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जैसी करनी वैसी भरनी (Dadimaa ki kahaniyan)
जापान में ऐसी किंवदंती है कि एक समय एक स्थान पर दो भाई रहते थे। बड़े भाई की बहू कुछ तीखे स्वभाव की थी। इसलिए उनकी माता छोटे भाई के साथ रहा करती थी। छोटा भाई निर्धन था। उसके घर में खाना पीना भी पर्याप्त नहीं होता था। प्रायः छोटा भाई अपनी माता जी को बढ़िया भोजन की तो बात ही छोड़ो, साधारण अन्न भी नहीं दे पाता था। नए साल के प्रथम दिन उसके मन में चावल बनाकर खिलाने की तीव्र इच्छा हुई। ऐसे समय में मैं विवश हूं। बड़े भाई से उधार मांगने के सिवाय मेरे पास कोई साधन नहीं है। यह सोचकर वह बड़े भाई के घर गया।
”भाई साहब! थोड़े समय के लिए कुछ चावल मुझे उधार दीजिए जंगल में जाकर लकड़ियां इकट्ठी कर बेच दूंगा। जब पैसा मुझे मिल जाएगा, तो चावल खरीदकर आपको वापस कर दूंगा।“ छोटे भाई ने नम्रता से मांगा। किंतु बड़ा भाई अत्यंत निर्दयी प्रकृति का था।
”तुमको उधार देने योग्य एक धान भी मेरे पास नहीं है।“ यह कहकर गुस्से से दांत पीसते हुए उसने उसे भगा दिया।
छोटा भाई निराश अवश्य हुआ, पर उसकी मातृ भक्ति में कोई अंतर नहीं आया। वह विवश होकर सुदूर पहाड़ तक जाकर पहाड़ी फूल ही ले आया। उन फूलों को बेचकर उसने चावल खरीदना था।
”पुष्प वाला, पुष्प वाला, फूल-फूल, नए वर्ष के फूल, सुंदर फूल, जो चाहो, खरीदो।“ आवाज लगाकर उसने इधर उधर घूम घूमकर देखा, किंतु असफल रहा। पहले से ही लोगों ने नए साल के लिए फूलों की व्यवस्था कर रख थी। उसकी निराशा का ठिकाना न रहा। वह चलते चलते समुन्द्र तट पर आ गया। लहरें कभी उठतीं, उमड़तीं, ठाठें मारतीं, लहरों की तीव्र आवाज के साथ ऊंची और नीची लहरें आती जातीं, उन लहरों को देखते हुए छोटे भाई के मन में विचार आया, ‘सुदूर पर्वत से ये सब फूल बड़ी मेहनत से उठाकर ले आया था, पर एक भी खरीरदार नहीं आया।
अब मैं क्या करूंगा। हां, मैंने सुना है, समुन्द्र के तल में नागराज का महल होता है। वहां से नागराज को पुष्प दान करना ही श्रेयस्कर होगा। नाग प्रसाद में जाकर संभव है, इन फूलों का स्वागत किया जाए। मन में यह सोचकर छोटे भाई ने समुन्द्र में ऊंची लहरों को लक्ष्य कर जितने फूल लेकर आया था, सब समर्पित कर दिए।
”हे नागराज! मेरा पुष्प दान स्वीकार करो।“ यह कहकर ज्यों ही उसने लहरों के बीच फूल फेंके, त्यों ही उन लहरों के भीतर से एक पुरूष प्रकट हुआ। उस पुरूष ने कहा, ”धन्यवाद नौजवान! सही बात कहूं तो नागराज के महल में नूतन वर्ष के लिए फूलों के न होने के कारण हम सब चिंतित थे।
आपको सचमुच बहुत बहुत धन्यवाद। इतने सुंदर फूल, इतने अधिक फूलों के लिए मैं किस प्रकार आपका आभार व्यक्त करूं, इसके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं। हां, यदि आप स्वीकार करें तो, मैं धन्यवादार्थ आपको नाग महल में ले चलता हूं। क्या आप मेरे साथ चल सकते हैं?“ यह सुनकर छोटे भाई ने कहा, ”घर में मेरी माता जी हैं। वह मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। मैं नहीं जा सकता।“
मना करने पर भी उस पुरूष ने आग्रह किया, ”नहीं, नहीं! आपको चलना ही पड़ेगा। जहां मैं चलूंगा, वहां मेरे पदचिन्हों के ऊपर चलते आइए, शीघ्र ही हम नाग प्रासाद में पहुंच जाएंगे। वहां के प्रजाजनों से मिलकर आपको भी प्रसन्नता होगी।“
”अच्छा, तो फिर…“ कहकर छोटे भाई ने लहरों के ऊपर पैर रखा। पलक झपकते ही वे नागराज के महल के द्वार पर खड़े थे। सामने सात द्वारपाल खड़े थे, जो भाला, तलवार आदि शस्त्रों से सुसज्जित थे। सभी के शस्त्र चमक रहे थे। महल की छत सोने से बनी थी। छत के ऊपर श्वेत, लाल आदि रंग बिरंगी चिड़ियां खेलने में मगन थीं। अब यह निर्णय हुआ कि नागराज के दर्शन करें। उस पुरूष ने छोटे भाई को समझाया, ”जब नागराज आपसे पूछें कि क्या वरदान चाहिए, तब आप कह देना कि मुझे कुत्ता चाहिए। इस नाग महल में एक अमूल्य कुत्ता रहता है।“
नागराज ने महल में विशेष मछलियों का भोजन तैयार करके छोटे भाई का सत्कार किया। तीन दिन के आतिथ्य में समुन्द्र में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ नाना प्रकार के भव्य भोजन तैयार किए गए। भोज के साथ मधुर समुन्द्र गीत भी लगातार सुनाया जाता रहा। तत्बाद जब स्वदेश जाने का समय आया, नागराज ने पूछा, ”उपहार में क्या चाहिए?“
छोटे भाई ने कहा, ”आपने मुझे बहुत कुछ दे दिया है, फिर भी यदि आप चाहते हैं तो मुझे एक कुत्ता दे दीजिए।“
राजाज्ञानुसार तुरंत राजा के सामने एक कुत्ता ले आया गया।
नागराज ने कहा, ”यह कुत्ता महल में सर्वाधिक मूल्यवान है। कृपया इसे संभाल कर रखें। ध्यान रखिएगा कि प्रतिदिन चार मेजों पर भरपूर भोजन तैयार कर इसे खिलाना जरूरी है। यदि यह आप कर सकें तो अवश्य ही आपके लिए यह बहुत भाग्यशाली सिद्ध होगा।“
छोटे भाई ने वचन दिया, ”स्वीकार है, ऐसा ही करूंगा। आपकी आज्ञानुसार मैं इसे प्रेम से संभाल कर रखूंगा।“
उसने नागराज से विदाई ली और अपने देश की और लक्ष्य कर वापस चल पड़ा। मालूम हुआ कि नागराज के महल में तो वह सिर्फ तीन दिन रहा था, किंतु वास्तव में तीन वर्ष का समय व्यतीत हो चुका था। माता जी के पास खाना तो था नहीं, पड़ोसी लोगों को उनकी देखभाल करनी पड़ी थी। जब नागराज से छोटा भाई कुत्ता लेकर आया, तो पड़ोसियों ने पूछा, ”जब अपने लिए भी खाना पूरा नहीं होता, ऐसी स्थिति में कुत्ता लाकर क्या करोगे?“
छोटे भाई ने कहा, ”आप संयम से कुछ समय देखते रहिएगा।“ वह प्रतिदिन चार मेजों पर यथा संभव भव्य भोज बनाकर कुत्ते को उसी तरह खिलाता था, जिस प्रकार किसी मालिक को खिलाया जाता है। कुत्ते ने खाना खा लिया। खाने के बाद वह पहाड़ पर चला गया। वापस लौटा तो अपने मुख में एक बड़ा सा रीछ पकड़ लाया। जिसे देखकर छोटा भाई व मां हैरानीचकित हो गए। उसका मांस, चमड़ा, दांत, सब कीमती थे। अब उन्हें रोज एक रीछ मिल जाता था। देखते देखते वे धनी बन गए। एक दिन बड़े भाई को मालूम हो गया और वह दौड़ता दौड़ता छोटे भाई के पास आया।
”क्या तुम्हारे पास एक ऐसा कुत्ता है जो रोज एक रीछ लेकर आता है?“ आते ही बड़े भाई ने छोटे भाई से पूछा।
”जी भाई।“ उत्तर मिला।
”यदि ऐसा है तो मैं उस कुत्ते को एक बार ले जाता हूं।“ बड़े भाई ने रौब से कहा।
”नहीं भाई जी, ऐसा नहीं हो सकता। आप मेरे बड़े भाई जरूर हैं, परंतु यह कुत्ता मेरे लिए खजाना है। मेरा कुत्ता सुवर्ण तुल्य है।“
बड़े भाई ने उसकी बात न मानी और बलपूर्वक कुत्ता ले गया। घर जाकर उसने पांच छः मेजों पर विभिन्न प्रकार का खाना बनवाया और उस कुत्ते को खिलाया। उनकी मनोकामना थी कि कुत्ता उनके लिए भी अधिक से अधिक रीछ पकड़कर लाए।
कुत्ते ने सब खाना खत्म कर दिया। वह अपूर्व बलवान बन गया और दूसरे क्षण जैसे ही खाना खत्म हो गया, बड़े भाई के सामने कूद पड़ा। उसने बड़े भाई के माथे पर प्रहार किया और उसका माथा काट डाला।
भोजन में ही कोई कमी रह गई होगी। उसे शायद पसंद नहीं आया होगा। यह सोचकर वह छोटे भाई के पास पूछने गया। चार मेज पर भोजन तैयार होना चाहिए था। यह जानकारी लेकर लौटा और कथनानुसार चार मेजों पर भरपूर खाना रख दिया। इस बार नागराज का कुत्ता अवश्य ही रीछ ले आएगा। मन में यह सोचकर कहा, ‘छोटे भाई ने जैसा बताया, वैसा ही बनाकर खाना रख दिया है। तू जल्दी खा और सीधा पहाड़ पर जा। मैं बड़े रीछ की आशा करता हूं यहां बैठकर।’
कुत्ते ने यूं सिर हिलाया जैसे उसकी बातें समझ गया हो, उसने तुरंत ही खाना खाया। बड़ा भाई कुत्ते की सारी गतिविधियां देख रहा था। अब रीछ पकड़ने जाएगा, मन में सोच रहा था। पर आशा के विपरीत पहाड़ की ओर न जाकर वह जोर से भौंका और बड़े भाई की ओर लपका।
उसने बुरी तरह बड़े भाई का घुटना काट डाला। बड़ा भाई दंग रह गया। उसके गुस्से का ठिकाना न रहा।
”बदतमीज कहीं का।“ वह उत्तेजित स्वर में चीखा, ”अरे उपद्रवी। मैंने तुझे इतना प्यार किया और तूने ही मुझे काट खाया। ठहर तो, अब मैं तुझे मौत के घाट उतराता हूं।“ उसने हाथ में डंडा उठाया और कुत्ते के सिर पर जोरों से प्रहार कर दिया। चोटग्रस्त होकर कुत्ता लगभग मृतप्राय हो गया। ऐसा लगता था, मानो गहन निद्रा में डूब गया हो। उसके मुख पर पूर्ण शांति थी।
पर्याप्त समय व्यतीत होने पर भी कुत्ता वापस न मिलने पर छोटे भाई को बहुत चिंता हुई। अंततः परेशान हो स्वयं बड़े भाई के घर गया।
”भाई, मेरा कुत्ता कहां है, वह कैसा है?“ उसे क्या हुआ?
”क्या हुआ? उस बदमाश कुत्ते की हालत तुझे अभी दिखाता हूं।“ और उसने गुस्से से सारी बात बताई। छोटे भाई की आंखें भर आईं। मरे हुए कुत्ते के लिए वह क्या कर सकता था। वह विवश था। धैर्य के साथ बोला, ”उसका शव पड़ा होगा, वही आप मुझे वापस कर दें।“ उसने मृत कुत्ते को अपने घर के सामने आंगन में दफनाया। उसकी समाधि के पास फूलों के पौधे लगाए और जड़ में पानी दिया। करबद्ध मंत्र पाठ किया। श्रद्धांजलि अर्पित की। दूसरे दिन की बात है कि बगीचे में जहां पर कुत्ता दफनाया था, वहां पर छोटा सा बांस का अंकुर निकल आया। रोज पानी डालना और प्रार्थना करना, उसकी दिनचर्या बन गई थी।
दिन ब दिन देखते देखते पौधा बड़ा होता गया। और अंत में सचमुच खूब लंबा सीधा सुंदर बांस बन गया। वह बांस ‘सफल आगमन’ नामक अद्भुत बांस था जो दुनिया में अपूर्व था और देवलोक तक पहुंच जाने की क्षमता रखता था। उसका कद क्रमश बढ़ता गया और अंततः वह देवलोक में पहुंच गया। वह और भी ऊंचा होता गया और उसने देवलोक में स्थित धान्यसगार में छेद कर दिया। अन्न के भण्डार में छेद हो जाने के कारण अन्न गिरने लगा।
एक दिन प्रातः काल छोटा भाई उठकर बाहर आया। उन्होंने आंगन में देखा, कि ‘सफल आगमन’ नाम के बांस के फूल में श्वेत चावल का पहाड़ बना हुआ था। अभी भी लगातार सफेद बर्फ के समान चावलों की वर्षा हो रही थी। इस रहस्यमयी घटना को देखकर और यह सोचकर कि यह सब कुत्ते की देन ही होगी, मन ही मन मृत कुत्ते का स्मरण करते हुए धन्यवादपूर्वक श्रद्धांजलि समर्पित की और देवलोक से बरसते चावलों को नए निर्मित गोदाम में ले गया।
चावलों की उस अपार राशि को जापानी भाषा में ‘सेंगोकू’ कहते हैं। सफल आगमन नामक बांस की प्रवृत्ति एक दिन में एक गांठ कद बढ़ जाने की थी। हर एक गांठ बढ़ जाने पर एक एक हजार सेंगोकू चावल की वर्षा होती। हर रोज बगीचे में अन्न का पहाड़ बन जाता। जिसे देखकर छोटा भाई प्रसन्न हो जाता। नित्य प्रति बहुत से श्रमिक चावलों को भण्डार में रखते। आखिर एक दिन यह सारी बात बड़े भाई के कानों तक पहुंच गई। एकदम उसके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई और छोटे भाई के पास पहुंच गया।
”क्या तुम्हारे पास ‘सफल आगमन’ नाम का कोई बांस है जिससे बहुत सी चावल वर्षा होती है? यह सच्ची बात है क्या?“ उसने मिलते ही छोटे भाई से सवाल किया।
”जी हां भाई साहब! आपने तो मेरे प्रिय कुत्ते को मार दिया था, उसी कुत्ते को मैंने भक्तिपूर्वक जहां दफनाया था, वहां पर बांस उग आया है।“
उत्तर मिलते ही बड़े भाई ने कहा, ”तब तुम एक बार उस मृत कुत्ते को मुझे दे दो। मैं उसे अपने बगीचे में दफनाकर देखता हूं।“ पूर्ववत आग्रहपूर्वक वह मृत कुत्ते का शव मांगकर ले गया और उसे अपने घर में दफनाया। दूसरे दिन उद्यान में देखा कि ‘सफल आगमन’ बांस अपना सिर उठा रहा है। बड़े भाई की खुशी का ठिकाना न रहा। क्रमश वह बांस अपना कद बढ़ा रहा था। अब चावल की वर्षा अवष्यंभावी थी। किंतु विडंबना की बात है कि इस बार सफल आगमन नामक बांस ने देवलोक में स्थित कूड़ेदान में छेद किया। देवलोक का सारा का सारा कूड़ा, कचरा गिरा और कूड़े के ढ़ेर में बड़े भाई का घर दब गया। इसी को तो कहते हैं जैसी करनी वैसी भरनी।
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अपना काम स्वयं करो (Dadimaa ki kahaniyan)
एक बुद्धिमान लवा पक्षी का परिवार किसान के खेतों में रहता था। उनका घोंसला बहुत आरामदेह था। परिवार में सभी सदस्यों में अथाह प्रेम था।
एक सुबह अपने बच्चों के लिए भोजन की तलाश में जाने से पहले बच्चों की मां ने कहा- ”देखो बच्चों! किसान बहुत जल्दी अपनी फसल काट कर आएगा। ऐसी स्थिति में हमें अपना नया घर खोजना पड़ेगा। तो तुम सब अपने कान और आंखें खुली रखना और जब मैं शाम को लौटकर आऊं तो मुझे बताना कि तुमने क्या देखा और क्या सुना?“
शाम को जब लवा अपने घर लौटी तो उसने अपने परिवार को परेशान हाल में पाया। उसके बच्चे कहने लगे- ”हमें जल्दी ही यह स्थान छोड़ देना चाहिए। किसान अपने पुत्रों के साथ अपने खेत की जांच करने आया था। वह अपने पुत्रों से कह रहा था। फसल तैयार है, हमें कल अपने सभी पड़ोसियों को बुलाकर फसल काट लेनी चाहिए।“
लवा ने अपने बच्चों की बातें ध्यानपूर्वक सुनीं, फिर बोली- ”अरे कोई खतरा नही। कल भी होशियार रहना। किसान जो कुछ करे या कहे, वह मुझे शाम को बताना।“
दूसरे दिन शाम को जब लवा वापस लौटी तो उसने अपने बच्चों को बहुत भयभीत पाया। मां को देखते ही वे चिल्लाए- ”किसान दुबारा यहां आया था। कह रहा था, यह फसल जल्दी ही काटी जानी चाहिए। अगर हमारे पड़ोसी हमारी सहायता नहीं करते तो हम अपने रिश्तेदारों को बुलाएंगे। जाओ, अपने चाचा और चचेरे भाइयों आदि से कहो कि कल आकर फसल काटने में हमारी सहायता करें।“
लवा मुस्कराई बोली- ”प्यारे बच्चों! चिन्ता मत करो। किसान के रिश्तेदारों के पास तो उनकी अपनी ही फसल काटने के लिए पड़ी है। वे भला यहां फसल काटने क्यों आएंगे।“
अगले दिन लवा फिर बाहर चली गई। जब वह शाम को लौटी तो बच्चे उसे देखते ही चिल्लाए- ”ओह मां! यह किसान आज कह रहा था कि यदि उसके रिश्तेदार और पड़ोसी फसल काटने नहीं आते तो वह खुद अपनी फसल काटेगा। तो अब तो यहां रहने का कोई लाभ नहीं है।“
”तब तो हमें शीघ्र ही यहां से चलना चाहिए।“ लवा बोली- ”यह मैं इसलिए कह रही हूं कि जब कोई किसी कार्य के लिए किसी अन्य पर निर्भर करता है तो वह कार्य कभी पूरा नहीं होता। परंतु वही व्यक्ति जब उस कार्य को स्वयं करने की ठान लेता है तो संसार की कोई भी शक्ति उसे उस कार्य को करने से नहीं रोक सकती। तो यही वह समय है, जब हमें अपना घर बदल लेना चाहिए।“
शिक्षा – आत्म-निर्भरता श्रेष्ठ गुण है। अपना काम स्वयं करो
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लालच (Dadimaa ki kahaniyan)
किसी गांव में दो भाई रहते थे, एक भाई गरीब था और दूसरा अमीर, दिवाली के दिन सब घरों में खुशियाँ मनाई जा रही थी पर गरीब भाई के घर में खाने को भी कुछ नहीं था, वह अपने अमीर भाई से कुछ मदद मांगने को गया तो उसने उसे मदद के लिए मना कर दिया, गरीब भाई लाचार होके वापस अपने घर को आ रहा था तो रास्ते में उसे एक बूढ़ा आदमी मिला जिसके पास एक लकड़ी का गठ्ठा था, बूढ़े ने उस से पूछा कि भाई बहुत उदास लग रहे हो क्या बात है?
आज दिवाली है सब को खुश होना चाहिए, उसने कहा ताया जी क्या करूँ घर में खाने को भी कुछ नहीं है, भाई से भी कोई मदद नहीं मिली कैसे दिवाली मनाउं! बूढ़े ने कहा तुम मेरे लकड़ी के गठ्ठे को मेरे घर पहुंचा दो में तुम्हीं ऐसी चीज दूंगा जिस से तुम अमीर हो जाओगे, वह गठ्ठा लेकर बूढ़े के साथ उसके घर गया बूढ़े ने उसे एक मालपुवा दिया और बताया कि जंगलमें जाना वहां तुम्हे एक जगह तीन पेड़ मिलेगे जिसके पास एक चट्टान है
ध्यान से देखोगे तो एक कोने में गुफा का मुंह दिखेगा, गुफा के अन्दर चले जाना वहां तीन बौने रहते है उनको मलपुवे बहुत पसंद हैं, इसके बदले वह तुम्हें कुछ भी देने को तयार होजाएँगे, तुम उनसे धन मत मांगना चक्की मांगना, मालपुवा लेकर वह गुफा में जा पहुंचा, उसके हाथ में पूवा देखकर एक बौना बोला यह पूवा मुझे देदो में तुम्हें जो मागोगे दूंगा,उसने कहा मुझे अपनी पत्थर की चक्की देदो, चक्की को लेकर जब वह चलने लगा तो बौने ने कहा इस चक्की को मामूली चक्की मत समझाना इस से जो मांगोगे मिल जाएगा,
इच्छा पूरी होने पर इसके ऊपर लाल कपड़ा डाल देना चीज निकानी बंद हो जाएगी, घर आकर उसने अपनी घरवाली से कहा एक कपड़ा बिछाओ! कपड़ा बिछा कर उसके ऊपर चक्की रखदी, फिर चक्की को घुमाकर कहा चक्की चक्की आटा निकाल वहां पर आटे का ढेर लग गया, लाल कपड़ा डाल कर फिर उसने चक्की को घुमाया और कहा चक्की चक्की दाल निकाल फिर वहां दाल का ढेर लग गया, उन्हों ने दाल चावल बनाए खाके आराम से सो गए, अगले दिन बचे हुए दाल चावल को उसने बाज़ार में बेच दिया, उसको बहुत सारा धन मिल गया, अब वह रोज कुछ न कुछ मांगता और बाज़ार में बेच देता, कुछ ही समय में वह अपने भाई से भी अमीर हो गया, उसकी अमीरी को देख कर उसका भाई जलने लग गया, उसने सोचा इसके हाथ ऐसा क्या लग गया है जिस से यह थोड़े ही दिनों में इतना अमीर बन गया है,
एक दिन वह चोरी छिपे उसके घर गया और सब कुछ जान गया, उसने रात में चक्की को चुरा लिया और अपने घर वालों को लेकर समुन्दर के किनारे से एक नाव खरीद कर टापू की ओर चल दिया, रास्ते में अपनी घरवाली की जिग्यासा पूरी करने के लिए उसने चक्की घुमाकर कहा चक्की चक्की नमक निकाल नमक का ढेर लगाना शुरू हो गया, अब उसको इसे बंद करना नहीं आता था, चक्की में से नमक निकलता रहा और नाव भारी होके डूब गई, उसका सारा परिवार उसी में समां गया, इस लिए लालच नहीं करना चाहिए,
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अहंकार (Dadimaa ki kahaniyan)
एक समय की घटना है, एक बूढ़े आदमी ने अपनी बहुत सी सम्पति अपने पुत्र के नाम कर दी। उसने अपनी वसीयत में लिखा कि उसकी सारी सम्पति उसके मरने के बाद उसके पुत्र की हो जाएगी। और वसीयत करने के कुछ दिन बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।
सम्पति इतनी अधिक थी कि उसका पुत्र और आगे आने वाली सात पुश्तें तक भी आराम से बैठे-बैठे बिना कोई काम-धंधा किए खा-पी सकता था। मगर उसका पुत्र अभी भी संतुष्ट नहीं था, वह अधिक से अधिक धन कमाना चाहता था। इसलिए उसने अपनी सभी अचल सम्पति बेच दी और भिन्न-भिन्न वस्तुओं की खरीद-फरोख्त कर उनका व्यापार करना आरंभ कर दिया।
भाग्यवश वह बहुत कम समय में अत्यधिक सफल हुआ तथा शीघ्र ही पहले से अधिक धनवान हो गया। उसने इतना अधिक इकटृा कर लिया कि दूसरे व्यापारी उससे ईर्ष्या करने लगे। कभी-कभी दूसरे व्यापारी या उसके मित्र उससे सफलता का रहस्य पूछते तो वह कहता- ”मैं इसलिए उन्नति कर रहा हूं कि मैं अपने धंधे को समझता हूं और कठारे परिश्रम करता हूं। मैं अपने ग्राहकों को भी खुश रखना जानता हूं।“
चूंकि उसने सचमुच व्यापार में तरक्की की थी, इसलिए उसके मित्र और अन्य व्यापारी उसकी शेखीबाजी को सच मानते थे। अपनी इस कामयाबी के कारण उसमें बड़ा ही अहंकार आ गया था। मगर उसे फिर भी अपने धन से संतुष्टि नहीं थी, वह अभी भी बहुत सा धन कमाना चाहता था। उसने व्यापार में अपने हाथ-पैर फैलाने आरंभ कर दिए। आरंभ में तो उसे व्यापार में लाभ हुआ। मगर उसका अहंकार इतना बढ़ गया था कि भाग्य की देवी उससे अप्रसन्न हो गई। उसे व्यापार में घाटा होने लगा।
पहली घटना तब हुई, जबकि माल से भरा उसका समुन्द्री जहाज डाकूओं ने लूट लिया। दूसरी घटना में माल से लदा जहाज अरब सागर में डूब गया। उसके भाग्य में कुछ न कुछ अपशुगन उत्पन्न हो गया था। तीसरी घटना ने उसे बिल्कुल ही उखाड़ फेंका। वह दर-दर का भिखारी बन गया। उसका सारा व्यापार चौपट हो गया।
उसकी यह दुर्दशा देखकर उसके मित्रों ने पूछा-”भाई, तुम्हारी यह दुर्दशा आखिर कैसे हुई?“
इस पर उसने अपने भाग्य को कोसा और कहा- ”क्या बताऊं, किस्मत ने साथ नहीं दिया।“
भाग्य की देवी उसकी बात सुनका अप्रसन्न हो गई। वह साक्षात उसके सामने प्रकट होकर बोली – ”तुम सचमुच बहुत अकृतज्ञ हो। जब तक तुम सफलता की सीढि़यां चढ़ते रहे, तब तक तुम उसका सारा श्रेय खुद लेते रहे, मगर जैसे ही हालात खराब हुए, तुमने भाग्य को धिक्कारना आरम्भ कर दिया। याद रखो मनुष्य की अकृतघ्नता तथा उसका अहंकार ही उसे ले डूबता है।“
निष्कर्ष- अहंकार से व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है।
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पत्थर का बच्चा (Dadimaa ki kahaniyan)
दागिस्तान एक खुश्क मरूस्थल है, जहां चारों ओर रेत और पत्थरों के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता। वहां एक खुश्क मैदान के बीच एक छोटा सा पत्थर खड़ा है। जो एक बच्चे के समान प्रतीत होता है। इस बारे में वहां के लोगों में एक कहानी प्रचलित है।
दागिस्तान पर प्रायः शत्रु आक्रमण करते रहते थे। एक बार क्रूर तैमूर ने भी दागिस्तान को हड़पना चाहा। तैमूर की बड़ी सेना बिना पानी वाले सूखे रेगिस्तान में बहुत दूर तक बढ़ती चली गई। अंत में आराम करने के लिए सेना एक घाटी में ठहर गई। उस घाटी में चारों ओर कहीं भी पानी का नामो निशान तक न था। तैमूर ने हर दिशा में पानी के लिए ऊंटों के काफिले भेजे। सेना का प्यास के मारे बुरा हाल था। एक एक करके सभी काफिले वापस लौट आए। उन्हें कहीं पानी न मिला।
तैमूर ने अपने सभी काफिलों के मुखियाओं को बुलाया और उनसे रास्ते के हालात पूछे, हर किसी ने एक ही जवाब दिया कि दागिस्तान के रास्ते बहुत खतरनाक और कठिन हैं तथा इन प्रदेशों में रहने वाले सब लोग पहाड़ों में भाग गए हैं। इन्हीं मुखियाओं में से एक ने कहा, ”बादशाह! अगर आपकी आज्ञा हो तो आपको वह घटना सुनाऊं, जो मैंने अपनी आंखों से देखी है।“
”जल्दी बताओ, ऐसा क्या देखकर आए हो तुम?“ तैमूर ने उतावलेपन से पूछा।
”मैंने एक छोटा लड़का देखा, जो दस-बारह भेड़ें चरा रहा था। मैंने उसे पकड़ने का आदेश दिया ताकि उससे पूछूं कि क्या आसपास पानी का कोई झरना है और यदि है तो कहां पर है? मैंने सोचा कि वहां आस पास कोई न कोई झरना अवश्य होगा, क्योंकि वहां एक लड़का अपनी भेड़ें चराता है, तो आसपास से उनके लिए पानी भी जरूर लाता होगा। पर उस लड़के ने झरने के बारे में कुछ भी बताने से साफ-साफ मना कर दिया। उसने कहा कि इस भूमि की भांति यहां का पानी भी हमारी संपत्ति है और हम अपने शत्रु को न तो अपनी भूमि दे सकते हैं और न ही पानी।“ उस मुखिया ने तैमूर को बताया।
यह सुनकर तैमूर ने उस लड़के को पकड़कर लाने का आदेश दिया। जब वह लड़का तैमूर के सामने लाया गया तो तैमूर ने उससे पूछा, ”क्यों रे लड़के, तू जानता है कि तू इस समय किसके सामने खड़ा है?“
”जानता हूं।“ लड़के ने फिर दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।
”तब तू चुपचाप मुझे वह झरना दिखा दे, जहां से तू पानी लाता है।“ तैमूर ने गुस्से से कहा।
”नहीं, अपने देश के दुश्मनों को मैं झरने का पता हरगिज नहीं बता सकता।“ बच्चे ने फिर दृढ़ता के साथ कहा।
”मैं तुझे झरने का पता बताने पर मजबूर कर दूंगा।“ तैमूर ने गुस्से से लाल-पीला होते हुए कहा और अपने सैनिकों को उससे झरने का पता उगलवाने का हुक्म दिया। सैनिकों ने उसे गंभीर यातनाएं दीं। पर बच्चे की जुबान से झरने का पता न उगलवा सके।
अंततः जब तैमूर को उस घाटी में कहीं पानी न मिला तो उसे जान बचाने के लिए अपने साथियों सहित वहां से वापस लौट जाना पड़ा। तैमूर के सैनिकों द्धारा दी गई यातनाओं की वजह से वह बच्चा जीवित न रह सका। लेकिन उसकी याद आज भी ताजा है। दरअसल वहां के निवासियों ने उसी जगह पर एक पत्थर रख दिया, जहां उस बच्चे की तैमूर के सिपाहियों ने यातनाएं दी थी और उसने दम तोड़ा था और वह ‘पत्थर का बच्चा’ दागिस्तान के मरूस्थल के बीच तब से आज तक स्थित है।
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भलाई का रास्ता (Dadimaa ki kahaniyan)
किसी गांव में तीन भाई रहते थे। वे बचपन में ही अनाथ हो गए थे। उनके पास जमीन जायदाद कुछ भी नहीं, सिर्फ सिर छुपाने के लिए एक छोटी सी झोंपड़ी भर थी। तीनों भाई दर दर भीख मांगकर अपना जीवन यापन करने लगे। बचपन बीता, जवानी आई, तो एक दिन तीनों भाइयों ने यह सोचा कि कहीं दूसरे स्थान में चलकर मेहनत मजूरी की जाए। शायद, कोई भला आदमी अपने यहां पर रख ले। वे गांव छोड़कर चल दिए। रास्ते में उन्हें एक बूढ़ा राहगीर दिखाई दिया। उसकी दाढ़ी खूब लंबी और सफेद थी। बूढ़े ने भाइयों के पास आकर पूछा, ”बच्चो, कहां जा रहे हो?“
”मजदूरी की तलाश में।“
”क्या तुम्हारे पास अपनी खेती बाड़ी नहीं है?“
”नहीं“ भाइयों ने मायूसरी से जवाब दिया, ” काश, हमें कोई भला आदमी मिल जाता, तो उसके यहां हम लोग मेहनत से काम करते और अपने पिता की ही तरह उसका आदर करते।“
बूढ़ा सोच में पड़ गया। क्षणिक खामोशी के बाद बोला, ”आज से तुम लोग मेरे बेटे हुए और मैं तुम्हारा धर्म पिता। मैं तुम लोगों की सहायता करूंगा। ईमानदारी, परोपकार और सच्चाई का रास्ता दिखाऊंगा। तुम लोग अपना फर्ज निभाते चलना, मेरी सीख जीवन में याद रखना।“ तीनों खुश हुए और भलाई का जीवन बिताने के लिए तत्काल सहमत हो गए। बूढ़े ने उन्हें अपने साथ लिया और आगे बढ़ चला।
बियाबान जंगलों और लंबे रास्तों को पार करते हुए वे तीनों बूढ़े के पीछे पीछे चलते रहे। अचानक रास्ते में थोड़ी दूर पर उन्हें एक शानदार हवेली दिखाई दी। हवेली के बगल में चेरी की बगिया थी, जहां एक युवती खड़ी हुई थी। वह हू ब हू रूप की रानी लग रही थी। उसे देखते ही बड़ा भाई उस पर मोहित हो गया, बोला, ”काश, यह लड़की मेरी पत्नी होती। अमीर है, इसलिए दहेज में जमीन जायदाद, गाय, बैल, घोड़े भी मिलते।“
यह सुनकर बूढ़े ने कहा, ”तो आओ, तुम्हारा रिश्ता तय कराए देते हैं। तुम्हारी शादी हो जाएगी और दहेज भी खूब मिलेगा। खुशी खुशी जिंदगी गुजारना। बस, सच्चाई का रास्ता कभी मत भूलना।“
बूढ़ा उन्हें लड़की वालों के यहां ले गया। चट मंगनी, पट शादी। सभी बड़े खुश हुए। इस तरह बड़ा भाई हवेली का मालिक बन गया और सुखपूर्वक रहने लगा।
शेष दो अपने मुंहबोले बेटों को साथ लेकर बूढ़ा आगे चल पड़ा। वे पूर्ववत बियाबान जंगलों और लंबे रास्तों को पार करते हुए चलते रहे। चलते चलते उन्हें रास्तें में खूबसूरत सा, चमकता हुआ घर दिखाई दिया। घर के बगल में एक तालाब था और तालाब के किनारे पनचक्की लगी थी। घर के पास एक युवती अपनी धुन में मगन किसी काम में व्यस्त थी। मंझले भाई ने कहा, ”काश, ऐसी ही युवती मेरी पत्नी होती। दहेज में तालाब और पनचक्की मिल जाती तो मैं मजे से चक्की चलाता, गेहूं पीसता और चैन से जिंदगी गुजारता।“
”तो आओ, तुम्हारी मरजी ही सही।“ बूढ़े ने लड़के से कहा।
बूढ़ा और उनके साथ दोनों लड़के लड़की वालों के यहां पहुंचे। बूढ़े ने शादी तय करा दी। मंझला भाई भी घर का मालिक बन गया और पत्नी के साथ आनंद से रहने लगा। उससे विदा लेते समय बूढ़े ने कहा, ”बेटे अब हम चलते हैं, तुम खुश रहो। लेकिन याद रखना कि सच्चाई का रास्ता कभी न भूलना।“
अब बूढ़ा और सबसे छोटा लड़का फिर आगे बढ़ चले। अचानक उन्हें एक साधारण सी झोंपड़ी दिखाई दी। उषा की लालिमा जैसी सुंदर एक युवती अपनी झोंपड़ी से बाहर आ रही थी। वह बहुत गरीब थी। उसके पुराने कपड़ों पर कई कई पैबंद थे।
छोटे भाई ने कहा, ” काश, यह युवती मेरी पत्नी होती। हम दोनों कंधे से कंधा मिलाकर मेहनत करते और हमारे यहां बस, खाने भर का अनाज होता। तब हम दीन दुखियों की भरसक मदद करते, खुद खाते और दूसरों को भी खिलाते।“
यह सुनकर बूढ़े ने कहा, ”शाबाश, ऐसा ही होगा। पर देखो, सच्चाई का रास्ता कभी मत भूलना।“ अब इस छोटे की शादी भी बूढ़े ने करा दी और बूढ़ा अपनी राह चल पड़ा।
इधर तीनों भाई अपनी अपनी जिंदगी जीने लगे। बड़ा भाई इतना अमीर हो गया कि उसने अपने लिए अच्छे से अच्छे घर बनाए। फिर भी उसे दिन रात यही धुन सवार रहती कि वह और अधिक से अधिक अमीर कैसे बने? गरीबों की मदद या उन्हें सहारा देने की बात तो उसके मन में कभी आती ही नहीं। वह अत्यंत कंजूस भी हो गया।
मंझला भाई भी अमीर हो गया। उसके यहां भी नौकर चाकर काम करने लगे और वह ऐशोआराम की जिंदगी बिताने लगा। वह बस, धनवानों की तरह खाता पीता और नौकरों पर हुक्म चलाता रहता।
सबसे छोटा भाई मेहनत मजदूरी कर शांति से अपनी गुजर बसर कर रहा था। घर गृहस्थी में जब कोई उत्सव होता, तो वह दूसरों के साथ मिल बांटकर खाता। जब कुछ न होता, तो संतोष करता, पर वह कभी भी अपनी परेशानियों का रोना न रोता।
इस बीच बूढ़ा दूर दूर का सफर करता रहा। एक दिन उसे अपने बेटों का ख्याल आया। कहीं वे सच्चाई के रास्ते से भटक तो नहीं गए? बूढ़े ने भिखारी का भेष बनाया। सबसे पहले वह बड़े लड़के के घर पहुंचा और बड़े दीन भाव से झुकते हुए गिड़गिड़ाकर बोला, ”जुग जुग जियो मेरे लाल, इस गरीब लाचार बूढ़े को खाना करा दो।“
बड़े लड़के ने बूढ़े को अपमानित करते हुए कहा, ”अरे खूसट, तू अभी हटृा कटृा तो दिख रहा है। भूख लगी है तो जा कहीं मेहनत मजदूरी कर। अभी तो खुद अपने पैरों पर किसी तरह खड़ा हो पाया हूं। जा, चलता बन।“
बूढ़ा वापस चल दिया। लेकिन थोड़ी दूर जाकर वह ठहर गया उसने पलटकर बड़े लड़के के घर की ओर देखा, तो वह धुआं उगलता हुआ भस्म हो गया।
बूढ़ा अब मंझले लड़के के पास पहुंचा। वह खुद पनचक्की पर बैठा हुआ नौकरों पर हुक्म चला रहा था। बूढ़े ने झुककर दैन्य भाव से कहा, ”बेटा, भगवान तुम्हारा भला करे। थोड़़ा सा आटा दे दो। मैं भिखारी हूं, दाने दाने को तरस रहा हूं।“
”वाह बाबा वाह!“ दूसरे बेटे ने कहा, ”यहां तो मैं खुद गरीबी से जूझ रहा हूं। मेरे पास तो खुद अपने लिए आटा नहीं है। तुझ जैसे भिखारी तो रोज मारे मारे फिरते हैं। आखिर किस किसका पेट भरूं?“
बूढ़ा दूसरे लड़के के यहां से भी मायूस होकर चल पड़ा और थोड़ी दूर जाकर एक टीले पर ठहर गया। बूढ़े ने पलटकर देखा तो मंझले लड़के को घर और पनचक्की धू धूकर जल उठे।
अब बूढ़ तीसरे छोटे लड़के के यहां पहुंचा। वह सचमुच गरीब था। उसकी झोंपड़ी वैसी ही छोटी सी ही थी, लेकिन साफ सुथरी दिख रही थी। ”बेटा, भगवान तुम्हारा भला करे। मैं बहुत भूखा हूं। कुछ खाने को दे दो?“
”बाबा, अंदर चलो, खाना मेरे घर में है। खाना खा लेना और थोड़ा रास्ते के लिए साथ भी लेते जाना।“
बूढ़ा झोंपड़ी के अंदर पहुंचा। उसने घर की मालकिन को देखा। वह साधारण कपड़े पहने हुए थी। पर उसे बूढ़े के फटे पुराने कपड़े देख बहुत अफसोस हुआ। वह बूढ़े के लिए कपड़े ले आई, बोली, ”बाबा, ये कपड़े पहन लो।“
बूढ़ा खुशी खुशी कपड़े पहनने लगा तो मालकिन ने देखा कि बूढ़े के सीने पर एक बड़ा सा घाव है। बूढ़े को बिठाकर उसने भरपेट खाना खिलाया। अचानक छोटे लड़के के पूछा, ”बाबा, तुम्हारे सीने में इतना बड़ा जख्म कैस है?“
”बेटा, यह बड़ा अजीब जख्म है। अब तो बस मैं चंद रोज का मेहमान हूं। इस जख्म की वजह से मेरी मौत कभी हो सकती है।“
”तौबा! तो क्या इसकी कोई दवा नहीं है?“ घर की मालकिन ने दुख प्रकट करते हुए कहा।
”दवा तो है। बस एक ही दवा है, लेकिन उसे कोई देगा नहीं, जबकि हर कोई दे सकता है।“
तब छोटे लड़के ने कहा, ”आखिर क्यों नहीं देगा? ऐसी कौन सी दवा है?“
”दवा बड़ी अजीबो गरीब है, बेटा! जानना चाहते हो तो सुनो, यदि किसी घर का मालिक अपने घर समेत अपनी सारी दौलत आग लगाकर फूंक दे और उसकी राख मेरे जख्म पर छिड़क दे, तो जख्म अपने आप सूख सकता है।“
छोटा बेटा थोड़ी देर असमंजस में पड़ गया। फिर अपनी पत्नी से बोला, ”कहो, तुम्हारा क्या ख्याल है?“
”ख्याल? मैं तो समझती हूं मेरी झोंपड़ी फिर बन जाएगी, बाबा बेचारे की जिंदगी खतरे में है, क्यों न, इन्हें मरने से बचा लिया जाए।“
”फिर देर क्या है? आओ, बच्चों को झोंपड़ी से बाहर निकाल लें।“ दोनो झोंपड़ी से बाहर आ गए। छोटे लड़के ने झोंपड़ी पर एक नजर डाली, उसे अपनी जो कुछ भी जमा पूंजी थी, उसके लिए अफसोस तो था, लेकिन बूढ़े के प्रति उसके हदय में कहीं ज्यादा तकलीफ थी। अतः उसने झोंपड़ी में आग लगा दी। झोंपड़ी थोड़ी देर में राख का ढ़ेर बन गई। लेकिन यह क्या? अचानक झोंपड़ी के स्थान पर खूबसूरत हवेली आ खड़ी हुई।
उधर बूढ़ा अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ मुस्करा रहा था।
”बेटा, तीनों भाइयों में से तुम ही अकेले सच्चाई के रास्ते पर चल रहे हो। खुश रहो और युग युग जियो।“
अब छोटे लड़के की समझ में आया कि यह वही बूढ़े बाबा हैं, जिन्होंने एक दिन तीनों भाइयों को अपना मुंह बोला बेटा बनाया था।
वह बूढ़े की ओर लपका, ”लेकिन तब तक वह गायब हो चुका थे।“
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लोभ (Dadimaa ki kahaniyan)
बहुत समय पहले की बात है, किसी गांव में एक किसान रहता था, गांव में ही खेती का काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पलता था, किसान अपने खेतों में बहुत मेहनत से काम करता था, परन्तु इसमें उसे कभी लाभ नहीं होता था, एक दिन दोपहर में धूप से पीड़ित होकर वह अपने खेत के पास एक पेड़ की छाया में आराम कर रहा था, सहसा उस ने देखा कि एक एक सर्प उसके पास ही बाल्मिक (बांबी) से निकल कर फेन फैलाए बैठा है,
किसान आस्तिक और धर्मात्मा प्रकृति का सज्जन व्यक्ति था, उसने विचार किया कि ये नागदेव अवश्य ही मेरे खेत के देवता हैं, मैंने कभी इनकी पूजा नहीं की, लगता है इसी लिए मुझे खेती से लाभ नहीं मिला, यह सोचकर वह बाल्मिक के पास जाकर बोला-हे क्षेत्ररक्षक नागदेव! मुझे अब तक मालूम नहीं था कि आप यहाँ रहते हैं, इसलिए मैंने कभी आपकी पूजा नहीं की, अब आप मेरी रक्षा करें, ऐसा कहकर एक कसोरे में दूध लाकर नागदेवता के लिए रखकर वह घर चला गया, प्रात:काल खेत में आने पर उसने देखा कि कसोरे में एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई है,
अब किसान प्रतिदिन नागदेवता को दूध पिलाता और बदले में उसे एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती, यह क्रम बहुत समय तक चलता रहा, किसान की सामाजिक और आर्थिक हालत बदल गई थी, अब वह धनाड्य हो गया था, एक दिन किसान को किसी काम से दूसरे गांव जाना था, अत: उसने नित्यप्रति का यह कार्य अपने बेटे को सौंप दिया, किसान का बेटा किसान के बिपरीत लालची और क्रूर स्वभाव का था, वह दूध लेकर गया और सर्प के बाल्मिक के पास रख कर लौट आया,
दूसरे दिन जब कसोरालेने गया तो उसने देखाकि उसमें एक स्वर्ण मुद्रा रखी है, उसे देखकर उसके मन में लालच आ गया, उसने सोचा कि इस बाल्मिक में बहुत सी स्वर्णमुद्राएँ हैं और यह सर्प उसका रक्षक है, यदि में इस सर्प को मार कर बाल्मिक खोदूं तो मुझे सारी स्वर्णमुद्राएँ एकसाथ मिल जाएंगी, यह सोचकर उसने सर्प पर प्रहार किया, परन्तु भाग्यवस सर्प बच गया एवं क्रोधित हो अपने विषैले दांतों से उसने उसे काट लिया, इस प्रकार किसान बेटे की लोभवस मृतु हो गई, इसी लिए कहते हैं कि लोभ करना ठीक नहीं है,
घाव (Dadimaa ki kahaniyan)
बहुत पुरानी बात है, एक लकड़हारे और शेर में गहरी मित्रता थी। दोनों का मन एक दूसरे के बिना नहीं लगता था। शेर जंगल में रहता था और लकड़हारा गांव में। लकड़हारा लकड़ियां काटकर और उन्हें बेचकर अपनी गृहस्थी चला रहा था। सारे दिन वह जंगल में लकड़ियां काटता था और शेर उसके पास बैठकर उससे बातें किया करता था।
एक दिन लकड़हारे ने शेर की दावत करने की सोची और फिर उसने शेर के सामने दावत का प्रस्ताव रखा। उसने दावत का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लकड़ियां काटने के बाद शाम को लकड़हारा शेर को अपने घर ले गया। शेर को लकड़हारे के साथ देखकर लकड़हारे की पत्नी और बच्चे डर गए। उन्हें डरा देख लकड़हारे ने उनका डर दूर करते हुए बताया कि शेर उसका मित्र है और आज हमारा अतिथि है। लकड़हारे के बताने पर उसके बच्चे खुश हो गए परंतु उसकी पत्नी खुश नहीं हुई। वह बुरा सा मुंह बनाते हुए अंदर घर में चली गई।
लकड़हारे ने शेर की खूब आवभगत की। उससे जो भी बन पड़ा उसने शेर के लिए किया। रात को सोने का वक्त होने पर लकड़हारे ने शेर को अपने साथ घर में सुलाना चाहा पर उसकी पत्नी ने शेर को घर में सुलाने का विरोध करते हुए कहा कि वह शेर को किसी भी कीमत पर घर में नहीं सोने देगी क्योंकि शेर जैसे खूंखार जीव का कोई भरोसा नहीं होता, ऐसा जीव कभी भी नुकसान पहुंचा सकता है। पत्नी के विरोध करने पर लकड़हारे ने पत्नी को समझाया- ‘यह शेर और शेरों की तरह नहीं है। यह साथ सोने पर किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाएगा।’लेकिन उसकी पत्नी शेर को घर में सुलाने को तैयार नहीं हुई। आखिर हार-थक कर लकड़हारे को अपनी पत्नी की बात माननी पड़ी। लकड़हारे की पत्नी ने लकड़हारे से शेर के गले में रस्सी बांधकर घर के बाहर खड़े एक पेड़ से बांधने को कहा, पत्नी की बात मानकर लकड़हारे ने ऐसा ही किया।
उस रात अचानक मौसम खराब हो गया, लकड़हारा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ घर में आराम से सोता रहा किंतु शेर बेचारा सारी रात पेड़ के नीचे बंधा बारिश और तेज हवा के थपेड़े सहता रहा। सुबह को लकड़हारा सोकर उठा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ कि उसकी वजह से उसका मित्र सारी रात बारिश में भीगता रहा। यह सोचकर लकड़हारे को बहुत दुख हुआ, उसने शेर से माफी मांगी। शेर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है मित्र, यह सब खराब मौसम की मेहरबानी है।’ शेर की बात सुनकर लकड़हारे को खुशी हुई कि उसका मित्र उससे नाराज नहीं है। लकड़हारा लकड़ियां काटने जंगल आया तो शेर भी उसके साथ जंगल चला गया। लकड़हारा एक दो दिन और शेर को अपने घर रोकना चाहता था पर शेर नहीं रूका।
इन बातों को कई दिन गुजर गए। एक दिन लकड़हारा लकड़ियां काटने के बाद जब घर जाने की तैयारी में था तो शेर उसके पास आया और बोला, ‘मित्र, अपनी कुल्हाड़ी मेरी पीठ पर मारो।’
शेर की ये बात सुनकर लकड़हारा चौंक गया, उसने सोचा शायद शेर उससे मजाक कर रहा है। शेर ने दोबारा कुल्हाड़ी मारने को कहा, तो लकड़हारा हैरानी से बोला, ‘यह तुम क्या कह रहे हो मित्र….. मैं भला तुम्हें कुल्हाड़ी कैसे मार सकता हूं।’
लकड़हारे के इनकार करने पर शेर दहाड़ते हुए बोला, ‘अगर, तुमने मेरा कहा नहीं माना तो मैं तुम्हें मारकर खा जाऊंगा।’ शेर का बदला रूप देखकर लकड़हारा डर गया। उसकी समझ में नहीं आया कि उसका मित्र उससे कुल्हाड़ी मारने को क्यों कह रहा है। उसने इस बारे में शेर से पूछा किंतु शेर ने उसे कुछ नहीं बताया। शेर ने तीसरी बार चेतावनी देते हुए कुल्हाड़ी मारने के लिए कहा। मरता क्या न करता, लकड़हारे ने अपनी जान बचाने के लिए शेर की पीठ पर कुल्हाड़ी दे मारी। कुल्हाड़ी लगते ही शेर की पीठ पर गहरा जख्म हो गया। जिससे खून बहने लगा। शेर लकड़हारे को आश्चर्यचकित छोड़ अपनी गुफा की आरे चला गया।
अगले दिन लकड़हारा डरते-डरते जंगल में लकड़िया काटने गया कि पता नहीं आज उसके प्रति शेर का कैसा व्यवहार होगा। शेर ने लकड़हारे के साथ और दिन की ही तरह व्यवहार किया तो लकड़हारे के दिल को तसल्ली हुई। शेर की पीठ का जख्म वक्त के साथ-साथ भरता गया।
एक दिन शेर ने लकड़हारे से अपने जख्म के बारे में पूछा तो लकड़हारे ने खुश होते हुए बताया, ‘मित्र तुम्हारा जख्म अब पूरी तरह भर गया है।’ लकड़हारे के बताने पर शेर गंभीर होते हुए बोला, ‘जानना चाहते हो मित्र, मैंने तुमसे अपनी पीठ पर कुल्हाड़ी क्यों लगवाई थी?’
शेर के कहने पर लकड़हारे ने हामी भर दी। वह भी यह बात जानते को उत्सुक था। शेर उसे बताने लगा। घर आया अतिथि भगवान के समान होता है मित्र और अतिथि का आदर बड़े प्रेम से किया जाता है। मैं भी तुम्हारा अतिथि था किंतु तुमने और तुम्हारी पत्नी ने मेरा आदर करने की जगह मेरा अपमान किया। तुम्हारी पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति दुत्कारने वाला था, पत्नी के कहने पर तुमने मुझे घर से बाहर पेड़ से बांध दिया, जहां मैं सारी रात बारिश के मौसम में भीगता रहा।
उस दिन की बात का जख्म मेरे दिल पर आज भी ताजा है। मैंने तुमसे अपनी पीठ पर कुल्हाड़ी इसीलिए लगवाई थी ताकि मैं तुम्हें दिखा सकूं कि चोट का जख्म तो भर जाता है किंतु बात का जख्म कभी नहीं भरता। एक बात कान खोलकर सुन लो, तुम्हारी और मेरी मित्रता केवल आज तक थी। आज के बाद न मैं तुम्हारा मित्र हूं और न ही तुम मेरे मित्र हो और अगर आज के बाद तुम मुझे इस जंगल में दिखाई दे गए तो मैं तुम्हें अपना भोजन बना लूंगा। शेर अपनी बात पूरी करने के बाद चला गया।’
लकड़हारा ठगा-सा शेर को जाते हुए देखता रहा। अपनी पत्नी के गलत व्यवहार की वजह से आज उसने अपना पुराना मित्र खो दिया था। उसे बहुत पछतावा हुआ किंतु अब पछताने से क्या फायदा था। लकड़हारा दुखी मन से गांव की तरफ चल दिया।
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भाग्य (Dadimaa ki kahaniyan)
दो मित्र थे। एक ब्राहमण था, दूसरा भाट। भाट ने एक दिन अपने मित्र से कहा, ”चलो, राजा के दरबार में चलें। यदि गोपाल राजा खुश हो गया तो हमारे भाग्य खुल जाएंगे।“
ब्राहमण ने हंसकर उसकी बात टालते हुए कहा, ”देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल? भाग्य में होगा, वही मिलेगा।“
भाट ने कहा, ”नहीं, देगा तो गोपाल, क्या करेगा कपाल! गेपाल राजा बड़ा दानी है, वह हमें अवश्य बहुत धन देगा।“
दोनों में इस प्रकार विवाद होता रहा और अंत में गोपाल राजा के दरबार में जाकर दोनों ने अपनी अपनी बात कही। भाट की बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्ना हुआ। ब्राहमण की बात सुनकर उसे क्रोध आया। उसने दोनों को दूसरे दिन दरबार में आने की आज्ञा दी।
दोनों मित्र दूसरे दिन दरबार में पहुंचे। राजा की आज्ञा से उनके सिपाहियों ने ब्राहमण को एक मुट्टी चावल, दाल और कुछ नमक दे दिया। भाट को एक सेर चावल, एक सेर घी, और एक कद्दू दिया। राजा के आदेश से कद्दू में सोना भर दिया गया। राजा ने कहा, ”अब जाकर बना खा लो। शाम को फिर दरबार में हाजिर होना।“
दरबार से चलकर वे नदी किनारे के उस स्थान पर पहुंचे, जहां उन्होंने रात बिताई थी। भाट मन ही मन सोच रहा था, ‘न जाने क्यों राजा ने ब्राहमण को तो दाल दी और मुझे कद्दू दे दिय। इसे छीलो, काटो और फिर बनाओ इसकी तरकारी। कौन करे इतना झंझट? ऊपर से यह भी डर है कि कहीं इसके खाने से फिर से कमर का पुराना दर्द न उभर आये।’ ऐसा सोचकर उसने ब्राहमण से कहा, ”मित्र कद्दू खाने से मेरी कमर में दर्द हो जाएगा। इसे लेकर तुम अपनी दाल मुझे दे दो।“ ब्राहमण ने उसकी बात मान ली। अपना अपना सामान लेकर दोनों रसोई में जुट गए।
भाट दाल चावल खाकर एक आम के पेड़ के नीचे लेट गया। ब्राहमण ने जब कद्दू काटा तो उसे वह सोना दिखाई दिया, जो राजा ने उसमें भरवा दिया था। उसने मन ही मन सोचा, ‘जो मेरे भाग्य में था, मेरे पास आ गया। गोपाल तो इसे भाट को दे देना चाहते थे।’ उसने सोना एक कपड़े में बांध लिया। कद्दू का आधा भाग बेचकर आधे की तरकारी बना ली। वह भी खा पीकर सो गया।
संध्या के समय दोनों मित्र फिर गोपाल राजा के दरबार में पहुंचे। ब्राहमण ने शेष आधा कद्दू एक कपड़े में लपेटकर अपने पास ही रख लिया था। राजा ने ब्राहमण की ओर देखकर पूछा, ”अब तो मान लिया- देगा तो गोपाल, क्या करेगा कपाल?“
ब्राहमण ने आधा कद्दू राजा की ओर बढ़ा दिया और नम्रता से सिर झुकाकर कहा, ”नहीं महाराज, देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल?“
राजा ने सोचा कि ब्राहमण सच कह रहा है। ब्राहमण के भाग्य में सोना था, भाट के नहीं और इसीलिए भाट ने कद्दू ब्राहमण को दे दिया। राजा ने कहा, ”तुम्हारा कहना ठीक है। देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल।“
उसने दोनों को भेंट में धन देकर विदा कर दिया।
दान (Dadimaa ki kahaniyan)
बहुत समय पहले एक राजा था। वह अपनी न्यायप्रियता के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। एक बार वह अपने दरबार में बैठा ही था कि अचानक उसके दिमाग में एक सवाल उभरा। सवाल था कि मनुष्य का मरने के बाद क्या होता होगा? इस अज्ञात सवाल के उत्तर को पाने के लिए उस राजा ने अपने दरबार में सभी मंत्रियों आदि से मशवरा किया। सभी लोग राजा की इस जिज्ञासा भरी समस्या से चिंतित हो उठे।
काफी देर सोचने विचारने के बाद राजा ने यह निर्णय लिया कि मेरे सारे राज्य में यह ढिंढोरा पिटवा दिया जाए कि जो आदमी कब्र में मुरदे के समान लेटकर रात भर कब्र में मरने के बाद होने वाली सभी क्रियाओं का हवाला देगा, उसे पांच सौ सोने की मोहरें भेंट दी जाएंगी। राजा के आदेशानुसार सारे राज्य में उक्त ढिंढोरा पिटवा दिया गया।
अब समस्या आई कि अच्छा भला जीवित कौर व्यक्ति मरने को तैयार हो? आखिरकार सारे राज्य में एक ऐसा व्यक्ति इस काम को करने के लिए तैयार हो गया, जो इतना कंजूस था कि वह सुख से खाता पीता, सोता नहीं था। उसको राजा के पास पेश किया गया। राजा के आदेशानुसार उसके लिए बढ़िया फूलों से सुसज्जित अर्थी बनाई गई। उसको उस पर लिटाकर बाकयदा श्वेत कफन से ढक दिया गया और उसे कब्रिस्तान ले जाया गया।
घर से जाने पर रास्ते में एक फकीर ने उसका पीछा किया और उससे कहा कि अब तो तुम मरने जा रहे हो, घर में तुम अकेले हो। इतना धन तुम्हारे घर में ही कैद पड़ा रहेगा, मुझे कुछ दे दो। कंजूस के बार बार मना करने पर भी फकीर ने कंजूस का पीछा नहीं छोड़ा और बरबार कुछ मांगने की रट लगाए रहा। कंजूस जब एकदम परेशान हो गया तो उसने कब्रिस्तान में पड़े बादाम के छिलकों के एक ढेर में से मुट्ठी भर छिलके उठाए और उस फकीर को दे दिए।
बाद में कंजूस को एक कब्र में लिटा दिया गया और ऊपर से पूरी कब्र बंद कर दी गई। बस एक छोटा से छेद सिर की तरफ इस आशा के साथ कर दिया गया कि यह इससे सांस लेता रहे और अगली सुबह राजा को मरने के बाद का पूरा हाल सुनाए। सभी लोग कंजूस को उस कब्र में लिटाकर चले गए। रात हुई। रात होने पर एक सांप कब्र पर आया और छेद देखकर उसमें घुसने का प्रयत्न करने लगा। यह देखकर कब्र में लेटे कंजूस की घबराहट का ठिकाना न रहा।
सांप ने जैसे ही घुसने का प्रयत्न किया तो उस छेद में बादाम के छिलके आड़ बनकर आ गए। सुबह होते ही राजा के सभी नौकर बड़ी जिज्ञासा के साथ कब्रिस्तान आए और जल्दी ही कब्र को खोदकर कंजूस को निकाला। मरने के बाद क्या होता है, यह हाल सुनाने के लिए कंजूस को राजा के पास चलने को कहा। कंजूस ने राजा के नौकरों की बात को थोड़ा भी नहीं सूना।
वह पहले अपने घर गया और अपनी तमाम धन संपत्ति को गरीबों में बांट दिया। सब लोग कंजूस की अचानक दान करने की इस दयालुता को देखकर हैरान में पड़ गए। उनके मन में कई सवाल उठने लगे। अंत में कंजूस को राज दरबार में पूरा हाल सुनाने के लिए राजा के सामने पेश किया गया। कंजूस ने बीती रात, सांप व बादाम के छिलकों के संघर्ष की पूरी कहानी कह सुनाई और कहा, ”महाराज, मरने के बाद सबसे ज्यादा दान ही काम आता है, अतः दान करना ही सब धर्मों से श्रेष्ठ है।“
एहसान (Dadimaa ki kahaniyan)
एक बहेलिया था। एक बार जंगल में उसने चिड़िया फंसाने के लिए अपना जाल फैलाया। थोड़ी देर बाद ही एक उकाब उसके जाल में फंस गया।
वह उसे घर लाया और उसके पंख काट दिए। अब उकाब उड़ नहीं सकता था, बस उछल उछलकर घर के आस-पास ही घूमता रहता।
उस बहेलिए के घर के पास ही एक शिकारी रहता था। उकाब की यह हालत देखकर उससे सहन नहीं हुआ। वह बहेलिए के पास गया और कहा- ”मित्र, जहां तक मुझे मालूम है, तुम्हारे पास एक उकाब है, जिसके तुमने पंख काट दिए हैं। उकाब तो शिकारी पक्षी है। छोटे-छोटे जानवर खा कर अपना भरण-पोषण करता है। इसके लिए उसका उड़ना जरूरी है। मगर उसके पंख काटकर तुमने उसे अपंग बना दिया है। फिर भी क्या तुम उसे मुझे बेच दोगे?“
बहेलिए के लिए उकाब कोई काम का पक्षी तो था नहीं, अतः उसने उस शिकारी की बात मान ली और कुछ पैसों के बदले उकाब उसे दे दिया।
शिकारी उकाब को अपने घर ले आया और उसकी दवा-दारू करने लगा। दो माह में उकाब के नए पंख निकल आए। वे पहले जैसे ही बड़े थे। अब वह उड़ सकता था।
जब शिकारी को यह बात समझ में आ गई तो उसने उकाब को खुले आकाश में छोड़ दिया। उकाब ऊंचे आकाश में उड़ गया। शिकारी यह सब देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। उकाब भी बहुत प्रसन्न था और शिकारी का बहुत कृतज्ञ था।
अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उकाब एक खरगोश मारकर शिकारी के पास लाया।
एक लोमड़ी, जो यह सब देख रही थी, उकाब से बोली- ”मित्र! जो तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता उसे प्रसन्न करने से क्या लाभ?“
इसके उत्तर में उकाब ने कहा- ”व्यक्ति को हर उस व्यक्ति का एहसान मानना चाहिए, जिसने उसकी सहायता की हो और ऐेसे व्यक्तियों से सावधान रहना चाहिए जो हानि पहुंचा सकते हों।“
निष्कर्ष- व्यक्ति को सदा सहायता करने वाले का कृतज्ञ रहना चाहिए।
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टेढ़ी खीर (Dadimaa ki kahaniyan)
शादी की बारात की दावत चल रही थी। महमानों की बहुत सेवा हो रही थी। महमानों में एक सज्जन जिनको सब भाई साहब कह कर बुलाते थे, वे जन्म से ही नेत्रहीन थे। खाने के बाद खीर परोसी गई। भाई साहब को खीर बहुत पसन्द आई। उन्होंने परसने वाले सज्जन को बुला के पूछा कि ये क्या है? उसके कहने पर कि ये खीर है तो भाई साहब ने पूछा कि इसका कैसा रंग है? जब उन्हें बताया कि इसका सफेद रंग है तो वह फिर बोले कि सफेद क्या होता है।
परसने वाले ने कहा कि जैसा बगुले का रंग होता है वैसा ही खीर का रंग है। भाई साहब ने बगुला भी नहीं देखा था तो बोले कि भाई बगुला क्या होता है। परसने वाले को जब कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने हाथ को मोड़ कर बगुले की गरदन बना कर भाई साहब को कहा कि ऐसा होता है। भाई साहब ने जब परसने वाले के हाथ को छुआ तो बोले, अरे! ये तो टेढ़ी खीर है!
अहंकार (Dadimaa ki kahaniyan)
हाथी भी साथ भागने लगे। धीरे धीरे गडम आ रहा है सुन कर बहुत सारे जानवर एकसाथ भागने लगे। यह जानवरों का झुण्ड जब बब्बर शेर की मांद के पास से दौड़ रहा था तो शेर ने पूछा क्यों भाग रहे हो। उत्तर मिला गडम आ रहा है भागो।जैसे ही एक शेर भागने को तयार हो रहा था तो दूसरे शेर ने कहा तुम क्यों भाग रहे हो तुम तो जंगल के राजा हो। तुम्हारे पास शक्तिशाली पंजे हैं तुम जिसे चाहो अपने पंजों से चीर सकते हो।
एकता मे बल (Dadimaa ki kahaniyan)
सारा दल नीचे उतरा और दाना चुनने लगा। वास्तव में वह दाना पक्षी पकडने वाले एक बहलिए ने बिखेर रखा था। ऊपर पेड पर तना था उसका जाल। जैसे ही कबूतर दल दाना चुगने लगा, जाल उन पर आ गिरा। सारे कबूतर फंस गए। कबूतरों के सरदार ने माथा पीटा “ओह! यह तो हमें फंसाने के लिए फैलाया गया जाल था। भूख ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। मुझे सोचना चाहिए था कि इतना अन्न बिखरा होने का कोई मतलब हैं। अब पछताए होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत?” एक कबूतर रोने लगा “हम सब मारे जाएंगे।”
तभी जाल बिछाने वाला बहेलियां आता नजर आया। जाल में कबूतर को फंसा देख उसकी आंखें चमकी। हाथ में पकडा डंडा उसने मजबूती से पकडा व जाल की ओर दौडा। बहेलिया जाल से कुछ ही दूर था कि कबूतरों का सरदार बोला “फुर्रर्रर्र!” सारे कबूतर एक साथ जोर लगाकर उडे तो पूरा जाल हवा में ऊपर उठा और सारे कबूतर जाल को लेकर ही उडने लगे। कबूतरों को जाल सहित उडते देखकर बहेलिया अवाक रह गया। कुछ संभला तो जाल के पीछे दौडने लगा। कबूतर सरदार ने बहेलिए को नीचे जाल के पीछे दौडते पाया तो उसका इरादा समझ गया।
ज़िंदगी का कड़वा सच (Dadimaa ki kahaniyan)
एक भिखारी था । वह न ठीक से खाता था, न पीता था, जिस वजह से उसका बूढ़ा शरीर सूखकर कांटा हो गया था । उसकी एक – एक हड्डी गिनी जा सकती थी । उसकी आंखों की ज्योति चली गई थी । उसे कोढ़ हो गया था । बेचारा रास्ते के एक ओर बैठकर गिड़गिड़ाते हुए भीख मांगा करता था । एक युवक उस रास्ते से रोज निकलता था । भिखारी को देखकर उसे बड़ा बुरा लगता । उसका मन बहुत ही दुखी होता ।
वह सोचता, वह क्यों भीख मांगता है? जीने से उसे मोह क्यों है? भगवान उसे उठा क्यों नहीं लेते? एक दिन उससे न रहा गया ।? वह भिखारी के पास गया और बोला – बाबा, तुम्हारी ऐसी हालत हो गई है फिर भी तुम जीना चाहते हो तुम भीख मांगते हो, पर ईश्वर से यह प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वह तुम्हें अपने पास बुला ले? भिखारी ने मुंह खोला – भैया तुम जो कह रहे हो, वही बात मेरे मन में भी उठती है ।
मैं भगवान से बराबर प्रार्थना करता हूं, पर वह मेरी सुनता ही नहीं । शायद वह चाहता है कि मैं इस धरती पर रहूं, जिससे दुनिया के लोग मुझे देखें और समझें कि एक दिन मैं भी उनकी ही तरह था, लेकिन वह दिन भी आ सकता है, जबकि वे मेरी तरह हो सकते हैं । इसलिए किसी को घमंड नहीं करना चाहिए । लड़का भिखारी की ओर देखता रह गया । उसने जो कहा था, उसमें कितनी बड़ी सच्चाई समाई हुई थी । यह जिंदगी का एक कड़वा सच था, जिसे मानने वाले प्रभु की सीख भी मानते हैं ।
एक से भले दो (Dadimaa ki kahaniyan)
किसी गांव में एक ब्राहमण रहता था, एक बार किसी कार्यवश ब्राहमण को किसी दूसरे गांव जाना था, उसकी माँ ने उस से कहा कि किसी को साथ लेले क्यूँ कि रास्ता जंगल का था, ब्राहमण ने कहा माँ! तुम डरो मत,मैं अकेला ही चला जाऊंगा क्यों कि कोई साथी मिला नहीं है, माँ ने उसका यह निश्चय जानकर कि वह अकेले ही जा रहा है पास की एक नदी से माँ एक केकड़ा पकड कर ले आई और बेटे को देते हुए बोली कि बेटा अगर तुम्हारा वहां जाना आवश्यक है तो इस केकड़े को ही साथ के लिए लेलो, एक से भले दो, यह तुम्हारा सहायक सिध्द होगा,
पहले तो ब्राहमण को केकड़ा साथ लेजाना अच्छा नहीं लगा, वह सोचने लगा कि केकड़ा मेरी क्या सहायता कर सकता है, फिर माँ की बात को आज्ञांरूप मान कर उसने पास पड़ी एक डिब्बी में केकड़े को रख लिया, यह डब्बी कपूर की थी, उसने इस को अपने झोले में डाल लिया और अपनी यात्रा के लिए चल पड़ा, कुछ दूर जाने के बाद धूप काफी तेज हो गई,
गर्मी और धूप से परेशान होकर वह एक पेड़ के नीचे आराम करने लगा, पेड़ की ठंडी छाया में उसे जल्दी ही नींद भी आगई, उस पेड़ के कोटर में एक सांप भी रहता था, ब्राहमण को सोता देख कर वह उसे डसने के लिए कोटर से बाहर निकला, जब वह ब्राहमण के करीब आया तो उसे कपूर की सुगंध आने लगी, वह ब्राहमण के बजाय झोले में रखे केकड़े वाली डिब्बी की तरफ हो लिया,उसने जब डब्बी को खाने के लिए झपटा मारा तो डब्बी टूट गई जिस से केकड़ा बाहर आ गया और डिब्बी सांप के दांतों में अटक गई केकड़े ने मौका पाकर सांप को गर्दन से पकड़ कर अपने तेज नाखूनों से कस लिया,
सांप वहीँ पर ढेर हो गया, उधर नींद खुलने पर ब्राहमण ने देखा की पास में ही एक सांप मारा पड़ा है, उसके दांतों में डिबिया देख कर वह समझ गया कि इसे केकड़े ने ही मारा है, वह सोचने लगा कि माँ की आज्ञां मान लेने के कारण आज मेरे प्राणों की रक्षा हो गई, नहीं तो यह सांप मुझे जिन्दा नहीं छोड़ता, इस लिए हमें अपने बड़े, माता ,पिता और गुरु जनों की आज्ञां का पालन जरुर करना चाहिए,
बिना सोचे समझे (Dadimaa ki kahaniyan)
एक समय शहर से कुछ ही दूरी पर एक मंदिर का निर्माण कैया जा रहा था। मंदिर में लकडी का काम बहुत थ इसलिए लकडी चीरने वाले बहुत से मजदूर काम पर लगे हुए थे। यहां-वहां लकडी के लठ्टे पडे हुए थे और लठ्टे व शहतीर चीरने का काम चल रहा था। सारे मजदूरों को दोपहर का भोजन करने के लिए शहर जाना पडता था, इसलिए दोपहर के समय एक घंटे तक वहां कोई नहीं होता था। एक दिन खाने का समय हुआ तो सारे मजदूर काम छोडकर चल दिए। एक लठ्टा आधा चिरा रह गया था। आधे चिरे लठ्टे में मजदूर लकडी का कीला फंसाकर चले गए। ऐसा करने से दोबारा आरी घुसाने में आसानी रहती हैं। तभी वहां बंदरों का एक दल उछलता-कूदता आया। उनमें एक शरारती बंदर भी था, जो बिना मतलब चीजों से छेडछाड करता रहता था।
पंगे लेना उसकी आदत थी। बंदरों के सरदार ने सबको वहां पडी चीजों से छेडछाड न करने का आदेश दिया। सारे बंदर पेडों की ओर चल दिए, पर वह शैतान बंदर सबकी नजर बचाकर पीछे रह गया और लगा अडंगेबाजी करने। उसकी नजर अधचिरे लठ्टे पर पडी। बस, वह उसी पर पिल पडा और बीच मेंअडाए गए कीले को देखने लगा। फिर उसने पास पडी आरी को देखा। उसे उठाकर लकडी पर रगडने लगा। उससे किर्रर्र-किर्रर्र की आवाज निकलने लगी तो उसने गुस्से से आरी पटक दी। उन बंदरो की भाषा में किर्रर्र-किर्रर्र का अर्थ ‘निखट्टू’ था। वह दोबारा लठ्टे के बीच फंसे कीले को देखने लगा। उसके दिमाग में कौतुहल होने लगा कि इस कीले को लठ्टे के बीच में से निकाल दिया जाए तो क्या होगा?
अब वह कीले को पकडकर उसे बाहर निकालने के लिए जोर आजमाईश करने लगा। लठ्टे के बीच फंसाया गया कीला तो दो पाटों के बीच बहुत मजबूती से जकडा गया होता हैं, क्योंकि लठ्टे के दो पाट बहुत मजबूत स्प्रिंग वाले क्लिप की तरह उसे दबाए रहते हैं। बंदर खूब जोर लगाकर उसे हिलाने की कोशिश करने लगा। कीला जोज्र लगाने पर हिलने व खिसकने लगा तो बंदर अपनी शक्ति पर खुश हो गया।
वह और जोर से खौं-खौं करता कीला सरकाने लगा। इस धींगामुश्ती के बीच बंदर की पूंछ दो पाटों के बीच आ गई थी, जिसका उसे पता ही नहीं लगा। उसने उत्साहित होकर एक जोरदार झटका मारा और जैसे ही कीला बाहर खिंचा, लठ्टे के दो चिरे भाग फटाक से क्लिप की तरह जुड गए और बीच में फंस गई बंदर की पूंछ। बंदर चिल्ला उठा। तभी मजदूर वहां लौटे। उन्हें देखते ही बंदर नी भागने के लिए जोर लगाया तो उसकी पूंछ टूट गई। वह चीखता हुआ टूटी पूंछ लेकर भागा। सीखः बिना सोचे-समझे कोई काम न करो।