ने भी कनक को देखा। उसे ईर्ष्या हुई। वह वहाँ क्यों नहीं जा सकती? वह क्या उससे कमजोर है…
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वह यह सोच ही रही थी कि उसे एक बहुत सुंदर शंख दिखाई दिया। मंजरी अनजाने ही उस ओर बढ़ी। तभी एक बड़ी लहर ने उसके पैर उखाड़ दिए और वह बड़ी चट्टान की दिशा में लुढ़क गई। उसके मुँह में खारा पानी भर गया। उसे होश नहीं रहा।
यह सब आनन-फानन में हो गया। हर्ष ने देखा और चिल्लाता हुआ वह उधर बढ़ा पर तभी एक और लहर आई और उसने उसे मंजरी से दूर कर दिया। अब निश्चित था कि मंजरी बड़ी चट्टान से टकरा जाएगी, परंतु उसी क्षण कनक उस क्रुद्ध लहर और मंजरी के बीच कूद पड़ी और उसे हाथों में थाम लिया।
दूसरे ही क्षण तीनों छोटी चट्टान पर थे। कुछ देर हर्ष और कनक ने मिलकर मंजरी को लिटाया, छाती मली, पानी बाहर निकल गया। उसने आँखें खोलकर देखा, उसे ज़रा भी चोट नहीं लगी थी पर वह बार-बार कनक को देख रही थी। अपने जन्मदिन की पार्टी के अवसर पर वह बिलकुल ठीक थी।
उसने सब बच्चों को दावत पर बुलाया। सभी उसके लिए कुछ न कुछ लेकर आए थे। सबसे अंत में कलाकार की बारी आई। उसने कहा, “मैंने सबसे सुंदर लड़की के लिए सबसे सुंदर खिलौना बनाया है। आप जानते हैं, वह लड़की कौन है? वह है मंजरी।”
सबने खुशी से तालियाँ बजाईं। हर्ष अपनी जगह से उठा और बड़े प्यार से वह सुंदर खिलौना उसने मंजरी के हाथों में थमा दिया। मंजरी बार-बार उस खिलौने को देखती और खुश होती।
तभी क्या हुआ, मंजरी अपनी जगह से उठी। उसके हाथ में वही सुंदर पक्षी था। वह धीरे-धीरे वहाँ आई जहाँ कनक बैठी थी। उसने बड़े स्नेह-भरे स्वर में उससे कहा, “यह पक्षी तुम्हारा है। सबसे सुंदर लड़की तुम्ही हो।” और एक क्षण तक सभी अचरज से दोनों को देखते रहे।
फिर जब समझे, तो सभी ने मंजरी की खूब प्रशंसा की। कनक अपनी प्यारी-प्यारी आँखों से बस मंजरी को देखे जा रही था और दूर समुद्र में लहरें चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें बधाई दे रही थीं।
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दादी माँ (Moral Story In Hindi For Class 7th)
कमजोरी ही है अपनी, पर सच तो यह है कि ज़रा-सी कठिनाई पड़ते; बीसों गरमी, बरसात और वसंत देखने के बाद भी, मेरा मन सदा नहीं तो प्रायः अनमना-सा हो जाता है।
मेरे शुभचिंतक मित्र मुँह पर मुझे प्रसन्न करने के लिए आनेवाली छुट्टियों की सूचना देते हैं और पीठ पीछे मुझे कमजोर और जरा-सी प्रतिकूलता से घबरानेवाला कहकर मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। मैं सोचता हूँ, ‘अच्छा, अब कभी उन बातों को न सोचूंगा।
ठीक है, जाने दो, सोचने से होता ही क्या है’। पर, बरबस मेरी आँखों के सामने शरद की शीत किरणों के समान स्वच्छ, शीतल किसी की धुंधली छाया नाच उठती है।
मुझे लगता है जैसे क्वार के दिन आ गए हैं। मेरे गाँव के चारों ओर पानी ही पानी हिलोरें ले रहा है।
दूर के सिवान से बहकर आए हुए मोथा और साईं की अधगली घासें, घेऊर और बनप्याज़ की जड़ें तथा नाना प्रकार की बरसाती घासों के बीज, सूरज की गरमी में खौलते हुए पानी में सड़कर एक विचित्र गंध छोड़ रहे हैं। रास्तों में कीचड़ सूख गया है और गाँव के लड़के किनारों पर झागभरे जलाशयों में धमाके से कूद रहे हैं।
अपने-अपने मौसम की अपनी-अपनी बातें होती हैं। आषाढ़ में आम और जामुन न मिलें, चिंता नहीं, अगहन में चिउड़ा और गुड़ न मिले, दुख नहीं, चैत के दिनों में लाई के साथ गुड़ की पट्टी न मिले, अफ़सोस नहीं, पर क्वार के दिनों में इस गंधपूर्ण झागभरे जल में कूदना न हो तो बड़ा बुरा मालूम होता है।
मैं भीतर हुड़क रहा था। दो-एक दिन ही तो कूद सका था, नहा-धोकर बीमार हो गया। हलकी बीमारी न जाने क्यों मुझे अच्छी लगती है।
थोड़ा-थोड़ा ज्वर हो, सर में साधारण दर्द और खाने के लिए दिनभर नींबू और साबू। लेकिन इस बार ऐसी चीज़ नहीं थी। ज्वर जो चढ़ा तो चढ़ता ही गया। रज़ाई पर रज़ाई-और उतरा रात बारह बजे के बाद।
दिन में मैं चादर लपेटे सोया था। दादी माँ आईं, शायद नहाकर आई थीं, उसी झागवाले जल में। पतले-दुबले स्नेह-सने शरीर पर सफ़ेद किनारीहीन धोती, सन-से सफ़ेद बालों के सिरों पर सद्यः टपके हुए जल की शीतलता।
आते ही उन्होंने सर, पेट छुए। आँचल की गाँठ खोल किसी अदृश्य शक्तिधारी के चबूतरे की मिट्टी मुँह में डाली, माथे पर लगाई। दिन-रात चारपाई के पास बैठी रहतीं, कभी पंखा झलतीं, कभी जलते हुए हाथ-पैर कपड़े से सहलातीं, सर पर दालचीनी का लेप करतीं और बीसों बार छू-छूकर ज्वर का अनुमान करतीं।
हाँडी में पानी आया कि नहीं? उसे पीपल की छाल से छौंका कि नहीं? खिचड़ी में मूंग की दाल एकदम मिल तो गई है? कोई बीमार के घर में सीधे बाहर से आकर तो नहीं चला गया, आदि लाखों प्रश्न पूछ-पूछकर घरवालों को परेशान कर देतीं।
दादी माँ को गँवई-गाँव की पचासों किस्म की दवाओं के नाम याद थे। गाँव में कोई बीमार होता, उसके पास पहुँचतीं और वहाँ भी वही काम। हाथ छूना, माथा छूना, पेट छूना। फिर भूत से लेकर मलेरिया, सरसाम, निमोनिया तक का अनुमान विश्वास के साथ सुनातीं।
महामारी और विशूचिका के दिनों में रोज़ सवेरे उठकर स्नान के बाद लवंग और गुड़-मिश्रित जलधार, गुग्गल और धूप। सफ़ाईकोई उनसे सीख ले। दवा में देर होती, मिश्री या शहद खत्म हो जाता, चादर या गिलाफ़ नहीं बदले जाते, तो वे जैसे पागल हो जातीं। बुखार तो मुझे अब भी आता है।
नौकर पानी दे जाता है, मेस-महाराज अपने मन से पकाकर खिचड़ी या साबू। डॉक्टर साहब आकर नाड़ी देख जाते हैं और कुनैन मिक्सचर की शीशी की तिताई के डर से बुखार भाग भी जाता है, पर न जाने क्यों ऐसे बुखार को बुलाने का जी नहीं होता!
किशन भैया की शादी ठीक हुई, दादी माँ के उत्साह और आनंद का क्या कहना! दिनभर गायब रहतीं। सारा घर जैसे उन्होंने सर पर उठा लिया हो। पड़ोसिनें आतीं। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं, “बहिन बुरा न मानना। कार-परोजन का घर ठहरा। एक काम अपने हाथ से न करूँ, तो होनेवाला नहीं।” जानने को यों सभी जानते थे कि दादी माँ कुछ करती नहीं।
पर किसी काम में उनकी अनुपस्थिति वस्तुतः विलंब का कारण बन जाती। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन दोपहर को मैं घर लौटा। बाहरी निकसार में दादी माँ किसी पर बिगड़ रही थीं।
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देखा, पास के कोने में दुबकी रामी की चाची खड़ी है। “सो न होगा, धन्नो! । रुपये मय सूद के आज दे दे। तेरी आँख में तो शरम है नहीं। माँगने के समय कैसी आई थी! पैरों पर नाक रगड़ती फिरी, किसी ने एक पाई भी न दी। अब लगी है आजकल करने-फसल में दूँगी, फसल में दूँगी…अब क्या तेरी खातिर दूसरी फसल कटेगी?”
“दूंगी, मालकिन!” रामी की चाची रोती हुई, दोनों हाथों से आँचल पकड़े दादी माँ के पैरों की ओर झुकी, “बिटिया की शादी है। आप न दया करेंगी तो उस बेचारी का निस्तार कैसे होगा!”
“हट, हट! अभी नहाके आ रही हूँ!” दादी माँ पीछे हट गईं। _”जाने दो दादी,” मैंने इस अप्रिय प्रसंग को हटाने की गरज से कहा, “बेचारी गरीब है, दे देगी कभी।”
“चल, चल! चला है समझाने…”
मैं चुपके से आँगन की ओर चला गया। कई दिन बीत गए, मैं इस प्रसंग को एकदम भूल-सा गया। एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिली। वह दादी को ‘पूतों फलो दूधों नहाओ’ का आशीर्वाद दे रही थी!
मैंने पूछा, “क्या बात है, धन्नो चाची”, तो उसने विह्वल होकर कहा, “उरिन हो गई बेटा, भगवान भला करे हमारी मालकिन का। कल ही आई थीं। पीछे का सभी रुपया छोड़ दिया, ऊपर से दस रुपये का नोट देकर बोलीं, ‘देखना धन्नो, जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी, दस-पाँच के लिए हँसाई न हो।’ देवता है बेटा, देवता।”
“उस रोज़ तो बहुत डाँट रही थीं?” मैंने पूछा। “वह तो बड़े लोगों का काम है बाबू, रुपया देकर डाँटें भी न तो लाभ क्या!” मैं मन-ही-मन इस तर्क पर हँसता हुआ आगे बढ़ गया। किशन के विवाह के दिनों की बात है।
विवाह के चार-पाँच रोज़ पहले से ही औरतें रात-रातभर गीत गाती हैं। विवाह की रात को अभिनय भी होता है। यह प्रायः एक ही कथा का हुआ करता है, उसमें विवाह से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक के सभी दृश्य दिखाए जाते हैं-सभी पार्ट औरतें ही करती हैं।
मैं बीमार होने के कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा भाई राघव दालान में सो रहा था (वह भी बारात जाने के बाद पहुंचा था)। औरतों ने उस पर आपत्ति की। दादी माँ बिगड़ीं, “लड़के से क्या परदा? लड़के और बरह्मा का मन एक-सा होता है।”
मुझे भी पास ही एक चारपाई पर चादर उढ़ाकर दादी माँ ने चुपके से सुला दिया था। बड़ी हँसी आ रही थी। सोचा, कहीं ज़ोर से हँस दूँ, भेद खुल जाए तो निकाल बाहर किया जाऊँगा, पर भाभी की बात पर हँसी रुक न सकी और भंडाफोड हो गया।
देबू की माँ ने चादर खींच ली, “कहो दादी, यह कौन बच्चा सोया है। बेचारा रोता है शायद, दूध तो पिला दूं।”
हाथापाई शुरू हुई। दादी माँ बिगड़ी, “लड़के से क्यों लगती है!” सुबह रास्ते में देबू की माँ मिलीं, “कल वाला बच्चा, भाभी!” मैं वहाँ से ज़ोर से भागा और दादी माँ के पास जा खड़ा हुआ। वस्तुतः किसी प्रकार का अपराध हो जाने पर जब हम दादी माँ की छाया में खड़े हो जाते, अभयदान मिल जाता।
स्नेह और ममता की मूर्ति दादी माँ की एक-एक बात आज कैसी-कैसी मालूम होती है। परिस्थितियों का वात्याचक्र जीवन को सूखे पत्ते-सा कैसा नचाता है, इसे दादी माँ खूब जानती थीं।
दादा की मृत्यु के बाद से ही वे बहुत उदास रहतीं। संसार उन्हें धोखे की टट्टी मालूम होता। दादा ने उन्हें स्वयं जो धोखा दिया। वे सदा उन्हें आगे भेजकर अपने पीछे जाने की झूठी बात कहा करते थे।
दादा की मृत्यु के बाद कुकुरमुत्ते की तरह बढ़नेवाले, मुँह में राम बगल में छुरीवाले दोस्तों की शुभचिंता ने स्थिति और भी डाँवाडोल कर दी। दादा के श्राद्ध में दादी माँ के मना करने पर भी पिता जी ने जो अतुल संपत्ति व्यय की, वह घर की तो थी नहीं।
दादी माँ अकसर उदास रहा करतीं। माघ के दिन थे। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था। पछुवा का सन्नाटा और पाले की शीत हड्डियों में घुसी पड़ती। शाम को मैंने देखा, दादी माँ गीली धोती पहने, कोनेवाले घर में एक संदूक पर दिया जलाए, हाथ जोड़कर बैठी हैं। उनकी स्नेह-कातर आँखों में मैंने आँसू कभी नहीं देखे थे।
मैं बहुत देर तक मन मारे उनके पास बैठा रहा। उन्होंने आँखें खोलीं। “दादी माँ!”, – मैंने धीरे से कहा।“क्या है रे, तू यहाँ क्यों बैठा है?” “दादी माँ, एक बात पूछू, बताओगी न?” मैंने उनकी स्नेहपूर्ण आँखों की ।
ओर देखा। “क्या है, पूछ।” “तुम रोती थीं?” दादी माँ मुसकराईं, “पागल, तूने अभी खाना भी नहीं खाया न, चल-चल!” “धोती तो बदल लो, दादी माँ”, मैंने कहा। “मुझे सरदी-गरमी नहीं लगती बेटा।” वे मुझे खींचती रसोई में ले गईं।
सुबह मैंने देखा, चारपाई पर बैठे पिता जी और किशन भैया मन मारे कुछ सोच रहे हैं। “दूसरा चारा ही क्या है?” बाबू बोले, “रुपया कोई देता नहीं। कितने के तो अभी पिछले भी बाकी हैं!” वे रोने-रोने-से हो गए। “रोता क्यों है रे!” दादी माँ ने उनका माथा सहलाते हुए कहा, “मैं तो अभी हूँ ही।”
उन्होंने संदूक खोलकर एक चमकती-सी चीज़ निकाली, “तेरे दादा ने यह कंगन मुझे इसी दिन के लिए पहनाया था।” उनका गला भर आया, “मैंने इसे पहना नहीं, इसे सहेजकर रखती आई हूँ। यह उनके वंश की निशानी है।” उन्होंने आँसू पोंछकर कहा, “पुराने लोग आगा-पीछा सब सोच लेते थे, बेटा।”
सचमुच मुझे दादी माँ शापभ्रष्ट देवी-सी लगीं। धुंधली छाया विलीन हो गई। मैंने देखा, दिन काफ़ी चढ़ आया है। पास के लंबे खजूर के पेड़ से उड़कर एक कौआ अपनी घिनौनी काली पाँखें फैलाकर मेरी खिड़की पर बैठ गया। हाथ में अब भी किशन भैया का पत्र काँप रहा है। काली चींटियों-सी कतारें धूमिल हो रही हैं।
आँखों पर विश्वास नहीं होता। मन बार-बार अपने से ही पूछ बैठता है-‘क्या सचमुच दादी माँ नहीं रहीं?’
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कंचा (kahani in hindi for class 7)
वह नीम के पेड़ों की घनी छाँव से होता हुआ सियार की कहानी का मज़ा लेता आ रहा था। हिलते-डुलते उसका बस्ता दोनों तरफ़ झूमता-खनकता था। स्लेट कभी छोटी शीशी से टकराती तो कभी पेंसिल से। यों वे सब उस बस्ते के अंदर टकरा रहे थे। मगर वह न कुछ सुन रहा था, न कुछ देख रहा था। उसका परा ध्यान कहानी पर केंद्रित था। कैसी मज़ेदार कहानी! कौए और सियार की। सियार कौए से बोला-“प्यारे कौए, एक गाना गाओ न, तुम्हारा गाना सुनने के लिए तरस रहा हूँ।”
कौए ने गाने के लिए मुँह खोला तो रोटी का टुकड़ा ज़मीन पर गिर पड़ा। सियार उसे उठाकर नौ दो ग्यारह हो गया। वह ज़ोर से हँसा। बुद्धू कौआ। वह चलते-चलते दुकान के सामने पहुँचा। वहाँ अलमारी में काँच के बड़े-बड़े जार कतार में रखे थे। उनमें चॉकलेट, पिपरमेंट और बिस्कुट थे। उसकी नज़र उनमें से किसी पर नहीं पड़ी। क्यों देखे? उसके पिता जी उसे ये चीजें बराबर ला देते हैं।
उसके देखते-देखते जार बड़ा होने लगा। वह आसमान-सा बड़ा हो गया तो वह भी उसके भीतर आ गया। वहाँ और कोई लडका तो नहीं था। फिर भी उसे वही पसंद था। छोटी बहन के हमेशा के लिए चले जाने के बाद वह अकेले ही खेलता था। वह कंचे चारों तरफ़ बिखेरता मजे में खेलता रहा। तभी एक आवाज़ आई। “लड़के, तू उस जार को नीचे गिरा देगा।” वह चौंक उठा। जार अब छोटा बनता जा रहा था। छोटे जार में हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे। छोटे आँवले जैसे।
सिर्फ़ दो जने वहाँ हैं। वह और बूढ़ा दुकानदार। दुकानदार के चेहरे पर कुछ चिड़चिडाहट थी। “मैंने कहा न! जो चाहते हो वह मैं निकालकर दूं।” वह उदास हो अलग खड़ा रहा। “क्या कंचा चाहिए?” दुकानदार ने जार का ढक्कन खोलना शुरू किया। उसने निषेध में सिर हिलाया।“तो फिर?”
सवाल खूब रहा। क्या उसे कंचा चाहिए? क्या चाहिए? उसे खुद मालूम नहीं है। जो भी हो, उसने कंचे को छूकर देखा। जार को छूने पर कंचे का स्पर्श करने का अहसास हुआ। अगर वह चाहता तो कंचा ले सकता था। लिया होता तो? स्कूल की घंटी सुनकर वह बस्ता थामे हुए दौड़ पड़ा।
देर से पहुँचनेवाले लड़कों को पीछे बैठना । पड़ता है। उस दिन वही सबके बाद पहुंचा था। इसलिए वह चुपचाप पीछे की बेंच पर बैठ गया। सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। रामन अगली बेंच पर है। वह रोज समय पर आता है। तीसरी बेंच के आखिर में मल्लिका के बाद अम्मु बैठी है। जॉर्ज दिखाई नहीं पड़ता।
लड़कों के बीच जॉर्ज ही सबसे अच्छा कंचे का खिलाड़ी है। कितना भी बड़ा लड़का उसके साथ खेले, जॉर्ज से मात खाएगा। हारने पर यों ही विदा नहीं हो सकता। हारे हुए को अपनी बंद मुट्ठी जमीन पर रखनी होगी। तब जॉर्ज कंचा चलाकर बंद मुट्ठी के जोड़ों की हड्डी तोड़ेगा। जॉर्ज क्यों नहीं आया?
अरे हाँ! जॉर्ज को बुखार है न! उसे रामन ने यह सूचना दी थी। उसने मल्लिका को सब बताया था। जॉर्ज का घर रामन के घर के रास्ते में पड़ता है। अप्पू कक्षा की तरफ़ ध्यान नहीं दे रहा है। मास्टर जी! उसने हड़बड़ी में पुस्तक खोलकर सामने रख ली। रेलगाड़ी का सबक था। रेलगाड़ी…रेलगाड़ी। पृष्ठ सैंतीस। घर पर उसने यह पाठ पढ़ लिया है।
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मास्टर जी बीच-बीच में बेंत से मेज़ ठोकते हुए ऊँची आवाज़ में कह रहे थे-“बच्चो! तुममें से कई ने रेलगाड़ी देखी होगी। उसे भाप की गाड़ी भी कहते हैं क्योंकि उसका यंत्र भाप की शक्ति से ही चलता है। भाप का मतलब पानी से निकलती भाप से है। तुम लोगों के घरों के चूल्हे में भी….”अप्प ने भी सोचा-रेलगाडी! उसने रेलगाड़ी देखी है। छुक-छुक…यही रेलगाड़ी है। वह भाप की भी गाड़ी का मतलब…।
मास्टर जी की आवाज़ अब कम ऊँची थी। वे रेलगाड़ी के हर एक हिस्से के बारे में समझा रहे थे। ___ “पानी रखने के लिए खास जगह है। इसे अंग्रेजी में बॉयलर कहते हैं। यह लोहे का बड़ा पीपा है।” लोहे का एक बड़ा काँच का जार। उसमें हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे। बड़े आँवले जैसे। जॉर्ज जब अच्छा होकर आ जाएगा, तब उससे कहेगा। उस समय जॉर्ज कितना खुश होगा! सिर्फ वे दोनों खेलेंगे। और किसी को साथ खेलने नहीं देंगे।
उसके चेहरे पर चॉक का टुकड़ा आ गिरा। अनुभव के कारण वह उठकर खड़ा हो गया। मास्टर जी गुस्से में हैं।
“अरे, तू उधर क्या कर रहा है?” उसका दम घुट रहा था। “बोल।” वह खामोश खड़ा रहा। “क्या नहीं बोलेगा?” वे अप्पू के पास पहुंचे। सारी कक्षा साँस रोके हुए उसी तरफ़ देख रही है। उसकी घबराहट बढ़ गई।
“हाँ, हाँ, बता। डरना मत।” मास्टर जी ने देखा, अप्पू की ज़बान पर जवाब था। “हाँ, हाँ…” वह काँपते हुए बोला-“कंचा।” “कंचा…!” वे सकपका गए। कक्षा में भूचाल आ गया। “स्टैंड अप!” मास्टर साहब की आँखों में चिनगारियाँ सुलग रही थीं। अप्पू रोता हुआ बेंच पर चढ़ा। पड़ोसी कक्षा की टीचर ने दरवाजे से झाँककर देखा। फिर सम्मिलित हँसी। रोकने की पूरी कोशिश करने पर भी वह अपना दुख रोक नहीं सका। सुबकता रहा। रोते-रोते उसका दुख बढ़ता ही गया। सब उसकी तरफ़ देख-देखकर उसकी हँसी उड़ा रहे हैं।
रामन, मल्लिका…सब। __बेंच पर खड़े-खड़े उसने सोचा, दिखा दूँगा सबको। जॉर्ज को आने दो। जॉर्ज जब आए,..जॉर्ज के आने पर वह कंचे खरीदेगा। इनमें से किसी को वह खेलने नहीं बुलाएगा। कंचे को देख ये ललचाएँगे। इतना खूबसूरत कंचा है। हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे। बड़े आँवले जैसे। तब.. शक हुआ। कंचा मिले कैसे? क्या माँगने पर दुकानदार देगा? जॉर्ज को साथ लेकर पूछे तो, नहीं दे तो? “किसी को शक हो तो पूछ लो।” मास्टर जी ने उस घंटे का सबक समाप्त किया। “क्या किसी को कोई शक नहीं?”
अप्पू की शंका अभी दूर नहीं हुई थी। वह सोच रहा था-क्या जॉर्ज को साथ ले चलने पर दुकानदार कंचा नहीं देगा? अगर खरीदना ही पड़े तो कितने पैसे लगेंगे? रामन ने मास्टर जी से सवाल किया और उसे सवाल का जवाब मिला। अम्मिणि ने शंका का समाधान कराया। कई छात्रों ने यह दुहराया। “अप्पू, क्या सोच रहे हो?” मास्टर जी ने पूछा। “हूँ, पूछ लो न? शंका क्या है?” शंका जरूर है।
क्या जॉर्ज को साथ ले चलने पर दुकानदार कंचे देगा? नहीं तो कितने पैसे लगेंगे? क्या पाँच पैसे में मिलेगा, दस पैसे में? “क्या सोच रहे हो?” “पैसे?” “क्या?” “कितने पैसे चाहिए!” “किसके लिए?” वह कुछ नहीं बोला। हरी लकीरवाले सफ़ेद गोल कंचे उसके सामने से फिसलते गए। मास्टर जी ने पूछा। “क्या रेलगाडी के लिए?” उसने सिर हिलाया।
“बेवकूफ़! रेलगाड़ी को पैसे से खरीद नहीं सकते। अगर मिले तो उसे लेकर क्या करेगा?” वह खेलेगा। जॉर्ज के साथ खेलेगा। रेलगाड़ी नहीं, कंचा। चपरासी एक नोटिस लाया। मास्टर जी ने कहा, “जो फ़ीस लाए । हैं, वे ऑफ़िस जाकर जमा कर दें।” बहुत से छात्र गए। राजन ने जाते-जाते अप्पू के पैर में चिकोटी काट ली। उसने पैर खींच लिया। उसे याद आया। उसे भी फ़ीस जमा करनी है। पिता जी ने उसे डेढ़ रुपया इसके लिए दिया है।
उसने अपनी जेब टटोलकर देखाएक रुपये का नोट और पचास पैसे का सिक्का । वह बेंच से उतरा। “किधर?” मास्टर जी ने पूछा। उसके कंठ से खुशी के बुलबुले उठे। “फ़ीस देनी है।” “फ़ौस मत देना।” मास्टर ने कहा। वह झिझकता रहा। “ऑन दि बेंच।” वह बेंच पर चढ़कर रोने लगा। “क्या भविष्य में कक्षा में ध्यान से पढ़ेगा?” “ध्या.ध्यान दूंगा।” वह दफ्तर गया। दफ़्तर में बड़ी भीड़ थी। बच्चो, एक-एक करके आओ। क्लर्क बाबू बता रहे हैं। पहले मैं आया हूँ।
हूँ…मैं ही आया हूँ। मेरे बाकी पैसे? इस शोरगुल से अप्पू दूर खड़ा रहा। रामन ने फ़ौस जमा की। मल्लिका ने जमा की। अब थोड़े से लड़के ही बचे हैं। वह सोच रहा था-जॉर्ज को साथ लेकर चलूँ तो देगा न? शायद दे। नहीं तो कितने पैसे लगेंगे? पाँच पैसे-दस पैसे।
हरी लकीरोंवाले गोल सफ़ेद कंचे। घंटी बजने पर फ़ीस जमा किए हुए सभी बच्चे उधर से चले। वह भी चला, मानो नींद से जागकर चल रहा हो। “क्या सब फ़ीस जमा कर चुके?” कक्षा छोड़ने के पहले मास्टर जी ने पूछा। वह नहीं उठा। शाम को थोड़ी देर इधर-उधर टहलता रहा। लड़के गीली मिट्टी में छोटे गड्ढे खोदकर कंचे खेल रहे थे। वह उनके पास नहीं गया।
फाटक के सींखचे थामे, उसने सड़क की तरफ़ देखा। वहाँ उस मोड़ पर दुकान है। दुकान में अलमारी। बाहर खड़े-खड़े छू सकेगा। अलमारी में शीशे के जार हैं। उनमें एक जार में पूरा….. बस्ता कंधे पर लटकाए वह चलने लगा। दुकान नज़दीक आ रही है। उसकी चाल की तेजी बढ़ी। वह अलमारी के सामने खड़ा हो गया। दुकानदार हँसा। उसे मालूम हुआ कि दुकानदार उसके इंतजार में है। वह भी हँसा। “कंचा चाहिए, है न?” उसने सिर हिलाया।
दुकानदार जार का ढक्कन जब खोलने लगा तब अप्पू ने पूछा-“अच्छे कंचे। हैं न?” “बढ़िया, फ़र्स्ट क्लास कंचे। तुम्हें कितने कंचे चाहिए?” कितने कंचे चाहिए, कितने चाहिए, कितने? उसने जेब में हाथ डाला। एक रुपया और पचास पैसे हैं।
उसने वह निकालकर दिखाया। दुकानदार चौंका-“इतने सारे पैसों के?” “सबके।” पहले कभी किसी लड़के ने इतनी बड़ी रकम से कंचे नहीं खरीदे थे। “इतने कंचों की जरूरत क्या है?” “वह मैं नहीं बताऊँगा।” दुकानदार समझ गया। वह भी किसी ज़माने में बच्चा रहा था। उसके साथी मिलकर खरीद रहे होंगे। यही उनके लिए खरीदने आया होगा।
वह कंचे खरीदने की बात जॉर्ज के सिवा और किसी को बताना नहीं चाहता था। दुकानदार ने पूछा-“क्या तुम्हें कंचा खेलना आता है?” वह नहीं जानता था। “तो फिर?” कैसे-कैसे सवाल पूछ रहा है। उसका धीरज जवाब दे रहा था। उसने हाथ फैलाया। “दे दो।” दुकानदार हँस पड़ा। वह भी हँस पड़ा।
कागज़ की पोटली छाती से चिपटाए वह नीम के पेड़ों की छाँव में चलने लगा। कंचे अब उसकी हथेली में हैं। जब चाहे बाहर निकाल ले। उसने पोटली हिलाकर देखा। वह हँस रहा था। उसका जी चाहता थाकाश! पूरा जार उसे मिल जाता। जार मिलता तो उसके छूने से ही कंचे को छूने का अहसास होता। एकाएक उसे शक हुआ। क्या सब कंचों में लकीर होगी?
उसने पोटली खोलकर देखने का निश्चय किया। बस्ता नीचे रखकर वह धीरे से पोटली खोलने लगा। पोटली खुली और सारे कंचे बिखर गए। वे सड़क के बीचोंबीच पहुंच रहे हैं। क्षणभर सकपकाने के बाद वह उन्हें चुनने लगा। हथेली भर गई। वह चुने हुए कंचे कहाँ रखे?
स्लेट और किताब बस्ते से बाहर रखने के बाद कंचे बस्ते में डालने लगा। एक, दो, तीन, चार… एक कार सड़क पर ब्रेक लगा रही थी। वह उस वक्त भी कंचे चुनने में मग्न था। ड्राइवर को इतना गुस्सा आया कि उस लड़के को कच्चा खा जाने की इच्छा हुई। उसने बाहर झाँककर देखा, वह लड़का क्या कर रहा है?
हॉर्न की आवाज़ सुन कंचे चुनते अप्पू ने बीच में सिर उठाकर देखा। सामने एक मोटर है और उसके भीतर ड्राइवर। उसने सोचा-क्या कंचे उसे भी अच्छे लग रहे हैं? शायद वह भी मजा ले रहा है।
एक कंचा उठाकर उसे दिखाया और हँसा-“बहुत अच्छा है न!” ड्राइवर का गुस्सा हवा हो गया। वह हँस पड़ा।
बस्ता कंधे पर लटकाए, स्लेट, किताब, शीशी, पेंसिल-सब छाती से चिपकाए वह घर आया।
उसकी माँ शाम की चाय तैयार कर उसकी राह देख रही थी। बरामदे की बेंच पर स्लेट व किताबें फेंककर वह दौडकर माँ के गले लग गया। उसके लोटने में देर होते देख माँ घबराई हुई थी।
उसने बस्ता ज़ोर से हिलाकर दिखाया। “अरे! यह क्या है?” माँ ने पूछा। “मैं नहीं बताऊँगा।” वह बोला। “मुझसे नहीं कहेगा?” “कहूँगा। माँ, आँखें बंद कर लो।” माँ ने आँखें बंद कर ली। उसने गिना, वन, टू, श्री…. माँ ने आँखें खोलकर देखा। बस्ते में कंचे-ही-कंचे थे। वह कुछ और हैरान हुई। “इतने सारे कंचे कहाँ से लाया?” “खरीदे हैं।” “पैसे?” पिता जी की तसवीर की ओर इशारा करते हुए उसने कहा-“दोपहर को दिए थे न?”
माँ ने दाँतों तले उँगली दबाई। फ़ौस के पैसे? इतने सारे कंचे काहे को लिए? आखिर खेलोगे किसके साथ? उस घर में सिर्फ वही है। उसके बाद एक मुन्नी हुई थी। उसकी छोटी बहन। मगर…माँ की पलकें भीग गईं। उसकी माँ रो रही है।
अप्पू नहीं जान सका कि माँ क्यों रो रही है। क्या कंचा खरीदने से? ऐसा तो नहीं हो सकता। तो फिर?
उसकी आँखों के सामने बूढ़ा दुकानदार और कार का ड्राइवर खड़े-खड़े हँस रहे थे। वे सब पसंद करते हैं। सिर्फ़ माँ को कंचे क्यों पसंद नहीं आए?
शायद कंचे अच्छे नहीं हैं। बस्ते से आँवले जैसे कंचे निकालते हुए उसने कहा-“बुरे कंचे हैं, हैं न?” “नहीं, अच्छे हैं।” “देखने में बहुत अच्छे लगते हैं न?” “बहुत अच्छे लगते हैं।” वह हँस पड़ा। उसकी माँ भी हँस पड़ी। आँसू से गीले माँ के गाल पर उसने अपना गाल सटा दिया। अब उसके दिल से खुशी छलक रही थी।
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