एक चौधरी था। उसके एक ही लड़का था। अच्छा घर देखकर लड़के की शादी कर दी। बहू घर पर आयी । सास की प्रकृति कर्कश थी। सास-बहू में प्रबड़ा प्रारम्भ हो गया। एक दिन भयंकर लड़ाई हुई । बहू ने सोचा, अब जीना बेकार है। रात्रि में उठकर कुएं में गिरकर मर गई। सूर्योदय हुआ। पता लगते ही अड़ोसी-पड़ोसी पचासों व्यक्ति इकट्ठे हो गये। कुएं में से लाश निकाली गई। कइयों ने कहा-लाश को जला देना चाहिए।
कइयों ने कहा-लाश को नहीं जलाना चाहिए। आखिर में कई चालाक व्यक्तियों ने जला दी। इतने में पुलिस आ गई। थानेदार ने केस की तहकीकात की।
शाम को ससुरजी आये । सारी जानकारी ली। कहा-‘बयान में मैं कहूं जैसे बोलना।’ कचहरी में उपस्थित हुए। थानेदार ने कहा-उस लाश को जलाया क्यों? कई रांगड़ बोले-मरने के बाद क्या करें? चाहे कुएं में गिरकर मरो, चाहे मौत से मरो।
वह भी बिना मौत नहीं मरी थी। यदि बिना मौत मरती तो आप तो नही मरे । दो दिन पहले एक सेठ मर गया था। उसको भी जलाया था। मरने के बाद शव को हम एक दिन भी नही रखते हैं। अब आप कहें तो जितने भी मरेंगे उन सबको आपके पास भेज देंगे, जलायेंगे नही।
आप उन सबको सुरक्षित रखना। थानेदार ने सोचा-ये सब मूर्ख हैं। इनके सामने बोलना राख मे घृत डालना है। मूर्ख से बात करने में भी नुकसान है। थानेदार ने उन सबको छोड़ दिया। सब अपने-अपने घर चले गये।
शिक्षा (moral of the stories)
कभी-कभी मूखों की अक्ल भी काम आ जाती है। अक्ल से सब बरी हो गये । कचहरी से छुटकारा मिला। दुनिया मे अक्ल का बहुत बड़ा महत्व है।
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2. अपना दोष (stories in hindi with moral for class 9)
एक महाजन था। उसके घी और तम्बाकू का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वह अपने व्यापार मे कभी भी अनीति नही करता था। सरल-स्वभावी व मधुरभाषी होने के कारण वह आस-पास के क्षेत्र मे जनप्रिय था। उसके एक भोला-भाला लड़का था। सेठ को एक दिन किसी कार्यवश बाहर जाना था, किन्तु मन मे चिन्ता थी कि दुकान पर कौन बैठेगा।
लडके ने कहा-पिताजी ! चिंता करने की जरूरत नही है, दुकान को मैं संभाल लूंगा । आप मुझे वस्तुओं के भाव बता दें।
पिता ने कहा-पुत्र ! अपनी दुकान पर घी और तम्बाकू दो ही चीज है। दोनों के एकभाव है। पर एक बात विशेष याद रखना, जब तक खुले हुए टीन खत्म न हो जायें, दूसरे टीन मत खोलना ।
पुत्र को शिक्षा देकर पिता गांव चला गया। पुत्र दुकान पर आया। चारों तरफ नजर दौड़ाई। एक तरफ घी के टीन पड़े थे और एक तरफ तम्बाकू के टीन। दोनों ओर एक-एक टीन आधे खाली थे। उसने सोचा-पिताजी कितने मूर्ख हैं, एक भाव की वस्तु के लिए दो टीन रोक रहे है।
उसने घी का टीन उठाया और तम्बाकू वाले टीन में उसे उड़ेल दिया। इतने में घी का ग्राहक आया। उसने उसमें से घी दिखाया। ग्राहक ने कहा-घी में तम्बाकू कैसे? हमें असली घी चाहिए। वह गुस्से में आकर बोला-यह तो असली घी है, लेना हो तो लीजिए, वरना चले जाइये यहाँ से!
थोड़ी देर बाद तम्बाकू का ग्राहक आया और पूछा-सेठ साहब कहां है? वह बोला-सेठ की क्या आवश्यकता है, मैं बैठा हूँ उनका लड़का । क्या चाहिए? ग्राहक बोला-तम्बाकू लेने आया हूं। उसने उसी टीन में से लाकर दिखा दी। ग्राहक ने कहा -मूर्ख! यह क्या तंबाकू है? वह बोला-मूर्ख मैं क्यों, मुर्ख तुम हो, लेना हो तो लो वरना आगे चलो। यहां अंट-संट बोलने की जरूरत नहीं।
इस प्रकार अनेक ग्राहक आये। उनको वही दिखाया जाता था सब । बासी हाथ लौट गये। दूसरे दिन पिता आया। पुत्र से दुकान का हाल पूछा तो वह गरज पड़ा-पिताजी! आपने सब ग्राहकों को बिगाड़ रखा है। जो भी आता है मुझे मूर्ख व गधा कहता है। मैं आपका पुत्र मूर्ख क्यों ? मूर्ख वे है। पिता ने कहा पुत्र ! तूने ग्राहकों को माल अच्छी तरह नहीं दिखाया होगा। चलो दुकान पर चलें।
पुत्र ने कहा-पिताजी! एक समझदारी तो आपकी भी मुझे अच्छी नहीं लगी। घी और तम्बाकू दोनों का एक भाव है, फिर भी आपने अलग-अलग टीन रोक रखे थे। मैंने उनको मिलाकर एक टीन खाली कर रख दिया। पिता ने हंसते हुए लाडले बेटे से कहा-बेटे ! जाओ, उस एक टीन को भी कूड़ा-खाना में डालकर खाली कर आओ और तुम अपना दोष देखो। वास्तव में ग्राहक मूर्ख नही हैं, मूर्ख तुम हो।
शिक्षा (moral of the stories)
जो व्यक्ति स्वयं की त्रुटि को नही देखता है उसका कभी भी सुधार नहीं हो सकता। अतः सब आत्मदोषदर्शी बनें इसी में सबका भला है।
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3. बुद्धि का चमत्कार (moral stories for class 9 in hindi)
एक सेठ था । उस के घर में चोर घुस गये। सेठजी की आंखे खुलते ही उन्होंने सेठानी से पूछा-तेरे आभूषण कहां हैं ? सेठानी बोली-पीहर में भूल गई । सेठ बोला-कल ले जाना। यह बात सुनकर चोर वहां से चले गये।
सेठ ने दूसरे दिन चार सर्प मंगवाए और चार घड़ों में डालकर कमरे के चारों कोनों में घड़ों को रख दिया। रात्रि में चारों चोर आये। कमरे में पहुंचे। चारों ने एक साथ घड़ों में हाथ डाले। सांपों ने डाक मारा मारा। चोर जोर से चिल्लाये। सेठ ने सोचा काम बन गया। कुछ ही क्षणों में चारों चोर यमदूत के मेहमान बन गये।
सुबह होते ही देखा, चार लाशें पड़ी है। इतने में ही एक बाबा आ गया। उसने गांजा मागा। सेठ ने कहा मेरा नौकर मर गया है। इसे दफनाओ तो दस का नोट मिल जायेगा। यदि वह मुर्दा वापस आ गया तो एक भी पैसा नही दूंगा।
उसने सब स्वीकार कर मुर्दे को कंधे पर उठाकर जंगल मे गड्ढा खोदकर गाड़ दिया। दौडा-दौडा आकर वह बाबा बोला-सेठ साहब ! दीजिए दस रुपये। सेठ बोला- वह मुर्दा तो वापस आ गया, पहले इसको दफनाओ, तब नोट मिलेगा। उसने वैसे ही दूसरी बार और तीसरी बार दफनाया। सेठ ने कहा वापस आ गया। बाबा ने सोचा, इस बार दफनाऊंगा नहीं। अब इस मुर्दे की लाश को कुएं मे डालूंगा ।
चौथी बार जब कुएं मे डाला तो बहुत जोर का धमाका हुआ। पास मे मस्जिद थी। मियाजी नमाज पढ़ रहे थे। यह धमाका सुनते ही वे घबराये और दौडे। मियाजी के पीछे-पीछे वह बाबा दौडा, उसने सोचा-वही मुर्दा है जिसको मैंने कुए मे डाला था। सेठ ने दौडते हुए मियांजी से कहा-क्या बात है, घबराये कैसे ? मियाजी ने सारी स्थिति की जानकारी दी।
सेठ ने उनको अपने घर पर सुला दिया। बाबा पहुंचा और बोला-दीजिए दस रुपये का नोट । सेठ ने कहा-वह मुर्दा वापस आ गया। खटिया पर सोया हुआ है। बाबा बोला-दफनाता-दफनाता मैं तो थक गया। मेरे से अब काम नही होता है। नहीचाहिए मुझे दस का नोट । नमस्ते | हाथ घिसता-घिसता यो ही चला गया।
शिक्षा (moral of the stories)
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4. गुरु और शिष्य (moral stories in hindi for class 9 with moral)
वर्षा ऋतु का समय था। चारों तरफ बादल उमड़ रहे थे। किसान लोग खेतों में जा रहे थे। स्थान-स्थान पर गड्ढों में पानी भर रहा था। मेंढक टर-टर्र कर रहे थे। कहीं-कहीं पानी में से निकलकर छोटे-छोटे मेंढक कूद-फांद रहे थे। उस समय किसी कार्य से गुरु और शिष्य कहीं जा रहे थे। अचानक असावधानी से गुरु के पैरों तले मेंढक आ गया और वह मर गया।
शिष्य ने हाथ जोड़कर गुरु से निवेदन किया और प्रायश्चित्त लेने के लिए प्रार्थना की । गुरु ने सुना-अनसुना कर दिया। कुछ भी बोले नहीं। दोनों अपने स्थान पर पहुंच गए। शिष्य आया । नमस्कार कर बोला-गुरुदेव ! उसका प्रायश्चित करना है। यह सुनते ही गुरु क्रोध में लाल हो गये, रोषपूर्ण वक्र दृष्टि से शिष्य को देखने लगे।
शिष्य ने सोचा, अभी कहना उपयुक्त नहीं था क्योंकि गुरुजी कार्य में व्यस्त हैं । सायंकाल प्रतिक्रमण के समय याद दिलाना उपयुक्त होगा। वह उठा और अपने स्थान पर चला गया।
सूर्य अस्त हुथा। प्रतिक्रमण करने के लिए सभी संतगण उद्यत हुए। आलोचना लेने के लिए गुरु के समक्ष वह शिष्य आया। दिवस सम्बन्धी अपने दोष-कार्य की आलोचना करके बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर वह बोला-पूज्यवर ! आज मार्ग में आपके पैरों से मेंढक की हत्या हो गयी थी। उसकी आप भी आलोचना कर लें।
गुरुजी अब अपने कर्तव्य को भूल गये। गुस्से में विवेकहीन बन गये और अपना डण्डा लेकर शिष्य के पीछे झपटे। उसे पकड़ने के लिए दौड़े और बोले जरा इधर आ, तुझे बताऊं मेंढक की हत्या कैसे हुई और कैसे होती है।
शिष्य आगे और गुरु पीछे-पीछे उपाश्रय में दौड़ने लगे। गुरु को इस तरह आवेश में देखकर शिष्य कहीं छिप गया। उपाश्रय में गहरा अंधेरा था। खम्भे भी बहुत थे। अचानक एक खम्भे से गुरुजी टकरा गये और गिरते ही उनका देहांत हो गया। उनकी वह आत्मा शरीर को छोड़कर चण्डकौशिक सर्प के रूप में उत्पन्न हुई।
क्रोध के कारण उनकी संयम-साधना सफल न हो सकी और उनको तिर्यञ्चगति में जन्म धारण करना पड़ा ।
शिक्षा (moral of the stories)
अतः किसी भी स्थिति में क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं है।
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5. श्रीकृष्ण और पाण्डव (long moral stories in hindi for class 9)
पाण्डवो ने श्रीकृष्ण से कहा कि अब हम तीर्थस्नान करने के लिए जाना चाहते हैं, कृपया आज्ञा प्रदान कीजिए; क्योंकि युद्ध के भयंकर पाप से हमारी आत्मा मलिन हो रही है, तीर्थस्नान से मलिनता दूर हो जायेगी। श्रीकृष्ण ने उनको अनुमति देते हुए कहा कि साथ में यह मेरी एक तुम्बी भी ले जाओ, जहां तुम एक बार स्नान करो वहां मेरी तुम्बी को दो बार स्नान कराना।
पाण्डव बड़ी खुशी से चले । क्रमशः उन्होंने सभी तीर्थों में स्नान किया और साथ-साथ तुम्बी को भी दो-दो बार स्नान करवाया । अंत में श्रीकृष्ण के दरबार मे वे पहुंचे। कुशल संवाद के अनन्तर उन्होंने वह तुम्बी श्रीकृष्ण को भेंट की। श्रीकृष्ण ने पूछा-तुम्बी को दो-दो बार स्नान करवाया? उन्होंने कहा-हां, महाराज। जिस नदी मे हमने एक बार स्नान किया इसे हमने दो-दो बार करवाया।
श्रीकृष्ण ने तुम्बी के छोटे-छोटे पांच टुकड़े किए और प्रत्येक पांडव के हाथ में देते हुए कहा-तीर्थस्नान के इस प्रसाद को जरा देखो तो?पांडवो ने उसे मुंह में डाला तो सारा मुंह खारा हो गया। श्रीकृष्ण ने पूछा-क्यों, स्वाद कैसा है ? पाण्डवों ने कहा-बिलकुल खारा।श्रीकृष्ण ने आक्षेप की भाषा में कहा-यह कैसे हो सकता है
इतने स्नान कर लेने के बाद तो तुम्बी खारी नहीं रहनी चाहिए। तुमने इसे अच्छी तरह से स्नान नहीं करवाया। राजन। तीर्थस्नान कर लेने मात्र से तुम्बी का खारा पन दूर हो सकता है ? तब श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा- तो फिर तुम्हारी आत्मा के पाप इस बाहरी स्नान से कैसे दूर हो सकते हैं? पाण्डवों के दिल में श्रीकृष्ण की बात जंच गई। उन्होंने कहा-महाराज! आप हमें पहले ही इस तत्व से सावधान कर देते तो हम इतना भ्रमण क्यों करते?
श्रीकृष्ण बोले-उस समय यदि समझाता तो यह बात हदयंगम नहीं हो सकती थी।
शिक्षा (moral of the stories)
यदि तुमको आत्मस्थ पापों से दूर करना है तो -आत्मा नदी संयम जल से पूर्ण हो, सत्य का उसमें प्रवाह व दया तथा शील के दोनों तट हो, ऐसे स्थान पर हे पाण्डुपुत्रो! तुम स्नान करो। तुम्हारी आत्मा पवित्र होगी। बाह्य स्नान से अन्तरात्मा की शुद्धि नहीं होने वाली है।
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6. लक्ष्य के प्रति श्रद्धा (short moral stories in hindi for class 9)
एकदा मौलाना रूम अपने शिष्यों को लेकर एक खेत में गये। खेत के मालिक किसान ने पानी के लिए पचास-पचास हाथ गहरे चार गड्ढे खुदवाये, किन्तु पानी नही निकलने से उन चार गड्ढों के पास में ही पांचळ गढा खुदवा रहा था।
शिष्यो ने जिज्ञासा जागृत करते हुए कहा-यह खेत का मालिक जमीन को जगह-जगह से क्यो खोद रहा है ? इसके पीछे क्या रहस्य है? मौलाना रूम ने समाधान देते हुए कहा-शिष्यो इस खेत के मालिक खेत में पानी देने के लिए पचास-पचास हाथ गहरे चार कुएं खोदे है, एक के बाद एक में पानी नहीं निकला।
अब पांचवां कुआ फिर खोद रहा है। कितना मुर्ख है यह ! अगर अपना धन और श्रम चारों के बजाय एक ही सौ हाथ गहरा कुआं खोदने में लगाता, तो खेत भी नहीं बिगड़ता और पानी भी मिल जाता। लक्ष्य भी पूरा हो जाता। लेकिन जिस व्यक्ति के दिल में समय के प्रति श्रद्धा नहीं होती उस व्यक्ति को सफलता नहीं मिल सकती।
शिक्षा (moral of the stories)
जिज्ञासु शिष्यो ! इससे सबक लो ! जिसके हृदय में लक्ष्य के प्रति श्रद्धा नहीं है, जो बार-बार बदलते रहते हैं, उनकी बही गति होती है, जो किसान की हुई। सफलता के इच्छुक मनुष्य को लक्ष्य के प्रति श्रद्धाशील रहना चाहिए । श्रद्धा के अभाव में किसी व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता। सांसारिक, सामाजिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में वही उन्नति कर सकता है जिसके दिल में गहरी श्रद्धा है श्रद्धाहीन का तनिक भी मूल्य नहीं है।
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7. लोभ का त्याग(stories in hindi with moral for class 9)
एक राजा था। संतान नहीं होने से वह बड़ा, चिन्ताग्रस्त रहता था। हर समय उसके मस्तिष्क में यही चिन्तन बसता था कि पुत्र के अभाव में राज्य का भार किसको दूंगा ? मैं अपना उत्तराधिकारी किसको चुनूंगा? इसी दुख से मंत्री भी पीड़ित था।
वह भी पुत्र के बिना काफी शोकाकुल रहता था । उसके मन में भी यही चिन्तन था कि मेरा मंत्री-पद कौन संभालेगा? मंत्री और राजा दोनों ने ही पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक तंत्र मंत्र करवाये। अनेकों देवी-देवताओं की शरण में गये, किन्तु भाग्य के अभाव में ये असफल रहे। एक दिन राजभवन में एक महात्मा आए और राजा से पूछा-‘राजन् ! तुम्हारे मुख पर उदासी क्यों छा रही है?’
राजा-महात्मन् ! मेरे और मंत्री के एक भी पुत्र नहीं है। इससे हम दोनों दुखी हैं। इसी चिंता से हमारा स्वास्थ्य बिगड़ रहा है कि हमारा उत्तराधिकारी कौन होगा महात्मा-‘राजन् ! इस समस्या का समाधान मेरे पास है। आपको बताऊं?
राजा-‘भगवन् ! हम आपका उपकार नहीं भूलेंगे। शीघ्र फरमाइये।’
महात्मा-शहर में जितने भी भिखारी हैं, उन सबको एक स्थान पर एकत्रित करके तुम अपने हाथ से सबको एक-एक रोटी का दान दो। मैं दरवाजे पर खड़ा रहूंगा । जो भिखारी पूरी रोटी का त्याग करेगा, उसको तुम राजा बना देना और जो आधी रोटी को छोड़ेगा उसको मंत्री पद पर नियुक्त कर देना।’
महात्मा के कथनानुसार राजा ने वैसा ही किया। महात्मा नोहरे के दरवाजे पर खड़े हो गये। ज्योंही दान लेकर एक-एक भिखारी बाहर निकलता, त्योंही महात्मा एक-एक को कहने लगे – ‘जो पूरी रोटी का त्याग करेगा उसको राजा बनाया जाएगा और जो आधी रोटी छोड़ेगा उसको मंत्री बनाया जाएगा।
सभी ने सोचा-यह सब कहने की बात है । कहां पड़ा है राज्य? इतने में एक भिखारी ने सोचा-आज मैं आधी रोटी से ही काम चला लूंगा। उसने आधी रोटी छोड़ दी। एक रंक ने पूरी रोटी छोड़ दी। महात्मा बोला-‘इन्होंने रोटी के लोभ का त्याग किया है।’ राजा ने एक को राज्य दे दिया और एक को मंत्री बना दिया।
ऐसा देखकर सभी भिखारी चिल्लाते हुए बोले-‘ऐसा पता होता तो हम भी त्याग कर देते, किन्तु अब पश्चाताप करने से क्या हो सकता है ! समय चला गया।’
शिक्षा (moral of the stories)
जो व्यक्ति लोभ का परित्याग करता है, वही आगे जाकर उन्नति के शिखर पर चढ़ सकता है। त्याग का सदा महत्त्व है क्योंकि त्यागी पुरुष ही समाज और देश का विकास कर सकते हैं।
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8. शब्दों का सही अर्थ (moral stories for class 9 in hindi)
बादशाह अकबर और बीरबल घूमने के लिए चल पड़े। चलते-चलते यमुना नदी के तीर पर पहुंच गये। उन्होंने वहां एक मच्छीमार को देखा। उसे देखकर बादशाह का भी जी ललचाने लगा। मछलियों को मारने के लिए बैठ गये।
बीरबल बोला-सच बताऊं या झूठ?
बेगम- बीरबल ! सात गुनाह तुझे माफ हैं । सही-सही बताना पड़ेगा। बोल, जल्दी बोल, बादशाह कहां पर ठहरे हैं?
बीरबल ने कहा- बादशाह झख मार रहा है।
यह सुनते ही बेगम का चेहरा बदल गया और मन ही मन सोचने लगी आज बादशाह किसकी संगत में है, अभी तक नहीं आये। क्या बात है ? इस प्रकार उनके दिल में विकल्प उठने लगे।
इतने में ही बादशाह आ पहुंचा। बेगम ने रोष-भरे शब्दों में पूछा-‘इतनी देर कहां थे? प्रतीक्षा करती-करती थक गई। आपने बीरबल को सिर पर चढ़ा रखा है। वह यों कहता है कि बादशाह झक मार रहा है।’
यह सुनते ही बादशाह गुस्से से लाल हो गया। बीरबल को बुलाकर सारी बात कही।
बीरबल बोला- शब्दों का सही अर्थ नहीं समझने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आखिर में सही अर्थ का पता लगते ही बादशाह और बेगम का गुस्सा शांत हो गया।
शिक्षा (moral of the stories)
हर शब्द का अर्थ सोच-समझकर करना चाहिए। एक ही शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। सही अर्थ के अभाव में बहुत बड़ा अन्याय हो सकता है।
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9. श्रद्धा से लाभ (moral stories in hindi for class 9 with moral)
एक योगी बन में साधना करता था। अचानक वहां नारद जी पहुंच गये। योगी ने पूछा-हे नारद ऋषि! आप कहां जा रहे हैं ? नारद ने कहा-ब्रह्माजी के पास जा रहा हूं। योगी ने कहा-‘मुझे मुक्ति कब मिलेगी, मेरे इस प्रश्न का उत्तर ब्रह्माजी से अवश्य लेकर पधारें।’
नारदजी आगे चले । मार्ग में फिर एक योगी मिला। उसने भी वही प्रश्न नारदजी के सामने रखा-‘मुझे मुक्ति कब मिलेगी, इसका उत्तर चाहिए।’ दोनों के प्रश्न लेकर नारद जी ब्रह्माजी के पास पहुंचे। नमस्कार किया।
दोनों हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक ब्रह्माजी से उन दोनों का उत्तर लेकर नारदजी चले। वे पहले योगी के पास पहुंचे। बोले-योगिन् ! ब्रह्माजी ने आपके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि वस हजार वर्षों पश्चात आपको मोक्ष मिलेगा।
यह सुनते ही वह योगी विचलित हो गया। इतने वर्ष हो गये साधना करते करते, अभी तक कुछ भी लाभ नहीं मिला। क्या सार है साधना में? कितने कष्ट सहे ! कष्ट सहते-सहते पक गया । ऐसे सोचकर वह अपने घर चला गया।
दूसरे योगी के पास नारद जी पहुंचे और बोले-योगिन् ! आप जिस वटवृक्ष के नीचे साधना कर रहे हैं, उस वृक्ष के जितने पत्ते हैं, उतने ही वर्षों के बाद आपको मोक्ष मिलेगा। यह सुनते ही वह योगी अवाक् रह गया। फिर भी उसने साधना नहीं छोड़ी। स्थिर रहा। घबराया नहीं। श्रद्धा से साधना करते करते मोक्ष पहुंच गया।
शिक्षा (moral of the stories)
जो व्यक्ति श्रद्धा से साधना करता है उसकी साधना अवश्य ही फलित होती है । जो विचलित हो जाता है, साधना मे श्रद्धा नही रखता है, वह मानव उस योगी की तरह संसार मे भटकता रहता है। वास्तव में श्रवा से ही लाभ मिलता है।
10. विनीत का सच्चा ज्ञान (long moral stories in hindi for class 9)
दो ब्राह्मण विद्यार्थी थे । बारह वर्ष तक काशी में अध्ययन करके वे घर जाने के लिए रवाना हुए । दोनों में एक विनीत था और एक अविनीत । मार्ग में जाते जाते दोनों ने एक पैर का निशान देखा। इस पर विनीत बोला-‘बताओ भाई! यह पैर किसका है ? अविनीत बिना विचारे ही शीघ्र बोला-यह पैर हाथी का होना चाहिए।’
विनीत चिन्तन पूर्वक बोला-मित्र ! यह पैर हथिनी का होना चाहिए, फिर वह दाहिनी आँख से कानी है, उसके ऊपर राजा की गर्भवती रानी है और अभी-अभी शहर गयी है।’ अविनीत क्रुद्ध होकर बोला-मेरे वचन में कभी फर्क नहीं पड़ सकता। यह पैर हथिनी का नहीं हो सकता! हाथी का है।’ दोनों वाद-विवाद करते हुए शहर में गए । वहां सर्वत्र खुशी का वातावरण छाया हुआ था।
मोहल्ले-मोहल्ले में बधाइयां बांटी जा रही थीं। उत्सव का कारण पूछने पर दोनों को पता चला कि महारानी के आज कुंअर हुआ है। दोनों राजभवन में गए और पूछताछ करने पर विनीत की कही हुई सभी बातें मिल गई। दोनों ने वहां भोजन किया। फिर आगे चले । रास्ते में तालाब के घाट पर विश्राम लिया। दोनों वहां बैठे-बैठे बातें कर रहे थे।
इतने में एक बुढ़िया वहां पर पहुंची। सिर पर पानी का घड़ा था। उन दोनों के तिलक-छपे देखकर बुढ़िया बोली-‘पंडित जी महाराज आप ज्योतिष विद्या के जानकार हैं, कृपया बताइए, मेरा पुत्र परदेश से कब आएगा? उसको गए हुए तीन वर्ष हो गए।’
बुढ़िया का तो इतना कहना हुआ कि अचानक सिर से घड़ा गिर गया। अविनीत शिष्य से रहा नहीं गया, वह अभिमान पूर्वक बोला-‘घड़ा फूट गया, तेरा बेटा भी मर गया।’ बुढ़िया के क्रोध का पार न रहा।
हाय-हाय करती हुई आक्रंदन करने लगी। विनीत विद्यार्थी ने आश्वासन देते हुए कहा-‘मांजी! दुःख करने की जरूरत नहीं है। आप घर जाइये, आपका पुत्र आपको घर पर ही मिलेगा।’बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी घर गयी। पुत्र उसी समय परदेश से आया था। बुढ़िया बोली-‘बेटा! तेरे से फिर बात करूंगी, पहले पंडित जी को बुलाकर लाती हूं।’
बुढ़िया गयी और हाथ जोड़कर बोली-‘पंडित जी महाराज! धन्य है आपके ज्ञान को, ज्योतिष शास्त्र को! आपकी बात अक्षरशः मिल गयी। कृपया मेरे घर पधारे, किन्तु इसे साथ न लाएं।’ आखिर दोनों ही उसके घर गये। बुढ़िया ने विनीत विद्यार्थी का काफी आदर-सत्कार किया और दक्षिणा के रूप में उसका एक सौ एक रुपये दिये।
अविनीत ने सोचा-यह क्या? मैं जो बात बताता हूं वह तो सब झूठ निकलती है। इसकी सब बातें सच मिलती हैं। गुरु ने विद्या अध्ययन कराने में अवश्य ही पक्षपात किया है। दोनों लड़ते-झगड़ते वापस गुरु के पास आये और सारे वृत्तान्त मे गुरु को अवगत कराया। दोनों से पूछताछ कर गुरु बोले-‘भाई! मैंने अध्ययन कराने मे बिलकुल पक्षपात नही किया है, किन्तु यह सब विनय और अविनय से विद्या प्राप्त करने का फल है। विनयवान की विद्या ही वास्तव में फलीभूत होती है।’
शिक्षा (moral of the stories)
हरेक विद्यार्थी को विनय से विद्याध्ययन करना चाहिए। विनयवान की विद्या ही फलवती होती है, अविनीत का ज्ञान उसके लिए प्रत्युत भारभूत सिद्ध होता है, अत: गुरुजनों का विनय करना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य है।
11. दावत महंगी पड़ी (moral stories in hindi for class 9)
बहुत पुरानी बात है, जब आदमी हा नहीं, जीव जन्तुओं में भी आपस में प्रेम भाव रहता था। बकरी और सिंह एक ही घाट पर पानी पीते थे। उन दिनों चूरे और बिल्ली भी मेल-जोल से एक दूसरे के घर आया जाया करते थे। एक बार चूहे राजा के महल में राजकुमार मूषक का जन्म हुआ। खुशियाँ मनाई जा रही थीं। बहुत से जीव जन्तु बधाई देने आ रहे थे। चूहे राजा की ओर से एक विशाल दावत का प्रबन्ध था। उन्होने सभी जीव जंतुओं को बुलाया। | निमंत्रण पत्र बाँटे जा चुके थे। ठीक समय पर मेहमानों का आना शुरू हो गया।
हलवाई लगे हुए थे। देशी घी में बने हुए शकरकन्द के हलवे की महक आ रही |थी। मूंगफली के दानों की खीर बनाई गयी थी। चाट पकौड़ी की तो शान ही निराली थी। सभी जानवरों के मुँह में पानी आ रहा था।
इसी बीच चुहिया रानी, राजकुमार मूषक को गोद में लिए पंडाल में बने मच पर आयीं। यह रंग बिरगी चमकदार साड़ी पहने हुए थीं। एक-एक कर सारे जानवर राजकुमार को आर्शीवाद देने के लिए मंच की ओर बढ़े। खरगोश ने राजकुमार को आर्शीवाद देते हुए कहा कि मैं इसे अपनी ही तरह दौडना सिखाऊंगा।
लोमड़ी ने आकर कहा, ‘मै राजकुमार को अपनी ही तरह चालाकी और सूझबूझ सिखाऊंगी।”
इसी प्रकार सभी जीव जन्तुओं ने राजकुमार मूषक को आशीर्वाद देते हुए कहा ‘उसकी आयु लम्बी हो” अब दावत की बारी थी। बिल्ली मौसी को मुख्य अतिथि बनाया गया था। मिट्टी की तश्तरियों में खाने की चीजें सजाकर रखी गयी थीं। मिट्टी के छोटे-छोटे घडो मे गरम जलेबी-दूध भर रहा था। तरह-तरह के पकवानों की खुशबू सब का मन मोह रही थी सभी जानवरों ने तश्तरी हाथ में ली, अपने मन चाहे पकवान परोसे और खाना शुरू कर दिया।
चूहे राजा के का रिन्दे सबकी सेवा में लग गए। देशी घी के हलवे और मूगफली की खीर से बिल्ली मौसी का मुँह बहुत मीठा हो गया था। वे चाट पकौडो | की ओर बढीं। मिठास दूर करने के चक्कर में वे अपनी चाट में अधिक मिर्च डाल
बैठीं। खटाई का तो मजा ही निराला था। बिल्ली मौसी ने डटकर चाट खाई। अधिक मिर्च के कारण उनके पेट तथा जीभ में जलन पड़ने लगी। मिर्च की जलन से उनका बुरा हाल था। सामने ही गरम दूध जलेबी के छोटे – छोटे घडे रखे थे। बिल्ली मौसी ने जल्दी से एक घडे में अपना मुँह डाल दिया। दूध काफी गरम था। इसलिए उनकी जीभ और मुँह दोनों ही जल गए। उन्होंने हड़बड़ाहट में मुँह घड़े से बाहर निकालना चाहा तो उनकी गरदन-घड़े में फंस गयी। अब तो बिल्ली मौसी मुसीबत में पड़ गयीं।
खाने-पीने की भीड़ में किसी का ध्यान उधर न गया। बेचारी बिल्ली मौसी का मुँह गरम दूध के घड़े में फँस गया। इसलिए जलन के साथ उन्हें कुछ दिखाई भी न पड़ रहा था। बिल्ली मौसी घड़े में अपना मुँह फंसाए हुए इधर से उधर गिरती-पड़ती अपने घर आयीं। कई बार कमरे की दिवारों से घड़े को टकराया। घड़ा टूटा तो सारा दूध जलेबी उनकी देह पर फैल गया। घड़े का वजनदार मुँह उनकी गरदन में पड़ा रहा। दिल्ली मौसी की सारी देह दूध जलेबी से चिपचिपा रही थी। जाड़े में कई बार उन्हें नहाना पड़ा। उन्हें ठण्ड लग गयी। घड़े के वजनदार मुँह से उन्हें चलने-फिरने में बड़ी दिक्कत हो रही थी।
12. ज्ञान की प्यास (moral stories in hindi for class 9)
उन दिनों महादेव गोविंद रानडे हाई कोर्ट के जज थे। उन्हें भाषाएँ सीखने का बड़ा शौक था। अपने इस शौक के कारण उन्होंने अनेक भाषाएँ सीख ली थीं; किंतु बँगला भाषा अभी तक नहीं सीख पाए थे। अंत में उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने एक बंगाली नाई से हजामत बनवानी शुरू कर दी। नाई जितनी देर तक उनकी हजामत बनाता, वे उससे बँगला भाषा सीखते रहते।
रानडे की पत्नी को यह बुरा लगा। उन्होंने अपने पति से कहा, “आप हाई कोर्ट के जज होकर एक नाई से भाषा सीखते हैं। कोई देखेगा तो क्या इज्जत रह जाएगी ! आपको बँगला सीखनी ही है तो किसी विद्वान से सीखिए।”
रानडे ने हँसते हुए उत्तर दिया, “मैं तो ज्ञान का प्यासा हूँ। मुझे जातिपाँत से क्या लेना-देना?”
यह उत्तर सुन पत्नी फिर कुछ न बोलीं। ज्ञान ऊँच-नीच की किसी पिटारी में बंद नहीं रहता।
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